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प्रधानमंत्री की चीन यात्रा का रणनीतिक महत्‍व

किसी भी दृष्टि से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया चीन यात्रा सफल कही जाएगी। इसमें भारतीय इनफ्रॉस्टक्चर क्षेत्र में 10 अरब डॉलर के चीनी निवेश 22 अरब डॉलर के व्यापार समझौतों सहित कई समझौते किए गए।
प्रधानमंत्री की चीन यात्रा का रणनीतिक महत्‍व

लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण भारत की मूल चिंताओं के बारे में चीनी नेताओं को प्रधानमंत्री का दो टूक संदेश था। उन्होंने त्सिंगहुआ विश्वविद्यालय में अपने भाषण में जोर देकर कहा कि चीन उन कुछ मुद्दों के बारेे में अपने रवैये पर पुनर्विचार करे जो हमें अपनी साझेदारी का पूरी क्षमता से लाभ उठाने से रोकता है। उन्होंने सुझाव दिया, 'चीन हमारे संबंधों के बारे में दीर्घावधि की और सामरिक सोच रखे।’

बहरहाल, प्रधानमंत्री की साफगोई के बावजूद भारत-चीन संबंधों का भविष्य सुरक्षा संबंधों में स्थिरता और क्षेत्रीय तथा सीमा संबंधी विवाद के हल पर निर्भर करता है। वैसे सामरिक स्तर पर भारत-चीन संबंध कई वर्षों से खासे स्थिर रहे हैं। सीमा विवाद हल न होने के बावजूद दोनों पक्ष फौजी समाधान नहीं चाहते और 1967 की नाथूला झड़पों के बाद से गुस्से में कोई गोली नहीं चलाई गई है। व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में बेहद झुका हुआ है लेकिन द्विपक्षीय व्यापार 70 अरब डॉलर पार कर चुका है और जल्द ही 100 अरब डॉलर तक पहुंचने वाला है। विश्व व्यापार संगठन वार्ताओं और जलवायु परिवर्तन चर्चाओं जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दोनों देश सहयोग करते रहे हैं।

लेकिन टेक्टिकल स्तर पर चीन की राजनीतिक, कूटनीतिक और फौजी जोर अजमाईश व्यापक संबंधों पर पानी फेरती रही है। हाल के वर्षों में चीन ने भड़काऊ राजनीतिक बयानबाजी, वास्तविक नियंत्रण रेखा के बार-बार अतिक्रमण और भारतीय नेटवर्कों पर अपूर्व साइबर हमलों से माहौल गर्म किया है। दोनों देशों के बीच जारी वार्ताओं में खास प्रगति नहीं हुई है। चीन हठ के कारण जमीन और फौजी नक्‍शों पर वास्तविक नियंत्रण रेखा ठीक से चिन्हित नहीं की जा सकी है और मार्च 2015 में 18वें दौर की बातचीत भी प्रतिरोध नहीं तोड़ सकी। चीन के भारतीय आख्‍यान की जड़े संख्यागत हैं और उसकी सोच मध्य राजशाही सिंड्रोम से चालित है। एक चीनी कहावत के अनुसार, एक पहाड़ पर दो शेर नहीं रह सकते और चीन अपने को एशियाई पहाड़ पर अकेला शेर मानता है। चीन एशिया में भारत को बराबर की ताकत नहीं मान पाता। वह भारत को कनिष्ठ देश के तौर पर हिंद महासागर की लहरों में दूर रखना चाहता है। अपनी बड़ी रणनीतिक के तहत चीन ने होशियारी से भारत के सामरिक घेराव की योजना बना रखी है।

दक्षिण एशिया में अस्थिरता की एक बड़ी वजह चीन का पाकिस्तान को परमाणु क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्रों की टेक्रोलॉजी मुहैया कराना है। पाकिस्तान बिना चीन की मदद के भारत के खिलाफ अपना छद्म युद्ध नहीं लड़ सकता। इस तरह यह चीन का ही छद्म युद्ध है। इस वर्ष अप्रैल में अपनी इस्लामाबाद यात्रा के दौरान राष्ट्रपति शी जिनफिंग ने चीन के शिनजियांग से पाकिस्तान के ग्वादर तक आर्थिक गलियारे में इनफ्रॉस्टक्चर के लिए भारी निवेश की घोषणा की। इस सिल्क रोड गलियारे में लगभग 46 अरब डॉलर का निवेश चीन करेगा। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के विवादित क्षेत्र के गिलगित-बलतिस्तान में चीन के इंजीनियर और फौजी बड़ी संख्या में एक दशक से ज्यादा समय से मौजूद हैं। किस्सा कोतहा यह कि पाकिस्तान मानो चीन का 23वां प्रांत बनता जा रहा है। भारत को हिंद महासागर में घेरने की अपनी 'मोतियों की माला’ रणनीति, जिसे अब समुद्री सिल्क रूट कहा जा रहा है, चीन, म्यांमार, पाकिस्तान, कतर, श्रीलंका और पाकिस्तान के ग्वादर में बंदरगाह निर्माण कर रहा है ताकि उसकी नौसेना भारत के समुद्री पड़ोस में सुचारू आवागमन कर सके। चीन ने बांग्लादेश के चटगांव और उîारी कीनिया के लामू में भी बंदरगाहों का विकास किया है। यह बंदरगाह कालक्रम में नौसैनिक अड्डों में बदले जा सकते हैं।

एक अस्थिर पड़ोस में भारत को फंसाकर रखने की दीर्घकालीन रणनीति के तहत चीन म्यांमार में अड्डे बनाए भारत विरोधी विद्रोहियों को छिपी मदद देता रहा है, नेपाल में पैठ बढ़ाने की कोशिश करता रहा है, बंगाल की खाड़ी मं गतिविधियां बढ़ा रहा है, भूटान और बांग्लादेश में अपना प्रभाव बढ़ाने की जबरदस्त कोशिशें कर रहा है, भारत को एशियान क्षेत्रीय फोरम में अलग-थलग करने का प्रयत्न कर रहा है और शंघाई सहयोग संगठन से भारत को बाहर रखे हुए है। तिब्‍बत में भी चीन तेजी से फौजी इनफ्रॉस्टक्चर विकसित कर रहा है। इसमें सड़कें, हवाई अड्डे, मिशाइल अड्डे, संचार केंद्र और फौजी शिविर शामिल हैं। गोरमो-ल्हासा रेलवे लाइन को शिगास्ते तक बढ़ा दिया गया है। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन का अतिक्रमण, जैसे 2013 में देप्सांग और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान 2014 में चूमर और देमचोक में बढ़ता जा रहा है। भारतीय क्षेत्र पर भी चीन नए दावे बढ़ाने लगा है जैसे अरुणाचल प्रदेश की तवांग पट्टी पर। अगला बड़ा अतिक्रमण गोलीबारी के खेल में बदल सकता है यदि भारत का धीरज जवाब देने लगे या अपनी सीमा के अंदर इनफ्रॉस्टक्चर निर्माण और विकास के भारतीय प्रयासों को चीन आक्रामक रुख के तौर पर देखेे। इसलिए दो बड़े एशियाई देशों के बीच सीमित सीमा युद्ध की आशंका से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता हालांकि इसकी संभावना बेहद कम है। दरअसल, भारत को दो मोर्चों पर खतरा है, चीन और पाकिस्तान।

भारत का फौजी आधुनिकीकरण कम प्रतिरक्षा व्यय से बंधा हुआ है। जबकि चीन का रक्षा बजट एक दशक से दो अंकों में वृद्धि दर्ज करता रहा है। भारत और चीन के बीच एक संख्यात्मक फौजी दूरी है। यह गुणात्मक दूरी में भी बदल सकती है यदि भारत का फौजी आधुनिकीकरण यूं ही ठप पड़ा रहा। यदि यही हाल रहा तो सीमा विवाद के हल के मसले पर भारत के ऊपर चीन अपनी मर्जी थोप सकता है। भारत को चाहिए कि वह चीन के खिलाफ फौजी रणनीति को हतोत्साहन से ऊपर चेतावनी तक ले जाए। यह चीन की सीमा में युद्ध को ले जाने की क्षमता विकसित कर ही हासिल किया जा सकता है।

प्रधानमंत्री नरेंंद्र मोदी शी जिनफिंग के साथ अपनी वार्ता में भारत की मूलभूत चिंताएं साफ-साफ जाहिर करने के अलावा और क्या किया होगा? यह सुरक्षित अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने चीन राष्ट्रपति को शिष्टïता लेकिन दृढ़ता से कहा होगा कि वह अपनी फौज पर लगाम लगाकर वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बारंबार अतिक्रमण रोकें। मोदी ने शी जिनफिंग को यह भी जताने की कोशिश की होगी कि अतिक्रमण न्यूनतम करने के लिए जरूरी है कि दोनों देश जल्द से जल्द जमीन और फौजी नक्‍शों पर वास्तविक नियंत्रण रेखा साफ-साफ चिन्हित करें। 

सीमा पर शांति और स्थिरता अन्य क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच सहयोग और विश्वास बढ़ाने के लिए जरूरी है।

 

(लेखक सेंटर फॉर लैंड वॉर स्टडीज के पूर्व निदेशक हैं।)

 

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