14 अप्रैल को देश भर में भीमराव अंबेडकर के 125वें जन्मदिन पर अलग-अलग आयोजन हुए। राजनीतिक दलों से लेकर ठेठ अंबेडकरवादियों ने देश के संविधान निर्माता को अपने-अपने प्रस्थान बिंदुओं पर खड़े होकर याद किया। लेकिन तमाम सरकारी आयोजनों में अंबेडकर की मूल भावना का ना सिर्फ निरादर हुआ बल्कि अपमान भी। देश के गृह मंत्री ने एक दिन पहले अंबेडकर को याद करते हुए मैला ढोने वाली उन दलित महिलाओं के साथ खाना खाया, जो ये काम छोड़ चुकी है और इसे छुआछूत मिटाने की दिशा में उठाए गए कदम के तौर पर प्रचारित किया गया।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि दलितों के साथ खाने-पीने के टोकेनिज्म (दिखाए) को छूआछूत मिटाने वाला बताया जा रहा है। जबकि यह अपने आप में कितनी आपत्तिजनक बात है कि अपनी जातिगत उदारता को इसमें दिखलाया जा रहा है कि देखो हम दलितों के साथ खा रहे हैं। हरियाणा की सरोज का मानना है कि इस तरह के आयोजन दलितों को और नीचे करते हैं। ऐसा दिखाया जाता है कि वे उधारक हैं और हम पतित हैं। यह गैर-बराबरी है और छूआछूत है। इस तरह के ड्रामे से दलितों को नुकसान हो रहा है। और नहीं जाहिए। भीमराव अंबेडकर ने इन तमाम द्वद्वों को समझते हुए कहा था कि आगे का रास्ता बेहतर कठिन हैं।
ऐसा आज दिखाई भी दे रहा है। अंबेडकर ने देश को संविधान सौंपने समय कहा था, हम लोग राजनीतिक समानता के दौर में प्रवेश कर रहे हैं लेकिन आर्थिक और सामाजिक जीवन में गैर बराबरी है। हम लोग इस अंतरविरोध के साथ तक जी सकते हैं। जितनी जल्दी हो सके हमें आर्थिक और सामाजिक बराबरी हासिल करनी होगी, नहीं तो राजनीतिक आजादी का ध्वंस हो जाएगा। -
ऐसा ही दिखाई भी दे रहा है। एक तरफ घर वापसी का जोर है, तो दूसरी तरह स्कूलों में वेद पढ़ाने की बात होती है। एक तरफ भाजपा का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जातिगत उत्पीड़न को खत्म करने की बात करता है, वहीं जाति शुद्धता के नाम पर रोक-टोक लगाई जाती है। खुद अंबेडकर ने जिस जातिगत दंश के चलते हिंदू धर्म को त्याग बौद्ध धर्म को अपनाया और बाद में उनकी राह लाखों दलितों ने अपनाई, उस राह को ही गलत ठहराने के भरकर प्रयास हो रहे हैं। जाति के शास्त्र की महानता का दिन-रात अखान गाकर, समानता का ढोंग रचा जा रहा है।
इसे लेकर दलित समाज में बेचैनी को महसूस करने की जरूरत है। उनके खानपान पर रोक लग रही है। उनकी देशज संस्कृति पर हमला है। सुविधाओं में इजाफे की जगह आरक्लिषण के खिलाफ नफरत का माहौल है। दलित आर्थिक अधिकार मंच के पॉल दिवाकर का कहा है कि दलितों को बजट में उनका वाजिब हिस्सा तक नहीं मिलता। तमाम सरकारें उस पर खामोश हैं क्योंकि वे स्पेशल कंपोनेट प्लान के तहत उनके उत्थान के लिए पैसा नहीं खर्च करना चाहती। 2015 में भी मैला ढोने का कंलक जारी है। स्वच्छ भारत के लिए तो लाख करोड़ खर्च हो रहे हैं, लेकिन सीवर में जान देने वाले नागरिक के बारे में कुछ नहीं सोचा जा रहा, क्यों...क्योंकि वह दलित है। सफाई कर्मचारी आंदोलन के बेजवाड़ा विल्सन का कहना सही है कि अंबेडकर को सही मायनों में याद करने के बजाय उन्हें टोकनिज्म में तब्दील करने में सत्ता प्रतिष्ठान माहिर हैं। तभी छूआछूत का कलंक जारी है, भेदभाव जारी है...। अंबेडकर के सपनों का भारत दूर है, क्योंकि जाति, वर्ण व्यवस्था, शास्त्रों पर टिकी व्यवस्था कायम है। अंबेडकर ने अपने जीवन के अंत में जिस दुख के साथ कहा था, मैं हिंदू के रूप में मरना नहीं चाहता...। क्या विडंबना है कि हिंदू धर्म और धर्म शास्त्रों पर आधारित भेदभाव के खिलाफ कटु-तिक्त आंदोलन चलाने वाले अंबेडकर को उसी रंग में रंगा जा रहा है।