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प्रथम दृष्टि: दर्शकों का विवेक सर्वोपरि

समाज पर फिल्मों का अच्छा-बुरा असर होता रहा है। यह कोई नई बात नहीं है। राज कपूर की फिल्म बॉबी देखकर कई...
प्रथम दृष्टि: दर्शकों का विवेक सर्वोपरि

समाज पर फिल्मों का अच्छा-बुरा असर होता रहा है। यह कोई नई बात नहीं है। राज कपूर की फिल्म बॉबी देखकर कई युवा प्रेमी युगल घर से भाग गए थे, एल.वी. प्रसाद की एक दूजे के लिए देखने के बाद कुछ ने खुदकशी कर ली। शोले में शराब पीकर धर्मेंद्र के पानी की टंकी पर चढ़ जाने वाले दृश्य की नकल तो कस्बाई शहरों में आज तक हो रही है। दूसरी ओर ऐसी भी फिल्में बनी हैं, जिनका दर्शकों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। अभी तक सबसे ज्यादा फिल्में अगर किसी एक विषयवस्तु पर बनी हैं, तो वह है ‘बुराई पर अच्छाई की विजय।’ लेकिन आजकल फिल्मों का जितना असर सियासत पर और सियासत का जितना असर फिल्मों पर हो रहा है, वह भारतीय सिनेमा के इतिहास में बिरले ही देखने को मिला। आजादी के पहले अशोक कुमार की किस्मत जैसी फिल्म ने अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया, तो आजादी के बाद इमरजेंसी के दिनों में अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का ने देश की सियासत में भूचाल ला दिया।

 

आम तौर पर फिल्म इंडस्ट्री राजनीति पर फिल्में बनाने से परहेज करती आई है। सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन या व्यवसाय का जरिया समझा जाता रहा है। लेकिन, अब फिल्मकारों को ऐसी थीम पर फिल्में बनाने से परहेज नहीं है जिनके सियासी मायने निकाले जाएं। निर्देशक सुदिप्तो सेन की ताजा फिल्म द केरला स्टोरी को उदाहरण के रूप में देखिए। यह फिल्म पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने अपने राज्य में इसके प्रदर्शन पर रोक लगा दी। उनका मानना है कि फिल्म के प्रदर्शन से प्रदेश में स्थिति बिगड़ सकती है। इसका प्रदर्शन तमिलनाडु में पहले ही रोक दिया गया। दूसरी ओर, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने-अपने राज्यों में फिल्म को टैक्स फ्री करने की घोषणा की है। यह गौर करने की बात है कि एक ही फिल्म से एक राज्य सरकार को कानून-व्यवस्था बिगड़ने का खतरा दिखता है तो दूसरे को वह इतनी अच्छे लगती है कि उसे मनोरंजन कर से मुक्त कर दिया जाता है।

 

आम आदमी को यह भले ही फिल्म स्क्रिप्ट की तरह लगे लेकिन अब सिनेमा हमारे देश में महज मनोरंजन और व्यवसाय का माध्यम नहीं रह गया है। सोशल मीडिया युग में फिल्मों का प्रभाव जनमानस पर इतना बढ़ गया है कि अब इसका इस्तेमाल परस्पर विरोधी पक्षों द्वारा सियासी औजार की तरह किया जा रहा है। रुपहले परदे का उपयोग धड़ल्ले से दर्शकों को अपनी विचारधारा के प्रति आकर्षित करने के लिए किया जा रहा है। बॉलीवुड को शायद अपनी इस छिपी शक्ति का पहले पता नहीं था। अब तो फिल्म इंडस्ट्री भी साफ तौर पर दो भागों में विभक्त दिखती है। एक खेमा एक विचारधारा वाली पार्टी का अनुसरण करता है तो दूसरा उनका विरोध करने वालों का। आज कई ऐसी फिल्में बन रही हैं, जिनकी विषयवस्तु पूरी या आंशिक रूप से राजनीति से ताल्लुक रखती है।

 

सवाल यह है कि क्या सियासी विषयवस्तु वाली फिल्मों को बनाने की मनाही है? आज हर निर्माता-निर्देशक को अपनी पसंद की फिल्में बनाने की मौलिक स्वतंत्रता है, लेकिन थिएटर में दिखाई जाने वाली हर फिल्म को सेंसर बोर्ड की स्क्रूटिनी से भी गुजरना होता है। हालांकि सेंसर बोर्ड की स्वायतत्ता और निष्पक्षता पर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या सियासी एजेंडे के तहत बनी किसी फिल्म को देखने के लिए दर्शकों को बाध्य किया जा सकता है? आखिरकार कोई फिल्म दर्शकों को सिनेमाघरों तक तभी खींच पाती है जब वह उन्हें पसंद आती है। पिछले साल विवेक अग्निहोत्री की द कश्मीर फाइल्स को समीक्षकों ने एजेंडा प्रेरित बेकार फिल्म बताया लेकिन वह पिछले दशक की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में शुमार हुई। द केरला स्टोरी भी आखिरी फिल्म नहीं होगी जिस पर विवाद हुआ और प्रतिबंध लगे। भविष्य में भी ऐसी फिल्में बनती रहेंगी।  

 

दरअसल, विवाद कैसा भी हो, उसका फायदा फिल्मों को ही होता है। अगर बुरी फिल्म हो तो कुछ ज्यादा ही। फिल्म इंडस्ट्री में कहा भी जाता है, ‘बैड पब्लिसिटी इज गुड पब्लिसिटी।’ इस वर्ष शाहरुख खान की पठान का बहिष्कार करने की अपील जितनी तेज हुई, बॉक्स ऑफिस पर उसकी किस्मत उतनी ही खुलती गई। जाहिर है, कोई भी छिपा एजेंडा या अभियान किसी फिल्म को हिट या फ्लॉप नहीं करा सकता। वह ताकत सिर्फ और सिर्फ दर्शकों के पास है। सियासी फायदे के उद्देश्य से कोई फिल्म बन तो सकती है लेकिन दर्शकों को थिएटर तक नहीं ला सकती। इसलिए जैसा शबाना आज़मी ने कहा, कोई फिल्म अगर एक बार सेंसर बोर्ड से पास हो जाती है तो उसके प्रदर्शन को रोकने का कोई औचित्य नहीं है। किसी फिल्म के तथाकथित संवेदनशील विषय, दृश्यों और संवादों से आहत होकर उसके खिलाफ प्रदर्शन करना या प्रतिबंध लगाना महज उसके प्रति दर्शकों की उत्सुकता बढ़ाने का काम करता है। बेहतर यही है कि फिल्म को फिल्म ही समझा जाए और उसे देखा या न देखा जाए, यह पूरी तरह आम दर्शकों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए।

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