किसी सच्चाई का तार-तार उधेड़कर ही उन उधड़े हुए धागों से किसी मजबूत और सफल पटकथा का ताना-बाना बुना जाता है। लेकिन पटकथा की बुनावट पलटकर उससे सच्चाई अपने पूरे खौफ के साथ कूद पड़े तो क्या हो? जैसे जंतर-मंतर पर 23 अप्रैल को किसानों के मसले पर आम आदमी पार्टी की रैली की पटकथा पलट गई जब पेड़ पर से राजस्थान के दौसा के किसान गजेंद्र सिंह की लाश के रूप में देश के लाखों किसानों की खुदकुशी की खौफनाक सच्चाई उसके इर्द-गिर्द बुनी गई तमाम राजनीतिक और मीडियाई विमर्श की पटकथा से निकल राजधानी में सत्ता की चौखट पर धड़ाम से आ गिरी। सच्चाई किसी नाटक को चीर कर रख दे - ऐसी घटना मानो तुर्की उपन्यासकार ओरहान पामुक या रघुवीर सहाय के सर्रियल साहित्य से निकल साक्षात दिल्ली की सड़कों पर घटित हो गई।
पामुक के उपन्यास स्नो के एक अध्याय में फौजी तख्ता पलट और जनता के दमन का एक नाटक खेला जा रहा है। अचानक मंच से सचमुच की गोलियां दर्शकों को भूनने लग जाती हैं और इसकी परिणति वास्तविक तख्ता पलट तथा दमन में होती है। रघुवीर सहाय की कविता आत्महत्या के विरुद्ध में संसद की दर्शक दीर्घा से कूदने की सर्रियल कल्पना है।
जंतर-मंतर संसद की दर्शक दीर्घा तो नहीं, न उसकी वास्तविक चौखट है जिस पर पिछले वर्ष मत्था टेकने का प्रतीकात्मक नाट्य देश की सर्वोच्च सत्ता ने खेला था। पर संसद से जो सड़क निकलती है वह जंतर-मंतर होकर, दिनकर के जोशीले पद्य के शब्दों में कहें तो, 'देश के अगणित हाहाकारों तक जाती है। लेकिन ये अगणित हाहाकार देश की संसद तक नहीं जा सकते। उन्हें जंतर-मंतर से जुड़े संसद मार्ग के मोड़ पर पुलिस के बैरियर रोक लेंगे।
23 अप्रैल 2015 को दौसा के गजेंद्र सिंह के रूप में देश के हाहाकार ने जंतर-मंतर पर दम तोड़ दिया। उसकी चीखती खामोशी को सत्ता और मीडिया की धड़कनों में एक और हाहाकार के रूप में धड़कना चाहिए था। आत्महत्या के विरुद्ध की पंक्तिया हैं:
न टूटे, न टूटे तिलिस्म सत्ता का
मेरे अंदर एक कायर टूटेगा
टूट, मेरे मन, टूट......
गजेंद्र सिंह आत्महत्या के लिए तैयार होकर आए थे या नहीं मालूम नहीं। लेकिन उनकी मौत खुदकुशी करने को विवश लाखों भारतीय किसानों की हताशा की खौफनाक सच्चाई राजधानी की सड़कों पर जरूर पटक गई। देश में पिछले 15 सालों में लगभग साढ़े तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इस साल मौसम की मार से नष्ट हुई फसलें सिर्फ राजस्थान में 52 किसानों को आत्महत्या के लिए पहले ही विवश कर चुकी थीं। गांव मेें गजेंद्र सिंह की अंत्येष्टि के दिन ही राजस्थान में एक और किसान की आत्महत्या की खबर आई। यानी गजेंद्र सिंह की मौत के बाद से अपने प्राणों की बलि देने का फिर वही सिलसिला। लेकिन किसके मन का कायर टूटा ?
गजेंद्र सिंह की मौत के इर्द-गिर्द सत्ता की राजनीति और उससे परिचालित मीडिया ने फिर एक तिलिस्म बुनना शुरू कर दिया। सारे ऐयार सच्चाई भरमाने में जुट गए। आउटलुक के इस अंक में आने वाले पृष्ठों में हमने एक ऐसी सरकारी नीति की झलक दिखलाई है जो एक व्यापक किसान विरोधी अर्थशास्त्र के एक अंग के तौर पर खेतीहरों को खुदकुशी की कगार पर धकेलने में अपनी भूमिका भी निभाती है। लेकिन बात यहां भटकाई जा रही है कि गजेंद्र सिंह की मौत आत्महत्या थी या दुर्घटना। कटघरे में गजेंद्र सिंह भी इस तरह खड़े किए जा रहे हैं कि कहीं उनकी आत्मप्रदर्शन की पटकथा बहक तो नहीं गई, कि वह आत्महत्या के लिए तैयार होकर आए थे या नहीं, कि पुलिस को उन्हें बचाने से आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने रोका तो नहीं, कि कहीं आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें आत्महत्या के लिए जोश दिलाकर तो नहीं प्रेरित किया। इत्यादि। दूसरी तरफ से एक दूसरा तिलिस्म गजेंद्र सिंह के पेड़ पर चढ़ते ही बुना जाने लग गया था कि यह कहीं लोगों और मीडिया का ध्यान भटकाने की भाजपाई साजिश तो नहीं जिसके तहत सिंह को जानबूझकर पेड़ पर चढ़ाया गया, कि रैली के मंच से सिंह को बचाने के लिए की गई अपील केंद्र की भाजपा सरकार के अधीन आने वाली पुलिस ने जानबूझकर अनसुनी की, कि पेड़ के नीचे दिल्ली सरकार के खिलाफ नारा लगा रहे शिक्षक भाजपाई उकसावे में काम कर रहे थे इसलिए स्वाभाविक तौर पर रैली वालों और उनका नेतृत्व पेड़ पर घटित हो रही त्रासदी के प्रति देर तक बेखबर रहा।
सत्ता घबराई हुई होती है कि चली न जाए। सत्ता की ललक पाले राजनीतिज्ञ भी घबराए हुए होते हैं कि सत्ता का लक्ष्य भटक न जाए। सत्ता या उसकी राजनीति से पालित मीडिया भी घबराया हुआ होता है कि प्रश्रयदाता, राजनीति हो या उसकी संरक्षक पूंजी दाना खींच न लें। सर्वनियंत्रक पूंजी अर्थव्यवस्था पर और उसका प्रबंधन संभाल रही राजनीति पर अपने नियंत्रण में ढिलाई नहीं चाहती। इसलिए किसान मरे तो उसके इर्द-गिर्द भरमाने वाले एक तिलिस्म बुना जाना चाहिए। इसमें शोक के मौन की कोई जगह नहीं होती। सिर्फ एक मेलोड्रामाई पटकथा का शोर होता है।