जोशीमठ लगभग उच्च हिमालय का इलाका है जो विष्णुप्रयाग के संगम पर स्थित है। वहां एक तरफ विष्णुगंगा बहते हुए आती है, जिसे अलखनंदा भी कहते हैं। दूसरी तरफ से धौली नदी आती है जिसमें नंदादेवी से आने वाली ऋषिगंगा भी मिल जाती है। पंचप्रयागों में पहला प्रयाग यही है जो जोशीमठ की जड़ पर है। तकनीकी रूप से अलखनंदा की शुरुआत यहीं से होती है। ये दो नदियां दो अलग-अलग घाटियां बनाती हैं। दोनों घाटियां तिब्बत को जाती हैं। एक रास्ता कैलास मानसरोवर के तीर्थ की ओर जाता है। दूसरा बदरीनाथ की ओर जाता है। इन घाटियों के गांवों में भोटिया समुदाय के लोग रहते हैं जो इन्हीं रास्तों से तिब्बत के साथ व्यापार करते थे।
जोशीमठ के दोनों तरफ दो नेशनल पार्क हैं। इन्हें युनेस्को ने प्राकृतिक विरासत का दरजा दिया है। एक नंदादेवी नेशनल पार्क है। दूसरी तरफ फूलों की घाटी है। वहीं हेमकुंड साहब का तीर्थ भी है। पर्वतारोहण और ट्रेकिंग के लिए बदरीनाथ से गंगोत्री के बीच का दुर्गम ट्रांस-हिमालयन रास्ता भी जोशीमठ से ही खुलता है। इस लिहाज से जोशीमठ बहुत केंद्रीय महत्व रखता है। कोई हजार साल या उससे भी पहले आदि शंकराचार्य के समय में कहा जाता है कि चार मठों में एक मठ जोशीमठ में स्थापित हुआ। पहले यह क्षेत्र बौद्ध प्रभाव में रहा होगा पर धीरे-धीरे शंकराचार्य की परंपरा के प्रभाव में आया। चूंकि कैलास की यात्रा की परंपरा तो शंकराचार्य से पहले जैन धर्म के ऋषभदेव तक जाती है इसलिए कह सकते हैं कि चार धाम के अलावा कैलास मानसरोवर के कारण भी जोशीमठ का सांस्कृतिक महत्व काफी पुराना है। आधुनिक काल में सिखों का तीर्थ भी हेमकुंड साहिब में स्थापित हुआ।
यहां के लोग खतरा तो पचास के दशक में ही महसूस करने लगे थे, लेकिन साठ में चीन के कब्जे के बाद स्थिति बदलना शुरू हुई। सन बासठ में भारत और चीन के बीच जंग हुई, फिर भारत-तिब्बत व्यापार पूरी तरह ठप हो गया। ऐसे में यहां के समाज के लिए बड़ी दिक्कत आई क्योंकि यह समाज घुमंतू था और पूरी तरह मानवीय व्यापार पर तिब्बत के आसरे था। इनका मौसमी प्रवास बिगड़ गया। ये लोग नवंबर में नीचे आते थे और मई में वापस ऊपर जाते थे। इन्हीं के साथ हमारे देवता भी नीचे लाए जाते थे। बदरीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ में आज भी नवंबर में देवताओं की डोली नीचे लाकर स्थापित की जाती है। जोशीमठ में बदरीनाथ की डोली लाई जाती थी। छह महीने की बर्फ में भगवान अकेले नहीं रह सकते। जहां मनुष्य रहेगा उसके भगवान भी वहीं रहेंगे। यह हमारे तीर्थ की परंपरा थी। बारहमासी सडक़ें बनवाने वाली हमारी कम समझदार सरकारों को यह बात समझ में नहीं आती है।
दूसरी ओर बासठ के युद्ध के बाद बड़ा अंतर हिमालय को लेकर भारत सरकार के नजरिये में आया। यहां सेना की तैनाती शुरू हो गई। इसके बाद जोशीमठ को सेना की छावनी बना दिया गया। इसी बीच आइटीबीपी की स्थापना हुई और उसका मुख्यालय भी यहीं बनाया गया। जिन भोटिया लोगों का जीवन युद्ध के बाद व्यापार ठप होने के कारण ठहर चुका था, उन्होंने अपनी संपत्ति और धर्म का इस्तेमाल करते हुए जोशीमठ को ही अपना घर बना लिया। इस तरीके से जोशीमठ एक छोटी सी रिहाइश से अहम प्रवेश द्वार के रूप में तब्दील हो गया। हमारे तीर्थ की परंपरा में पर्यटन की परिकल्पना नहीं है लेकिन इन बदलावों के साथ यहां होटल खुलने लगे। तहसील मुख्यालय यहां खुल गया। सरकारों ने तीर्थ को भ्रष्ट परिसरों में बदलना शुरू कर दिया। फिर स्कींग वालों ने कहा कि जोशीमठ के पीछे एक बुग्याल है जहां दो-तीन महीने खूब बर्फ गिरती है, तो यहां विंटर स्पोट्र्स की कल्पना हुई। उसके ऊपर भारी रोपवे बनाया गया। सडक़ें बनाई गईं। फिर डायनामाइट से विस्फोट किए गए। इस तरह से यहां नया सिलसिला शुरू हुआ, हालांकि ये उदार किस्म के आक्रमण थे। असल आक्रमण बाद में शुरू हुए।
बहुत पहले दो विदेशी गुरु-शिष्य यहां स्विट्जरलैंड से आए थे। गुरु का नाम था आर्नोल्ड हाएम और शिष्य का नाम था ऑगस्टो गैन्सर। दोनों बहुत मशहूर भूगर्भविज्ञानी थे। इन्होंने 1936 में ही हिमालय की यात्रा की और पहली बार उच्च हिमालय के भूगर्भशास्त्र का काफी विस्तार से अध्ययन प्रकाशित किया। उस ग्रंथ का नाम था ‘सेंट्रल हिमालयन जियोलॉजी’, जो 1939 में छपी। इस अध्ययन में इन्होंने पहली बार बताया था कि हिमालय में जो मुख्य दरार है वह जोशीमठ के क्षेत्र में है। इन दोनों ने हिमालय का एक बेहतरीन यात्रा वृत्तान्त भी लिखा है, ‘द थ्रोन ऑफ द गॉड्स’। जोशीमठ के ताजा संदर्भ में लोगों को यह किताब जरूर पढऩी चाहिए। इनसे पहले भी अंग्रेजों ने गजेटियर में साफ-साफ लिखा था कि जोशीमठ एक पुराने और बहुत बड़े लैंडस्लाइड वाले इलाके में बसी हुई बसावट है। चूंकि यहां छोटे-छोटे मकान होते थे और एक सडक़ थी जो चुपचाप बदरीनाथ तक चली जाती थी, तो इलाके पर बहुत बोझ नहीं था। इसीलिए इन बातों पर पहले किसी ने ध्यान भी नहीं दिया।
जिस तरह से जोशीमठ में सडक़ें बनाई गई थीं, उन्हें सबसे पहले 1970 में अलखनंदा में आई बाढ़ ने चुनौती दी। पूरी घाटी को इस बाढ़ ने बहा दिया। गौना झील टूट गई। उससे इतनी गाद आई कि हरिद्वार की अपर गंगा नहर कई किलोमीटर तक मलबे से भर गई। उसे साफ करने पर करोड़ों रुपये खर्च हुए। इस बाढ़ ने हमारे समाज और स्थानीय संस्थाओं को विवश कर दिया कि वे बाढ़ के साथ जंगलों की कटान के रिश्ते को समझें। उस समय चिपको आंदोलन चल रहा था। उसने अध्ययन कर के बताया कि अलखनंदा के कैचमेंट में कितना जंगल कटान आया था और कैसे बाढ़ आई। आगे चिपको आंदोलन के कई परिणाम आए। 1980 में वन संरक्षण कानून आया जिसमें साफ कहा गया कि कोई भी वन भूमि दूसरे काम में इस्तेमाल नहीं की जाएगी। दूसरा नतीजा यह रहा कि एक हजार मीटर से ऊपर के हरे पेड़ नहीं काटे जाएंगे। इसके बाद जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार केंद्र में आई तो कंपनियों को कच्चे माल के लिए वनोत्पाद के ठेके रद्द कर दिए गए। इसके बाद पर्यावरणीय कानून आदि बनने शुरू हो गए, जो सामाजिक आंदोलनों आदि का प्रभाव रहा। तब तक सरकार भी संवेदनशील थी। तब तक कोई पनबिजली परियोजना हमारे यहां नहीं हुआ करती थी।
1980 में पहली बार बदरीनाथ से आ रही विष्णुगंगा नदी पर एक पनबिजली परियोजना बनाने की बात सरकार की ओर से आई। इस परियोजना पर चिपको आंदोलन के अगुआ चंडीप्रसाद भट्ट और दो-तीन बड़े वैज्ञानिकों ने काफी अध्ययन किया और यह पता लगाया कि सर्दियों में विष्णुगंगा, उसकी धाराओं और पुष्पावती का डिसचार्ज कितना रहता है। इस आधार पर उन्होंने कई लेख लिखे। चिपको आंदोलन की ओर से जब बाकायदा वैज्ञानिक तरीके से परियोजना को चुनौती दी गई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बहुत संजीदगी के साथ इसे सुना और विष्णुगंगा परियोजना को रद्द कर दिया। साथ में साइलेंट वैली की एक परियोजना को भी रद्द कर दिया गया। ये सब अस्सी में होने के बाद लंबे समय तक चीजें टली रहीं।
सन नब्बे में पी.वी. नरसिंह राव की सरकार आने के बाद बदलाव शुरू हुए, जब निजीकरण का दौर आया। जो विष्णुगंगा परियोजना पहले रद्द हो चुकी थी उसे सन नब्बे में जेपी कंपनी को दे दिया गया। यह 400 मेगावाट से ज्यादा की परियोजना थी। इसकी सुरंग 18 किलोमीटर से लंबी थी। अलखनंदा के दाहिने हाथ पर जो पहाड़ी है उसमें यह सुरंग बनाई गई। उस समय भी काफी चुनौती दी गई, लेकिन तब तक ठेकेदारी का दबाव बढ़ चुका था और नेताओं में भी विकास का आकर्षण पैदा हो चुका था क्योंकि वे जियोलॉजी और टेक्टॉनिक्स के बारे में कुछ नहीं जानते थे। उस समय चाईं गांव के लोगों के पक्ष में जब चिपको आंदोलन ने आवाज उठाई तो उसे लोगों ने विकास विरोधी ठहरा दिया। जब सुरंग बननी शुरू हुई तो उसका पहला दुष्परिणाम चाईं गांव पर पड़ा। उसके ज्यादातर मकान धंस गए। आज भी वह उजड़ा हुआ गांव जोशीमठ से देखा जा सकता है। बाद में उस गांव के लोगों को बड़ा पछतावा हुआ कि उन्होंने चिपको आंदोलन की चेतावनी को नहीं माना। बाद में न उन्हें कोई विकल्प दिया गया, न कोई हरजाना। जेपी कंपनी का दावा था कि उसके पास ऐसी आधुनिक तकनीक है कि जब मलबा ज्यादा आएगा तो अपने आप बांध के दरवाजे खुल जाएंगे। 2013 में वे देखते रह गए और पूरी परियोजना नेस्तनाबूत हो गई।
इसके बाद जोशीमठ की दूसरी नदी धौली को उन्होंने गुलाम बनाने की शुरुआत की। तकनीकी रूप से वहां जाना वर्जित था क्योंकि नेशनल पार्क को लेकर पर्यावरण कानून ऐसा कहते हैं, लेकिन ये लोग जबरन गए और वहां परियोजनाओं का सिलसिला शुरू कर दिया। दो प्रोजेक्ट तो बन गए। इनमें एक प्रोजेक्ट जो ऋषिगंगा पर बना था वह टूट गया, फिर दोबारा 2021 में बनकर पूरा हुआ। दूसरा वाला प्रोजेक्ट एनटीपीसी का था जो 500 मेगावाट से ज्यादा का था। पता नहीं एनटीपीसी को हाइडेल परियोजना बनाने की जरूरत क्या थी। यह प्रोजेक्ट रैणी गांव के ठीक नीचे जहां ऋषिगंगा का संगम है धौली के साथ, वहां स्थित तपोवन में सुरंग बनाने से शुरू हुआ। इसका शुरुआती परिणाम तपोवन के मकानों में दरारों के रूप में देखा गया। दरअसल, एक बात इस इलाके में देखने वाली ये है कि यहां जितने भी भूखलन हुए हैं उनमें बड़ा पत्थर कभी नीचे नहीं आया है। केवल बड़े बोल्डर या ढीली मिट्टी आई है। बोल्डर और लूज मास में आप सुरंग नहीं बना सकते। सुरंग हमेशा पत्थरों में बनाई जाती है। इस इलाके में हर जगह मास था, जोशीमठ में यह सबसे बड़ा बोल्डर था। वैसे भी जोशीमठ मोरेन पर है, तो हो सकता है वहां कभी बर्फ रही हो।
ये सब लूटने वाले काम सन 2000 के बाद बिना किसी व्यापक लाभ-लागत विश्लेषण या पर्यावरणीय प्रभाव आकलन के शुरू किए गए। ये लोग क्या करते हैं, कि जैसे आप और हम भाई-भाई हैं, वैसे ही एक ने ठेका ले लिया और दूसरे को पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की रिपोर्ट तैयार करने को दे दिया। बिना हिमालय की ईकोलॉजी, जियोलॉजी, टेक्टॉनिक्स जाने रिपोर्ट आ गई और काम भी शुरू हो गया। तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना में भी यही हुआ। इसका विरोध 2002-03 से ही शुरू हो गया था। उस समय नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री थे। वे दो-तीन बार इसका उद्घाटन करने आने वाले थे लेकिन विरोध के कारण नहीं आ सके। फिर देहरादून में ही बैठे-बैठे उन्होंने उद्घाटन कर डाला। डायनामाइट से विस्फोट का विरोध हो रहा था, तो ये लोग विदेश से पहाड़ में सुरंग बनाने वाली एक मशीन लेकर आए जो एक तरफ से घुसती है और सुरंग बनाकर दूसरी तरफ प्रकट हो जाती है। अब पता नहीं किस कारण से यह मशीन पांच-छह किलोमीटर के बाद ही फंस गई और इस पर एक बोल्डर भी गिर गया। इस मशीन को निकालने के लिए दाएं, बाएं, आड़े-तिरछे कई सुरंगें खोदी गईं। तब जाकर एक समांतर सुरंग बनाई गई। हमारे ज्यादातर भूगर्भशास्त्रियों का कहना है कि इसी मल्टी टनलिंग ने अंतत: जोशीमठ को पूरा का पूरा हिलाकर रख दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि पानी के अंदरूनी सोते बाहर निकलने लगे। वे बताते हैं कि एक मिनट में सात सौ लीटर तक पानी बाहर निकलता था। इसकी जांच या अध्ययन के लिए कोई कमेटी भी नहीं बिठाई गई। ये जो अपराधी डेवलपर हैं, ये चाहते भी नहीं हैं कि कोई स्वतंत्र कमेटी बैठाई जाए या अच्छे-सच्चे वैज्ञानिकों द्वारा कोई जांच हो। लिहाजा ये सब होता रहा।
जोशीमठ की संघर्ष समिति शुरू से ही इसका विरोध कर रही थी। उसने तीन वैज्ञानिकों की अपनी कमेटी बनाई- नवीन जुयाल, एसपी सती और शुभ्रा शर्मा। इन वैज्ञानिकों ने 2010 में ही अपनी रिपोर्ट दे दी थी। उससे पहले यह बताना जरूरी है कि 1970 की बाढ़ के बाद बार-बार यह आशंका जाहिर की जा रही थी कि जोशीमठ धंस जाएगा। इस बारे में 1976 में अनुपम मिश्र ने दिनमान में एक लेख लिखा था। इसी साल चंडीप्रसाद भट्ट का लेख भी जोशीमठ के बारे में छपा था। इन दोनों लेखों से सबक लेते हुए गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा ने एक प्रशासनिक रिपोर्ट दी थी जिसमें निर्माण के नियमन से संबंधित हिदायतें दी गई थीं। अब कहां 1976 और कहां सन 2000 जब उत्तराखंड नया राज्य बन गया, इसके बावजूद इतने साल में न कोई भूगर्भीय सर्वे किया गया न ही लाभ-लागत विश्लेषण या रिमोट सेंसिंग आदि। इसका नतीजा यह हुआ कि 2021 में 7 फरवरी को जब ऋषिगंगा में बनी झील फूटी तो उसने ऋषिगंगा परियोजना को नेस्तनाबूत कर दिया। उधर तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना की सुरंग में काम कर रहे 200 से ज्यादा मजदूर मारे गए। उनकी लाश आज तक वहीं है। आज तक हमारे यहां ऐसा हादसा हुआ ही नहीं था इसलिए राहत और बचाव कार्य वालों के पास लाशें निकालने का कोई प्रशिक्षण ही नहीं था। ये सभी मारे गए लोग झारखंड, बिहार, नेपाल, पूर्वी यूपी और उत्तराखंड के थे। सब सुरंग के भीतर स्वाहा हो गए।
कहने का अर्थ है कि ऐसे हादसों से भी कोई नहीं चेता। ऊपर से इस तरह की पनबिजली परियोजनाओं ने स्थिति को अंतत: और गंभीर कर दिया। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां पहले से ही एक प्राकृतिक तथ्य मौजूद है कि यह पूरा क्षेत्र भूकंप संवेदी है। सबसे ज्यादा झटके इसी इलाके में आते हैं। एक और तथ्य जिसके बारे में हाएम और गैन्सर ने बताया था और बाद में प्रोफेसर वल्दिया और जुयाल ने भी बताया है कि पश्चिमी नेपाल और हमारा इलाका सीस्मिक गैप में है यानी ऐसा इलाका जहां करीब एक सदी से कोई बड़ा भूकंप नहीं आया है। इसका अर्थ यह हुआ कि यहां ऊर्जा इकट्ठा होती जा रही है, बाहर नहीं निकल रही। इसलिए यहां भूकंप का आना अवश्यंभावी है। जिस समय चार धाम सडक़ें बनी थीं उसी समय प्रोफेसर वल्दिया ने कहा था कि इसके दुष्परिणाम जल्दी ही सामने आएंगे क्योंकि जब-जब हमने नदी के प्रवाह क्षेत्र में अतिक्रमण किया है तब-तब नदी ने हमसे बदला लिया है और वे हमारे किए हुए को पूरा बहा के ले गई हैं। 1970, 2013 और 2021 के उदाहरण हमारे सामने हैं।
जोशीमठ के संदर्भ में पनबिजली परियोजनाओं के साथ दूसरा कारण चार धाम सडक़ें हैं जिन पर बारह हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। सारे पर्यावरण कानूनों को ताक पर रखकर इन सडक़ों को बनाया गया है। एक तरफ सरकार ने पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की रिपोर्ट से बचने के लिए पचास-पचास किलोमीटर के ठेके दे दिए तो दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट अपनी ही बनाई कमेटी की सिफारिशों को मानने से मुकर गया। यह सरकार तो हिंदू राष्ट्रवादी भी है, लेकिन हिमालय के मामले में इतनी निर्मम तो कोई सरकार नहीं निकली है। जैसा व्यवहार इन्होंने बनारस के मंदिरों के साथ किया है वही ये हिमालय के मंदिरों के साथ भी कर रहे हैं। वरना आठ सौ नौ सौ साल पुराने मंदिर आज तक भयंकर भूकंपों के बावजूद क्यों बचे हुए हैं?
आखिर विज्ञान के आने से पहले भी तो यहां लोग थे? हमारे यहां जो मंदिरों की वास्तुशैली है, तीर्थ हैं, उनके पीछे एक खास किस्म के भूगोल की भूमिका है। उत्तराखंड के लोगों का दुर्भाग्य है कि उन्होंने ईकोलॉजी और हिंदू का मतलब ही नहीं समझा। आप प्रकृति को नष्ट करेंगे तो संस्कृति कहां बच पाएगी। अकेले जोशीमठ ही नहीं, कर्णप्रयाग के मकान भी धंस रहे हैं। आगे इसके बुरे नतीजे और दिखेंगे क्योंकि विकास का भ्रम औसत लोगों को उतना नहीं है जितना ठेकेदारों ने उसका इस्तेमाल किया है। सुप्रीम कोर्ट की गलतियों को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। यह ईकोलॉजी का सवाल है। पूरे उत्तरी भारत को इसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे, इसलिए यह अक्षम्य है।
प्रतिष्ठित पर्यावरणविद, हिमालय पर कई पुस्तकों के लेखक। हरिमोहन मिश्र से बातचीत पर आधारित