किसी ने नहीं सोचा था कि पिछले 50 वर्षों में न जाने कितनी बार केंद्र और राज्य सरकारों से पारदर्शिता तामील कराने वाली न्यायपालिका अपनी पारदर्शिता के मामले में उलटा तन जाएगी। कुछ साल पहले भारते तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ने व्यवस्था दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय के सभी जज स्वेच्छा से उनके पास अपनी संपत्ति का ब्योरा जमा कराएं। पिछले कई वर्षों में विभिन्न अदालतों के कई न्यायाधीश कदाचार के आरोपों के घेरे में आए और कईयों के खिलाफ स्वयं प्रधान न्यायाधीशों ने ही कदम उठाए। इन घटनाओं के पहले तक भारतीय लोकतंत्र की स्वाधीन और सर्वाधिक जिम्मेदार माने जाने वाली यह संस्था कभी आम नागरिक की दुश्चिंताओं का शिकार नहीं हुई थी। लेकिन हाल के अनुभवों के आलोक में और सूचना का अधिकार कानून बनने के बाद पारदर्शिता की बढ़ी नागरिक अपेक्षाओं को देखते हुए लाजिमी था कि न्यायपालिका भी सार्वजनिक निगरानी की जद में आए। लेकिन अपील याचिका के जवाब में केंद्रीय सूचना आयोग ने यह व्यवस्था क्या दी कि माननीय न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश के पास अपनी संपत्ति के जो ब्यौरे जमा कराये हैं उनकी प्रति सूचना के अधिकार कानून के तहत याचिकाकर्ता को मुहैया कराई जाए कि सुप्रीम कोर्ट तन गया। चंूकि सूचना के अधिकार कानून के तहत सूचना आयोग के फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में ही अपील हो सकती है इसलिए यह अजीबोगरीब स्थिति पैदा हुई कि देश की सबसे बड़ी अदालत को अपने से निचले उच्च न्यायालय में याचक बनकर जाना पड़ा। प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय के मुताबिक चूंकि सुप्रीम कोर्ट के जज किसी कानून या नियम के तहत नहीं बल्कि स्वेच्छा से अपनी संपत्ति का ब्योरा प्रधान न्यायाधीश के पास जमा कराते हैं इसलिए वह सार्वजनिक दस्तावेज नहीं माना जा सकता है। और जो सार्वजनिक दस्तावेज नहीं है वह सूचना के अधिकार कानून की जद में नहीं आता।
इस तकनीकी कानूनी दलील का न्यायिक समाधान जो हो, दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा इस मामले में न्यायमित्र बनकर अदालत की मदद करने की पेशकश इनकार करते हुए जाने माने न्यायविद फाली एस नरीमन ने जो दृढ़ नैतिक और सिद्धांतवादी मिसाल पेश की उस पर गौर करें। उन्होंने अदालत को लिखा, 'नागरिकों के ऊपर जिंदगी और मौत का अख्तियार रखने वाले और अपने आदेश की अवमानना के लिए लोगों को जेल तक भेज सकने वाले उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को अवश्य दर्शाना चाहिए कि उन्हें भी सदव्यवहार मान्य है। इसी तरह वे हम आमजनों की श्रद्धा अर्जित करते हैं। भारत में हम लोग उदाहरण से सीखते हैं, उपदेश से नहीं। अगर उच्चतम न्यायालय के जज यह मुकदमे बाजी करें कि उन्हें अपनी संपत्ति का ब्योरा देना चाहिए या नहीं तो ये उतना ही बुरा है जितना उनका यह मुकदमा लडऩा कि उनके वेतन से इनकम टैक्स काटना कानूनी है या नहीं। हमारे न्यायाधीश अच्छे हैं लेकिन हमें और न्यायिक समझदारी की जरूरत है।‘
जब आम नागरिक और लोकतंत्र की संस्थाएं पारदर्शिता और निगरानी ढीली करते हैं तो सत्यम और डीडीए जैसे महाघोटाले होते हैं। करोड़ों, अरबों रुपये के इन घोटालों की दुनिया गरीबों के सपनों की हद से भी बहुत दूर होती है इसलिए वे उनके बारे मे समझदारी से प्रतिक्रिया न कर पाएं तो आश्चर्य नहीं, हालांकि काली अर्थव्यवस्था की कीमत वे अप्रत्यक्ष ढंग से कहीं अधिक चुकाते हैं क्योंकि भ्रष्टाचार का अधिभार उन्हीं के श्रम के शोषण से लूटा जाता है। लेकिन शिक्षित मध्यवर्ग को क्या कहिएगा जो सबकुछ समझते हुए भी चुपचाप बैठा रहता है। क्या सत्यम और डीडीए जैसे घोटालों के बाद आपको खाते-पीते शहरी मध्यमवर्ग की वैसी छाती कुटाई दिखाई पड़ती है जैसी 26 नवंबर के आतंकवादी हमले के बाद आतंकवाद के प्रति शून्य सहिष्णुता की मांग करती दिखाई पड़ी थी? यदि मुंबई हमले ने भारतवासियों की शारीरिक सुरक्षा का खतरा रेखांकित किया जिसने उनकी आर्थिक गतिविधियां भी ठप्प कीं तो सत्यम घोटाले के कारण जिस कंपनी का भट्टा बैठता है तो अंतत: छंटनी की मार से नौकरियां गंवाने वाले उसके कर्मचारियों और दिवालिया होने वाले उसके छोटे निवेशकों की शारीरिक सेहत भी पीडि़त होती है। कई बार उनका कष्ट धीरे-धीरे प्राणांतक भी बन सकता है।
बिना भारतीय व्यवस्था में भ्रष्टाचार के क्या पाकिस्तानी आतंकवादी भी मुंबई में संहार कर सकते थे? उनके पास चार-चार सौ डॉलर के नोट मिले। कुछ रिपोर्टों के अनुसार समुद्र मार्ग से अवैध घुसपैठ कराने के लिए तटरक्षकों की रिश्वत दर 400 डॉलर है। अन्य रिपोर्टों के अनुसार कथित कठोर प्रशासन वाले गुजरात की कई मछुआरी नौकाएं विदेशी तस्करों के साथ संलिप्त हैं और शायद इसीलिए आतंकवादी ऐसी एक नौका को इतनी सरलता से गिरफ्त में लेकर मुंबई आ सके। लेकिन आतंकवादी विरोधी कठोर कानून, पाकिस्तान को कठोर कार्रवाई की धमकी और कुछ नेताओं का इस्तीफा मांगने वाले कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ इतनी सक्रियता क्यों नहीं दिखाते? लोकपाल विधेयक पहली बार 1968 में लोकसभा में पेश हुआ और उस सदन के अवसान के साथ ही मर गया। हर पार्टी की सरकार में उसका वही हश्र हुआ - वह फिर 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 में पेश होकर काल कवलित हुआ। इस संबंध में वर्तमान सरकार का वादा भी पूरा होता नहीं दिखता। पिछली सरकार के समय विधि आयोग और वर्तमान शासन में प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा अनुशंसित भ्रष्ट जनसेवकों की संपत्ति जब्ती का विधेयक के भी पारित होने की संभावना नहीं दिखती। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार पैमाने पर भारत 85वां है यानी 84 देश हमसे ज्यादा ईमानदार है और हम भ्रष्टतम देशों में हैं। फिर भी भारत ने संयुक्त राष्ट्र के भ्रष्टाचार विरोधी कन्वेंशन की पुष्टि नहीं की है यानी हमारे भ्रष्ट प्रशासनिक और सैनिक अधिकारी, उद्योगपति और नेता जो पैसा विदेशी बैंकों में छिपाते हैं उसे हम रोकना और वापस पाना नहीं चाहते। भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे शिक्षित मध्यवर्ग का खून कभी नहीं खौलता और हमारी संस्थाएं पारदर्शिता का प्रतिरोध करती हैं, क्या यह किसी संलिप्तता का सूचक नहीं। सत्येंद्र दूबे और मंजुनाथ जैसे एकाध अलार्म बजाने वालों की शहादत की क्या कीमत?