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नरम, गरम के पाटन से बचाइए पाकिस्तान नीति

पहले युद्ध और प्रेम में सबकुछ जायज ठहराया जाता था। अब आर्थिक-व्यापारिक हित शायद सबकुछ जायज कर देते हैं, यहां तक कि युद्ध और प्रेम को भी। बल्कि इनके बारे में यू-टर्न को भी। अच्छा हुआ कि अपने घरेलू जनाधारों में उबाल भरने के लिए दिखावे के जंगी स्वांग में भड़काऊ बयानबाजी के घोड़ों पर सवार भारत और पाकिस्तान की हुकूमतों ने अपनी भड़काऊ बयानबाजी के ऊंचे घोड़ों से उतरकर एक-दूसरे से पहले पेरिस में प्रधानमंत्री के स्तर पर, फिर क्रमश: बैंकॉक और इस्लामाबाद में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों और विदेशी मंत्रियों के जरिये एक-दूसरे से बातचीत शुरू करने के लिए हाथ मिलाया।
नरम, गरम के पाटन से बचाइए पाकिस्तान नीति

इस मुकाम तक पहुंचने की गोपनीय तैयारियों में भारतीय इस्पात उद्योगपति सज्जन जिंदल की महत्वपूर्ण गुपचुप भूमिका बताई जाती है। भारत-पाक की ट्रैक टू कूटनीति में अब तक पूर्व राजनयिक, कुछ राजनीतिज्ञों, कुछ पूर्व फौजियों, कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं, कुछ अकादमिक जगत के लोगों, कुछ बुद्धिजीवियों और कुछ पत्रकारों की भूमिका रही है। पहली बार इस संदर्भ में किसी उद्योगपति की अच्छी-खासी चर्चा हुई और वह भी इस अहम संदर्भ में कि उन्होंने दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों तक को पिछले वर्ष काठमांडू में दक्षेस शिखर के वक्त और इस वर्ष पेरिस में विश्व जलवायु शिखर के दौरान एक किनारे अकेले गुफ्तगू के लिए मौका मुहैया करवाया। इससे दोनों प्रतिद्वंद्वी देशों के बीच परंपरागत उग्रता, जिसे भारत के वर्तमान भाजपाई हुकूमरान अपनी घरेलू राजनीति के कारण लगातार हवा देते रहने से नहीं चूकते, की आंच के बीच हकीकत की ठंडी जमीन का एहसास कराने में आर्थिक-व्यापारिक कारकों का संकेत साफ मिलता है। यह ध्यान दिलाना अप्रासंगिक नहीं होगा कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ खुद इस्पात के बड़े कारोबारी घराने से हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तो विकास की अवधारणा ही पूंजी-निवेश और व्यापारिक कारोबार के अबाध प्रवाह पर आधारित है। लेकिन दोनों देशों के बीच रिश्ते अक्सर साझा आर्थिक हितों की आधुनिक बाध्यताओं और पूर्व-आधुनिक कबीलाई द्वेष भावना का दोहन करने वाली सियासत के बीच झूलते रहते हैं।  

भारत में 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों का झूला जरा ज्यादा ही बेकाबू होता रहा है। उसका एक छोर यदि प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में अन्य दक्षेस देशों के प्रमुखों के साथ-साथ पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को भी निमंत्रण तक जाता है तो दूसरा छोर आतंक थमने, निमंत्रण रेखा पर गोलाबारी रुकने और कश्मीरी अलगाववादी हुर्रियत से बातचीत न करने की शर्त पर ही वार्ता का भविष्य टिकाता है। दूसरी तरफ पाकिस्तान भी अपनी जमीन से भारत विरोधी आतंकवादी कार्रवाइयों का कोई जिक्र नहीं सुनना चाहता और बातचीत का पूरा भविष्य 'पहले कश्मीर, तब कुछ और’ के जुमले पर चढ़ा देता है।

मोदी सरकार भले ही पाकिस्तान के साथ समग्र वार्ता के मसले पर अपने भड़काए गए जनाधार से अपना यू-टर्न छिपाने के लिए कुछ भी सफाई दे,  मसलन, हमने समग्र वार्ता में आतंकवाद को अहमियत देने के लिए पाकिस्तान को मजबूर कर दिया है, हम खुश हैं कि भारत ने वार्ता पुन: प्रारंभ करने के लिए अपनी वे पूर्व शर्तें छोड़ दी हैं जिनका उल्लेख हमने ऊपर के एक पैरे में किया है। यदि पाकिस्तान आतंकवाद पर वार्ता के लिए राजी है तो भारत भी अपनी तरफ से बंद रखे गए जम्मू-कश्मीर और सियाचिन जैसे मसले खोलने को तैयार हो गया है। घुटे हुए राजनयिकों के अनुसार चंूकि पाकिस्तान के नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार लेफ्टिनेंट जनरल नसीर जांजुआ इस जिम्मेदारी के पहले बलूचिस्तान में बगावत से निपट रहे थे, इसलिए पाकिस्तान कि यह मंशा साफ है कि आतंकवाद पर वार्ता के दौरान भारत यदि अपने यहां पाकिस्तान स्थित लश्करे तैयबा की आतंकवादी करतूतों और कश्मीर में पाकिस्तानी सरजमीं से लड़ाकुओं की घुसपैठ कराने का मुद्दा उठाएगा तो पाकिस्तान भी बलूचिस्तान की बगावत में कथित भारतीय लिप्तता उठाए बिना नहीं मानेगा। बार-बार हुर्रियत नेताओं से पाकिस्तानी हुकूमत के नुमाइंदों की मुलाकात, चाहे वह सरताज अजीज ने, जो तब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे और अब प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के विदेश नीति सलाहकार हैं, अपनी पिछली भारत यात्रा के दौरान की चाहे उसके पहले पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने की, भारत-पाक वार्ता की पहल की बलि ले लेती थी। इस मुद्दे पर अपनी-अपनी शर्तें छोड़ने और अपने जनाधार के बीच ऐसा न करते हुए दिखने की इस बार दोनों देशों ने अद्भुत तरकीब निकाली। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने अपने पाकिस्तान समकक्ष से तीसरे देश थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में मुलाकात की। वहां हुर्रियत नामक चिड़िया का पूत भी नहीं पहुंच सकता था। और न दोनों देशों के हल्लाबोल मीडिया का परिंदा पर मार सकता था। इतनी गोपनीयता बरती गई कि भारतीय विदेश विभाग को भी नहीं पता था कि विदेश सचिव एस.जयशंकर अपनी टोक्यो यात्रा से गुपचुप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की वार्ता के बीच बैंकॉक पहुंचकर अपना भी योगदान दे डालेंगे। 

बहरहाल, जो भी हो हम खुश हैं कि इस्लामाबाद में अफगानिस्तान पर बहूद्देशीय 'हार्ट ऑफ एशिया’ सम्मेलन के हाशिए पर सुषमा-अजीज वार्ता के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में इसे भारत-पाकिस्तान के बीच समग्र द्विपक्षीय वार्ताओं की शुरुआत माना गया, जो मनमोहन सिंह और परवेज मुशर्रफ के शासन काल के दौरान संपूर्ण द्विपक्षीय वार्ता का ही दूसरा नाम ही और विस्तार है। इसमें आतंकवाद, शांति और सुरक्षा विश्वास पैदा करने वाले कदम, जम्मू-कश्मीर, सियाचिन, सीर क्रीक, वुलर बराज/ तुलबुल परियोजना, आर्थिक और व्यापारिक सहयोग, आतंकवाद-निरोध, नशीली दवा नियंत्रण, मानवीय मुद्दे, लोक आदान-प्रदान एवं धार्मिक पर्यटन शामिल हैं। हमें चिंता है तो सिर्फ यह कि दोनों देशों की घरेलू राजनीति की वजह से, 'आज नरम, कल गरम’ के कुचक्र में फंसकर कहीं यह द्विपक्षीय पहल भी पिछली कुछ अन्य पहलों की तरह दम न तोड़ दे। इसलिए भले ही कुछ चीजें प्रक्रिया पूर्ण होने तक घोषित न करने की मजबूरी हो, एक हद तक पारदर्शिता अपेक्षित है। नहीं तो जैसे पाकिस्तान में इमरान खान ने सज्जन जिंदल की भूमिका के मद्देनजर नवाज शरीफ पर आरोप लगाया है कि वह अपने औद्योगिक और व्यापारिक हितों की वजह से कहीं पाकिस्तान के हितों से समझौता तो नहीं कर रहे, वैसे ही सवाल भारत में भी उठने लग सकते हैं। मोदी सरकार को यह आगाह करना चाहेंगे कि पाकिस्तानी फौजी प्रतिष्ठान अफगानिस्तान में अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए अपनी पूर्वी सीमा पर शायद अभी नरमी बरतने को तैयार दिखे, आगे के लिए सतर्कता जरूरी है। यह अच्छा है कि पाकिस्तान के वर्तमान सुरक्षा सलाहकार रसूखदार फौजी हैं, इसलिए बातचीत की मेज पर पाकिस्तान के असली आका फौज का अहम प्रतिनिधित्व भी है।  

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