आजाद हिंदुस्तान के लिए जनवरी की अहमियत किसी भी दूसरे महीने के मुकाबले कहीं अधिक है। इसलिए नहीं कि इस महीने में 26 जनवरी पड़ती है जो भारत के गणतंत्र बनने का दिन है, या 23 जनवरी आती है जो नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्मदिन है। दोनों तारीखों का महत्व है लेकिन जनवरी इस चलते भारत का बुनियादी महीना नहीं बनता। इसके अलावा दो तारीखें ऐसी हैं जो भारत को उसके अस्तित्व का तर्क प्रदान करती हैं। 30 जनवरी को भूलना शायद ही मुमकिन हो। इसके पहले 13-18 जनवरी की तारीखें ऐसी हैं जिनके बारे में भारत के इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में बात नहीं की जाती। लेकिन ये वे तारीखें हैं जो भारत को सामाजिक रूप से जीने का तरीका सिखाती हैं। तरीका और सलीका।
30 जनवरी को गांधीजी की हत्या की गई थी, यह सब जानते हैं लेकिन क्यों, इस पर बात करना सभ्यता के विरुद्ध माना जाता है। उस हत्या से भी 13 से 18 जनवरी का गहरा रिश्ता है। इन तारीखों को गांधीजी ने अपने जीवन का आखिरी उपवास किया था। आजाद हो चुके भारत में आखिर वे क्यों उपवास कर रहे थे? गांधी को उपवासों पर महारत हासिल थी। पहले भी कई उपवास कर चुके थे। लेकिन यह उन सबमें खास था। इसलिए कि यह आजाद हिंदुस्तान में किया जा रहा था, लेकिन उससे भी ज्यादा इसलिए कि यह भारतीय जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करने की कोशिश कर रहा था।
उपावस का निर्णय गांधी ने तब किया जब उन्हें लगा कि सितंबर से जनवरी तक दिल्ली में हिंसा रोकने की उनकी सारी कोशिश नाकामयाब रही है। कलकत्ता में शांति बहाल कर वे सितंबर में दिल्ली पहुंचे थे। दिल्ली में मस्जिदें तोड़ी जा रही थीं, मुसलमानों को मारा जा रहा था, अपने इलाकों से बेदखल किया जा रहा था। गांधी ने निर्णय लिया कि जब तक दिल्ली शांत नहीं होती, वे हिलेंगे नहीं। लेकिन गांधी का जतन काम न आया। दिल्ली में खूनखराबा जारी रहा।
तो क्या वे हार मान लें? जैसे राम की शक्तिपूजा के राम ने पराजय के सम्मुख अपनी आंख अर्पित करने का निर्णय लिया, वैसे ही गांधी ने खुद को खराद पर चढ़ाने का फैसला किया। अपने विचार की परीक्षा के लिए खुद को ही कसौटी पर चढ़ाना होता है।
इस उपवास के दौरान गांधी को कई सवालों और आरोपों का सामना करना पड़ा। उनमें सबसे गंभीर इल्जाम यह था कि वे यह उपवास मुसलमानों की तरफ से कर रहे थे। गांधी ने उत्तर दिया कि इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि उनका यह उपवास भारत में मुसलमानों के लिए किया जा रहा। इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि यह मुसलमानों की तरफ से था, भारत में हिंदुओं और सिखों के खिलाफ भी था, साथ ही यह पाकिस्तान के हिंदुओं और सिखों की तरफ से था और वहां के मुसलमानों के खिलाफ था।
गांधी ने कहा कि दरअसल यह दोनों ही मुल्कों के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की हिफाजत के लिए किया जाने वाला उपवास था। यह बुनियादी सिद्धांत होना था जनतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का। जिस राष्ट्र में अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं, उसे खुद को न तो जनतंत्र कहने का हक है न धर्मनिरपेक्ष मानने का।
जिन्ना का दावा था कि उनके मुल्क में हिंदू और सिखों को मुसलमानों के बराबर ही शहरी हक मिलेंगे। लेकिन उनकी तो जान भी सुरक्षित न थी वहां। गांधी पूछते रहे कि आपके वायदे का क्या हुआ और क्यों हिंदुओं और सिखों को भागना पड़ रहा है पाकिस्तान छोड़कर। फिर वह मुल्क पाक कैसे होगा? लेकिन जो बार-बार पाकिस्तान की हिंसा का हवाला दे रहे थे भारत में हिंसा को जायज ठहराने के लिए, उनसे वे पूछ रहे थे कि जब तक यहां मुसलमानों को मारा जाता रहेगा, किस मुंह से पाकिस्तान से सवाल करेंगे।
पाकिस्तान के अंधेरे को मिटाने के लिए वे भारत में, जिसे वे और नेहरू यूनियन कहते हैं, यह अपील कर रहे थे कि मुसलमानों के लिए चैन और अमन का माहौल बनाया जाए। वे कह रहे थे कि बहुसंख्यक जब यह कहने लगें कि उन्हें अल्पसंख्यकों से डर लगता है, इसलिए वे उनपर हमला कर रहे हैं तो यह उनके लिए शर्म की बात होनी चाहिए। वे एक काल्पनिक डर पैदा कर रहे हैं और उसकी आड़ में अपनी हिंसा को जायज ठहराने की कोशिश कर रहे हैं।
रियायत उनके मन में न तो हिंदुओं की हिंसा के लिए थी, न मुसलमानों की हिंसा के लिए। लेकिन इस दौरान उन्होंने एक मंत्र समझाया, जो उन्हें एक विदेशी मित्र ने दिया था कि जो भी स्थिति हो, जब संदेह हो तो हमेशा अल्पसंख्यक के साथ खड़ा होना चाहिए। इसका एक अर्थ बहुसंख्यक के खिलाफ जाना भी होगा। भारत में अल्पसंख्यक मुसलमान और ईसाई ही हो सकते थे, जैसे पाकिस्तान में हिंदू और सिख। गांधी इस उपवास के माध्यम से एक महत्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित कर रहे थे: धर्मनिरपेक्षता का सरल अर्थ है बहुसंख्यकवाद का विरोध।
पाकिस्तान में यह बहुसंख्यकवाद आएगा इस्लाम के नाम पर, भारत में हिंदू धर्म के नाम पर। हम जानते हैं कि श्रीलंका और म्यांमार में यह बौद्ध धर्म के नाम पर ही आएगा। इसलिए समस्या किसी धर्म में नहीं, बहुसंख्यकवादी विचार में है और इसका खतरा हर जगह बना हुआ है।
गांधी ने उपवास तब तोड़ा जब उन्हें राजेंद्र बाबू ने यकीन दिलाया कि दिल्ली में वाकई अमन लौट रहा है। 18 जनवरी को दिल्ली के नागरिकों की ओर से उनके सामने एक संकल्प-पत्र पेश किया गया। गांधी ने उसे स्वीकार करते हुए उसपर दस्तखत करनेवालों से कहा कि वे इस संकल्प और वायदे को याद रखें। अगर यह सिर्फ उपवास तुड़वाने की एक तरकीब साबित होता है और अगर मुसलमानों के खिलाफ, सिर्फ दिल्ली ही नहीं, भारत में कहीं भी हिंसा लौटती है, तो गांधी उन्हें पकड़ेंगे। बल्कि यह ईश्वर के साथ किया गया छल होगा।
उपवास के बाद 19 जनवरी को प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा कि हालात ऐसे बनें कि मुसलमानों के लिए हर जगह स्वागत और स्वीकार का भाव हो। उनके लिए साझा स्कूलों में जगह हो, खेलों में वे घुलमिल सकें। किसी भी सूरत में उनका बहिष्कार न हो।
20 जनवरी को गांधी पर बम से हमला हुआ। जाहिरा तौर पर गांधी की जान बचाने के पक्ष में सब न थे। बच जाने पर जब उन्हें बधाई दी गई तो उन्होंने कहा कि इसमें उनकी कोई बहादुरी न थी क्योंकि उन्हें पता ही न था कि उन पर हमला हुआ है। वीरता तब मानी जाएगी जब सामने हमलावर हो और वे डरकर भागें नहीं। ऐसा वे कर पाएंगे, इसका पक्का यकीन उन्हें नहीं है।
इसी दरम्यान गांधी ने यह भी स्वीकार किया कि अब तक भारत में जो तरीका अपनाया गया था, उसे अहिंसा कहना मुनासिब न होगा। वह एक रणनीति थी जो सशस्त्र अंग्रेजों के मुकाबले के लिए अपनाई गई थी। उन्होंने यह भी कहा कि अहिंसा उनके लिए उसूल या धर्म है, लेकिन कांग्रेस के लिए वह सिर्फ नीति रही। यह भी साबित हो गया कि जब भारतवासियों को शक्ति का एहसास हो गया तो हिंसक होने से वे खुद को रोक न पाए। फिर क्या अहिंसा के सिद्धांत में कमी थी? गांधी स्पष्ट थे कि अहिंसा के उसूल में नहीं बल्कि उसे लागू करने वाले साधन में समस्या थी। वह साधन वे खुद थे लेकिन भारत की जनता भी थी। इस साधन को अभी खुद को और साधना बाकी था।
आजादी के वक्त की खूंरेजी के बीच भी गांधी ने सामूहिक तर्कशक्ति को जगाए रखने की कोशिश जारी रखी। यह आसान न था। उस समय हिंसा को उचित ठहराने के लिए तर्क दिया गया कि मुसलमानों में बदमाश और अपराधी हैं। फौरन गांधी ने पूछा कि क्या उन्हें जीने का अधिकार नहीं है और उनके साथ क्या हो, यह निर्णय भीड़ करेगी?
गांधी के आखिरी दिन या महीने अपने लोगों से संघर्ष करते हुए बीते। लेकिन गांधी ने तय किया कि वे इस आग के ठीक बीच में कूदेंगे और उसी अग्निकुंड में रहेंगे। नोआखाली हो या कलकत्ता या बिहार या दिल्ली, गांधी खून और आग के बीच रहे। अहिंसा के पालन का अर्थ हिंसा से मुंह मोड़ना या किनारा करना नहीं, उसका डटकर मुकाबला करना है।
गांधी की हत्या उनके उपवास टूटने के बारह दिन बाद कर दी गई। यह अचानक, क्रोध के आवेग में की गई हत्या न थी। जैसा नाथूराम गोडसे के अदालती बयान से स्पष्ट होता है, यह काफी सोच-समझकर योजनापूर्वक की गई हत्या थी। 20 जनवरी का बम का हमला इस योजना का एक हिस्सा था जिसके विफल होने के बाद उसमें शामिल नाथूराम दोबारा 30 को लौटा। इस बार वह सफल रहा।
गांधी की हत्या क्या किसी हाशिए के विचार का परिणाम था? अगर आज सर्वेक्षण कर लिया जाए तो भारत के बहुसंख्यक समुदाय का एक अच्छा-खासा हिस्सा इस हत्या के कारण से सहमत मालूम पड़ेगा। उसे गांधी की यह जिद गलत मालूम पड़ती है कि पाकिस्तान को दुश्मन न माना जाए और भारत के हिंदू खुद को इस मुल्क का मालिक न मानें। वे खुद को मुसलमानों का सरपरस्त भी न समझें, न खुद को भारत का बड़ा भाई और बाकी समुदायों को अपना अनुशासित।
गांधी से शिकायतें और भी हैं। एक खयाल यह है कि अहिंसा का जाप करके उन्होंने हिंदुओं को नामर्द बना दिया। उससे बड़ी शिकायत थी कि गांधी ने उस वक्त दलित जातियों के पक्ष में आंदोलन किया। उनके प्रति सवर्ण क्षोभ के चलते पहले भी उन पर शारीरिक आक्रमण हुए थे। 30 जनवरी को गांधी की हत्या के पीछे मुसलमान विरोधी नफरत के साथ दलित विरोधी घृणा भी थी।
यह विडंबनापूर्ण संयोग है कि गांधी के जीवन के आखिरी महीने में ही रोहित वेमुला ने दो साल पहले भारत को अपने अस्तित्व के लिए असहनीय मानकर आत्महत्या कर ली थी। उसके बाद गांधी के विचार को भारत के लिए हानिकारक मानने वालों ने रोहित के खिलाफ ही एक घृणा अभियान चला दिया। इस तरह उसकी खुदकुशी के कारणों पर परदा डालने की कोशिश हुई, जो जारी है। गांधी की हत्या को भी जायज ठहराने का एक गुपचुप अभियान पिछले सत्तर साल से चल रहा है।
आज गांधी की आखिरी जनवरी के सत्तर साल बाद की जनवरी में हमें वही सवाल करना है जो गांधी ने तब किया था। भारत में अगर अल्पसंख्यक सुरक्षित महसूस नहीं करते तो भारत कैसा जनतंत्र है और क्या वह सभ्य कहलाने लायक है भी?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर हैं)