नैनिताल उच्च न्यायालय ने अपने अंतरिम आदेश में एक तरह की समानांतर प्रक्रिया का रास्ता खोला है। इससे पहले इस तरह का कोई उदाहरण मुझे याद नहीं आता, जिसमें राष्ट्रपति शासन के दरम्यान बहुमत साबित करने के लिए मौजूदा सरकार को आमंत्रित किया गया हो। इस तरह से मेरी याददाश्त में ऐसा पहली बार होने जा रहा है कि राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत राज्यपाल के नेतृत्व में कोई सरकार पर बहुमत साबित करने जा रही है।
एक तरह से यह फैसला केंद्र सरकार के खिलाफ जाता है क्योंकि यह तत्कालीन मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने का वह मौका मुहैया कराता है, जो केंद्र ने राष्ट्रपति शासन लगा कर उससे छीन लिया था। साथ ही एक बात और ध्यान देने की है कि उच्च अदालत ने स्पीकर की जगह राज्यपाल को इस प्रक्रिया को चलाने का जिम्मा सौंपा है, यह भी अपने आप में अनोखी बात है। राज्यपाल पहले ही केंद्र को राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर चुके हैं। उच्च न्यायालय ने नौ बागी विधायकों को वोट देने से रोका नहीं, लेकिन उनके वोट की गिनती होने से रोक दिया है।
सवाल यह है कि अगर ऐसे में हरीश रावत की सरकार अगर बहुमत साबित कर लेती है, तो क्या होगा। क्या राष्ट्रपति शासन को खारिज किया जाएगा या फिर अदालत नौ बागी विधायकों के भविष्य के बारे में तय करेगी और मामले को आगे बढ़ाएगी। इन सारी अटकलों पर यह अंतरिम फैसला कोई विराम नहीं लगाता। जबकि सुप्रीम कोर्ट का एस.आर. बोम्मई मामले में बहुत स्पष्ट फैसला सुनाया था कि सरकार का भविष्य सदन में विश्वास मत के जरिए तय होना चाहिए, केंद्र द्वारा राष्ट्रपति शासन थोपने से नहीं। यह अदालत भी इस फैसले का हवाला दे सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। वैसे भी यह अंतरिम फैसला है, इसलिए इस पर ज्यादा कयास लगाना ठीक नहीं है। फैसले में बिना केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए राष्ट्रपति शासन पर कोई सीधी टिप्पणी किए, संकेत दे दिया गया है। इसी संकेत के तहत हरीश रावत को बहुमत साबित करने का इंतजाम किया गया है। हालांकि यह भी दिखाई देता है कि इस अंतरिम आदेश में दोनों पक्षों को खुश करने की कोशिश की गई है। बहुमत मिला को हरीश रावत का पलड़ा भारी और हरीश सरकार विफल रही तो राष्ट्रपति शासन ही चलता रहेगा।
लेखक सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश हैं
(भाषा सिंह से बातचीत पर आधारित)