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आजादी विशेष | विचारों की स्वतंत्रता पर बंदिश की भाषा

राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक सत्ता क्रम को नियंत्रित करने वाले वर्गों, समूहों, समुदायों और संस्थाओं के इस्तेमाल की भाषा में उनके वर्चस्ववादी पूर्वग्रहों के शब्द-संकेत देखे और व्याख्यायित किए जा सकते हैं। भारत की आजादी के 68 वर्ष बीतने पर हमारे राजनीतिक और सुरक्षा प्रतिष्ठानों के चालू विमर्श में हम ऐसे दो चलताऊ जुमलों की निशानदेही करना चाहेंगे जिनके निहितार्थ हमारी स्वतंत्रता सीमित करने के संदर्भ में गंभीर हैं।
आजादी विशेष | विचारों की स्वतंत्रता पर बंदिश की भाषा

हला लफ्ज है डीएनए, सत्ता राजनीति की शब्दावली में अभी-अभी घुसा है। यह अंग्रेजी में डीऑक्सी राइबोन्यूक्लिक एसिड का संक्षिप्त रूप है जिसमें मानव जीन का कोड यानी जेनेटिक या आनुवंशिकी कोड निबद्ध होता है। यह कोड व्यक्ति की सामान्य जैविक और शारीरिक विशिष्टताएं निर्धारित करता है। मसलन, त्वचा, आंख और बालों का रंग एवं प्रकार, नाक-नक्‍श, कद-काठी आदि। जेनेटिक कोड से व्यक्ति की रोग-ग्राह्यता और रोग-प्रतिरोधकता का अनुमान भी होता है यानी यह अनुमान कि किस रोग से बचाव की उसकी क्षमता कितनी कम या ज्यादा होगी। ध्यान रहे कि जेनेटिक कोड व्यक्ति का आनुवंशिक भाग्य या नियति नहीं निर्धारित करता। यदि ऐसा होता तो हर नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक की संतान हमेशा उतनी ही बड़ी वैज्ञानिक होती और हर महाकवि की संतति वैसी ही महाकवि। व्यक्ति की बौद्धिक उपलब्धियां या शारीरिक और मानसिक मजबूती उसकी अपनी रचनाशीलता, इच्छाशक्ति और श्रम पर निर्भर करती है। वैसे आनुवंशिक अध्ययन का क्षेत्र शुरू से ही एक धुंधला प्रदेश रहा जिसमें प्रकृति बनाम संस्कृति यानी नेचर बनाम नर्चर की बहस शुरू से ही विचारधारात्मक ध्रुवीकरण का कारण बनी। यानी मनुष्य के गुण-दोष जन्मजात और वंशानुगत होते हैं या लालन-पालन के माहौल, संस्कारों ओर उसके अपने उद्यम से बनते हैं। 

 

पारंपरिक वर्चस्वशील समूह नस्लवाद, जातिवाद और भौगोलिकमूलनिवासीवाद जैसी विचारधाराओं के आधार पर जन्मजात वंशानुगत श्रेष्ठता का दावा करते हैं और संस्कृति को भी वंशवाद आधारित ही मानते हैं। अपनी को श्रेष्ठ और दूसरे की कमतर बताते हैं। जैसा हमने ऊपर देखा, यह आनुवंशिक विज्ञान की गलत समझ पर आधारित होगा यदि हम डीएनए और जेनेटिक कोड को रूढ मानकर उसका चलताऊ इस्तेमाल अपरिवर्तनीय स्वभावगत अर्थों में करें। यह समुदायों और व्यक्तियों के प्रति रूढ़ एवं जड़ नजरिये का परिचायक है। इसलिए राजनीति में डीएनए शब्द का प्रयोग अनजाने में ही हो लेकिन जन्मजात श्रेष्ठता पर आधारित एक खतरनाक प्रभुतावादी मानसिकता दर्शाता है। वह मनुष्य की रचनाशीलता, इच्छाशक्ति और उद्यम में अविश्वास का परिचायक है इसलिए उसकी स्वतंत्रता को सीमित करने वाली मानसिकता है और एक मानव समूह को दूसरों पर वर्चस्व के लिए उकसाने वाली है। 

 

दूसरा चलताऊ जुमला निकला है राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में। इसके जरिये प्रतिपादित किया जा रहा है कि यदि जनता की सुरक्षा के लिए राज्य जरूरी है तो राज्य की सुरक्षा भी जरूरी है, जिसमें राष्ट्र-राज्य की आर्थिक सुरक्षा शामिल है। जो नागरिक या नागरिक समूह इसे बाधित करने वाले माने जाएंगे, राष्ट्र-राज्य को उनकी आजादी छीन लेने का अधिकार उचित बताया जा रहा है। इस तरह नागरिकों की आर्थिक सुरक्षा से राष्ट्र-राज्य की सुरक्षा को अलग कर उसे नागरिकों की सुरक्षा के ऊपर बताया जा रहा है। यह सुरक्षा सिद्धांत संप्रभुता राज्य की मानता है, न कि उसकी भौगोलिक सीमा में रहने वाली जनता की जो अपने हितों और सुरक्षा के लिए, जिसमें आर्थिक हित और सुरक्षा शामिल हैं, एक लोकतांत्रिक राज्य अपनी स्वेच्छा से गठित करती है और उसे चलाने के लिए एक संविधान निर्मित करती है। एक व्यक्ति या एक वंश द्वारा बलपूर्वक स्थापित राज्य में तो संप्रभुता राज्य की होती है लेकिन जनतांत्रिक गणराज्य में नहीं- वहां संप्रभुता जनता की होती है। 

 

भारत की जनता ने अंग्रेजों से राष्ट्रीय आंदोलन के बल पर यह आज का लोकतांत्रिक देश हासिल किया है। सन 1950 में जनता ने भारत को गणराज्य बनाया और खुद को उसका संविधान सौंपा। यह इस देश की जनता ने अपने संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट भी किया। संविधान की प्रस्तावना के जरिये हमने सर्वजन के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का संकल्प लिया और नीति निर्देशक सिद्धांतों के जरिये सर्वजन की आजीविका और आर्थिक सुरक्षा के लक्ष्य निर्धारित किए। इसलिए यदि देश की किसी वक्ती सरकार या हुक्मरान की किसी आर्थिक नीति या परियोजना को जनता या कोई जनसमूह या नागरिक या नागरिक समुदाय अपनी आर्थिक या आजीविका सुरक्षा के लिए खतरा माने तो उसे विरोध का अधिकार है जो राज्य की आर्थिक सुरक्षा के नाम पर छीना नहीं जा सकता है। 

 

नागरिकों की आर्थिक सुरक्षा से ही किसी लोकतांत्रिक राज्य की आर्थिक सुरक्षा बनती है। वह अलग से कोई स्वायत्त चीज नहीं है। यदि राष्ट्रीय सुरक्षा के दायरे में आर्थिक सुरक्षा का छद्म सिद्धांत मान लिया जाए तो उसका कहीं अंत नहीं है। कम और शोषणपरक मजदूरी एवं कामकाज के हालात के खिलाफ किसी आंदोलन या हड़ताल के अधिकार को, जो लोगों का मानव अधिकार है, राजद्रोह करार देकर छीन लिया जाए। विस्थापित अपना पुनर्वास मांगें तो देशद्रोही कहलाएं और गरीबों की मदद से राज्य पल्ला झाड़े तो अपनी सुरक्षा का हवाला देकर गरीबों को दुश्मन करार दे। यहां तक कि कोई कारोबारी भी सत्ता संरक्षित व्यापारी से प्रतियोगिता करे तो सत्ता उसे भी राष्ट्रद्रोही कहकर उसका कारोबार का अधिकार कानूनन छीन ले। सत्ता संरक्षित पूंजी तमाम प्राकृतिक संसाधन और पर्यावरण अपने अबाध मुनाफे के लिए नष्ट करे तो राष्ट्रहित और जान गंवा स्थानीय निवासी विरोध करें तो राष्ट्रद्रोह। यह सिद्धांत पिछली सरकार ने कुडनकुलम परियोजना का विरोध कर रहे हजारों लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर प्रतिपादित किया तो इस सरकार ने महान कोयला एवं अन्य परियोजनाओं के विरोध के आंदोलनों का समर्थन करने वाले गैर सरकारी संगठनों के पीछे पड़कर आगे बढ़ाया। और तो और, गुजरात के दंगा पीड़ितों के मुकदमे लड़ने वाली तीस्ता सीतलवाड में भी इस सरकार ने देश की आर्थिक सुरक्षा को खतरा देख लिया जिसे हाईकोर्ट ने सही ही आड़े हाथों लिया।  

 

 

 

 

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