भाजपा की तारीफ करनी होगी कि पिछली बार हो, या उससे भी पिछली बार, भाजपा ने अपना एजेंडा छिपाया नहीं है। साथ ही उन महानुभावों की बुद्धि पर बलिहारी भी की जानी चाहिए जो इस समय कांग्रेस को प्रज्ञा की शैली में शाप दे रहे हैं कि वह मर जाए और खुद कुछ बरस पहले आरएसएस के सक्रिय सहयोग से तथाकथित आज के गांधी के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला रहे थे। आंदोलन के बाद जनलोकपाल का तो अता-पता नहीं, हां, मोदी प्रधानमंत्री जरूर बन गए और अब उनका दूसरा कार्यकाल पहले से भी अधिक ताकत के साथ शुरू हो गया है। इन महानुभावों को एहसास ही नहीं हुआ कि भ्रष्टाचार या कोई भी आचार, आरएसएस, भाजपा के लिए एक बड़ी सोच के अंतर्गत ही मायने रखता है। भ्रष्टाचार के आरोपी भाजपा में शामिल होते ही सदाचारी मान लिए जाते हैं। आरएसएस का हर कदम एक निश्चित भविष्य कल्पना से प्रेरित है, और वह भविष्य वही है ‘राजनीति का हिंदूकरण, हिंदुओं का सैनिकीकरण’। राजनीतिशास्त्र के जो ज्ञाता इस ओर से आँखें मूंदकर आरएसएस और बीजेपी के साथ सहयोग करने के बाद कांग्रेस को शाप देते हैं, सोचें कि वे स्वयं किस शुभकामना के अधिकारी हैं।
भाजपा का मत प्रतिशत इकत्तीस से बढ़कर अड़तीस हो गया है। बंगाल में प्रदर्शन आशातीत रहा है। सपा-बसपा गठबंधन की सारी धूमधाम खोखली साबित हुई है। भोपाल जैसी सीट पर आतंकवादी गतिविधियों के आरोपी गोडसे की प्रशंसिका महोदया को टिकट दिए जाने पर वितृष्णा तो दूर की बात, आइएएस, आइपीएस अधिकारियों के इलाकों के मतदान केंद्रों तक पर उन्हें जबर्दस्त समर्थन हासिल हुआ है। शेक्सपियर के नाटक, हेमलेट की पंक्ति याद आती है, “देयर इज समथिंग रॉटेन इन दि स्टेट ऑफ डेनमार्क” (कुछ सड़ांध है यहां।)
इस सड़ांध की जड़ में बरसों से चलाया जा रहा वह अभियान है जो गांधी और नेहरू को राष्ट्रीय खलनायकों के तौर पर पेश करता रहा है; आरएसएस और हिंदुत्ववादी विचारकों की दशकों की वह कोशिश है जो जनता की सहज देशभक्ति को संकीर्ण राष्ट्रवाद की ओर ले जाती रही है। हिंदू चित्त का “सैनिकीकरण” बड़ी हद तक हो चुका है, लोगों के राजनैतिक चुनावों, राजनीतिक प्रक्रिया का “हिंदूकरण” भी अब सच्चाई है। यह लोगों के धर्म परायण हो जाने का प्रमाण नहीं है। सावरकर इस मामले में एकदम स्पष्ट थे। उन्होंने हिंदुत्व नामक पुस्तक की शुरुआत में ही साफ कह दिया था, कि ‘हिंदुत्व’ का उस, ‘अस्पष्ट, सीमित और संकीर्ण शब्द हिंदुइज्म’ से कोई लेना-देना नहीं है।
कुछ लोग राहुल गांधी की आलोचना यह कहकर करते हैं कि भाजपा के हिंदुत्व का मुकाबला करने के लिए वे ‘सॉफ्ट’ या नरम हिंदुत्व की शरण में जा रहे हैं। सबूत हैं, राहुल गांधी की विभिन्न मंदिरों, कैलाश मानसरोवर की यात्राएं, उनका स्वयं को शिवभक्त कहना। इन सब बातों को सॉफ्ट हिंदुत्व कहना बिलकुल व्यर्थ है। राजनीति में धार्मिकता कितनी होनी चाहिए, कितनी नहीं, यह अलग बहस का विषय है, लेकिन धार्मिकता को ही सॉफ्ट हिंदुत्व कहना शुद्ध मूर्खता है। हिंदुत्व हिंदू पहचान की राजनीति है। सामाजिक अस्मिता की राजनीति का एक रूप है। धार्मिकता यह मांग नहीं करती कि मुसलमान या कोई अन्य अपनी देशभक्ति आरएसएस द्वारा निर्धारित पैमानों पर सिद्ध करे, यह मांग हिंदुत्व करता है। धार्मिकता धर्म और समाज के सैनिकीकरण की मांग नहीं करती, हिंदुत्व बल्कि सांप्रदायिक राजनीति का हर संस्करण करता है। हिंदुत्व धार्मिक नहीं, राजनैतिक अवधारणा है। सॉफ्ट हिंदुत्व शब्दावली का उपयोग धार्मिक भावना और रीति-रिवाज से लगाव को ही अनिवार्यत: हिंदुत्व की राजनीति का प्रमाण बना देता है, जो कैलाश मानसरोवर की यात्रा करता है, किसी मंदिर में पूजा करता है, वह हिंदुत्व की राजनीति के साथ भी होगा, या उसे होना ही चाहिए। यह पारंपरिक धार्मिकता का नहीं, आरएसएस और रोचक बात कि उसके घोर विरोधी कुछ लेफ्ट-लिबरल बौद्धिकों का तर्क है।
सॉफ्ट हिंदुत्व की धारणा विकट सांस्कृतिक निरक्षरता का प्रमाण है। इस तर्क से, दशहरे के दिन, दिल्ली की रामलीला में प्रधानमंत्री का जाना भी सॉफ्ट हिंदुत्व ही कहलाएगा, और दरगाहों पर चादर भेजना सॉफ्ट जिहादित्व। हिंदू धार्मिकता से जुड़ने को हिंदुत्व से जोड़ने वाले लोगों को सॉफ्ट हिंदुत्व की तलवार चलाने वालों को विचार करना चाहिए कि वे हिंदुत्व से संघर्ष करने के नाम पर उसकी मदद तो नहीं कर रहे। साथ ही यह सवाल भी पूछना चाहिए कि जिस राजनैतिक दल को बहुसंख्यक समुदाय का विश्वास और समर्थन हासिल नहीं होगा, वह अल्पसंख्यकों के जान-माल और अधिकारों की रक्षा किस बूते करेगा?
इस बार अपना पहला वोट देने वाले साढ़े आठ करोड़ नौजवानों के सामने भाजपा और नरेन्द्र मोदी की शक्ल में राष्ट्रवाद का एक रूप था। दुनिया के सभी समाजों में देशभक्ति की भावना सहज रूप से होती ही है, भाजपा इस भावना को अपने ढंग के राष्ट्रवाद में ढालने में कामयाब रही। इस ढलाव का आकर्षण बाकी हर चीज बेरोजगारी, भीड़ हिंसा, लोकतांत्रिक संस्थाओं के पतन, राफेल सौदे की समस्याएं, सर्जिकल स्ट्राइक के दावों की संदिग्धता पर भारी पड़ा। इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और वाट्सएप ज्ञान ने भी कोई कम भूमिका नहीं निभाई। यह खबर चुनाव के दिन तक दबी रही कि भारतीय वायुसेना ने हड़बड़ी में अपना ही हेलीकॉप्टर मार गिराया था। नरेन्द्र मोदी की असली सफलता यह है कि उन्होंने अपने व्यक्तित्व को एक आत्मविश्वासपूर्ण भारत के सपने से जोड़ दिया। इस जुड़ाव के बाद उनकी विचित्र बातें क्षम्य ही नहीं मान ली गयीं, बल्कि हर असफलता भी किसी और की जिम्मेदारी में बदल दी गयी।
कांग्रेस ने घोषणापत्र बड़ी मेहनत से जारी किया। महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए, सरकार को जायज सवालों पर घेरा, लेकिन वह इन सब बातों को एक समग्र, व्यापक राष्ट्रीय सपने के ताने-बाने में पेश करने में सफल न हो सकी। अतीत की स्मृतियां और भविष्य के सपने सभी समाजों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अकादमिक दुनिया में राष्ट्रवाद पर बहसें चाहे जितनी हो लें, राजनीति में इसकी ताकत से इनकार नहीं किया जा सकता। खासकर भारत जैसे देश में जहां राष्ट्रवाद औपनिवेशिक शासन से संघर्ष करने के क्रम में विकसित हुआ। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वह भारत कल्पना कांग्रेस के नेतृत्व में ही विकसित हुई थी, जिसके आधार पर हमारा समावेशी, लिबरल राष्ट्रवाद विकसित हुआ। कांग्रेसी नेताओं ने सहज देशभक्ति और साम्राज्य विरोध की भावनाओं को प्रगितशील, न्यायपरक राष्ट्रवादी भाव का रूप दिया। दादा धर्माधिकारी ने इस भाव को शब्द दिया था, मानवनिष्ठ भारतीयता। यह भारतीय राष्ट्रवाद किसी समुदाय या देश के विरुद्ध नहीं, भारतीय जनता की स्वाधीनता और मानवीय न्याय के पक्ष में खड़ा था। उस वक्त के कांग्रेस नेता गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाषचंद्र बोस, मौलाना आजाद सांप्रदायिक राजनीति के विरुद्ध राष्ट्रवाद की बात करते थे, सेक्युलरिज्म उनके राष्ट्रवाद में समाया हुआ था। यही कारण है कि संविधान में सेक्युलर शब्द अलग से जोड़ने की जरूरत नहीं समझी गयी थी।
विडंबना यह है कि कांग्रेस पिछले कई बरसों से इस समावेशी, प्रगतिशील राष्ट्रवाद की जमीन से फिसलती गयी है। हद यह है कि कांग्रेस के मंचों पर ही नहीं, नीति-निर्धारण केंद्रों तक में ऐसे लोग नजर आए हैं, जिन्हें भारत माता की जय का नारा तक आपत्तिजनक लगता है। देशभक्ति और राष्ट्रीयता की चर्चा तक जिन्हें नागवार गुजरती है। ऐसे लोगों की विशेषज्ञता का उपयोग पार्टी नेतृत्व करे, यह तो समझ में आता है, लेकिन ऐसे लोग नीतियों का भी निर्धारण करने लगेंगे तो वही होगा जो हुआ है। कांग्रेस के सामने इस वक्त सचमुच अस्तित्व का संकट है। इससे निपटने का एक ही रास्ता है, कांग्रेस को अपने वैचारिक आधार पर पुनर्जीवित करना। इस काम के लिए सलाह चाहे जितने विशेषज्ञों से, सोशल एक्टिविस्टों से ले ली जाए, लेकिन मूल आधार होंगे, गांधी, नेहरू और पटेल जैसे नेताओं के वाद-विवाद और संवाद।
(लेखक जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं और सार्वजनिक मुद्दों पर महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के लिए जाने जाते हैं।)