चतुराई हर वक्त नहीं चलती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के छवि प्रबंधकों को नेपाल में हजारों जानों की बलि लेने वाले भूकंप के प्रसंग में अब शायद यह भान हो चला हो। खासकर, वहां से भारतीय आपदा टीम की असमारोही विदाई, भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से की भूकंप कवरेज से नेपाल के जागरूक मध्यवर्ग में उपजे आक्रोश, उत्तर प्रदेश और बिहार की केंद्र से होड़ लेती राहत नीति और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को राहत सामग्री के साथ नेपाल के जनकपुर धाम जाने से रोकने के केंद्र के निर्णय से पैदा बेवजह के राजनीतिक टकराव ने भी यदि सच्चाई से रूबरू न कराया हो तो मोदी सरकार की प्रचार नीति के पासे आगे भी उल्टे पड़ने के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं।
प्रधानमंत्री के छवि प्रबंधन की कमान संभाले अमेरिकी प्रचार प्रणाली में नवदीक्षित इन नौसिखियों की नेपाल आपदा तक खूब चली। भारतीय प्रधानमंत्री की हर विदेश नीति पहल अनोखी बतलाई जाती। टेलीविजन के लिए विदेश नीति मसले अपनी जटिलताओं और लंबी अवधि के प्रसंगों से रहित कर त्वरित गतिशील रूपकों में प्रस्तुत किए जाते। कैमरे क्षणिक और अप्रासंगिक जगमग बिंब प्रक्षेपित करते और बहसें भी इन्हीं के इर्द-गिर्द घुमाई जातीं। भारतीय प्रधानमंत्री की हर विदेश यात्रा पर प्रवासी भारतीय भक्तों की मोदी-मोदी का शोर मचाती भीड़ कैमरों के सामने पेश की जाती। सेल्फी की आत्मरति के जमाने में कौन युवा प्रवासी नहीं चाहता कि उसकी हाथ हिलाती जोशीली तस्वीर वतन में उसके रिश्तेदार देखें, वह भी प्लाज्मा टीवी के बड़े रंगीन स्क्रीन पर? इसका फायदा उठाने वाले प्रचार प्रबंधक इस तरह देश के नए नेतृत्व की छवि वापस स्वदेश में यूं चमका कर पेश करते कि भारतीय दर्शक चमत्कृत रह जाते। नए अनुभव को समझने और विश्लेषित करने में थोड़ा समय लगता ही है। इसलिए इस बीच इन छवि प्रबंधकों की चतुराई खूब चली।
लेकिन कष्ट में पड़े लोग सरल हृदय करुणा के स्पर्श की सांत्वना के भूखे होते हैं। आत्मरत चतुराई उनके जले पर नमक छिडक़ती है। यह बात मोदी सरकार के चालाक मीडिया प्रबंधक नहीं समझ पाए। वे यह भी भूल गए कि भारतीय टेलीविजन, खासकर हिंदी टेलीविजन, नेपाल के लोग भी देखते और समझते हैं। मोदी जिंदाबाद, नेपाल सरकार मुर्दाबाद - प्रवासी भारतीयों को ये नारे लगाते देखने और वियतनाम की पुरानी तस्वीर के नेपाल की आपदा के प्रसंग में फर्जी इस्तेमाल की प्रचार-चतुरता नेपालियों के राष्ट्रीय स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंचाती तो क्या करती। भारतीय राहत और बचाव कुमुक ने जो अच्छे काम भी किए होंगे उन्हें इस तरह की प्रचार चतुराई ने धो-पोंछ कर बराबर कर दिया। अभी भारत सरकार भले ही यह स्पिन दे कि भारतीय राहत और बचाव दल ही नहीं, अन्य सभी देशों की टीमें भी नेपाल से विदा की जा रही हैं, लेकिन छोटे देश की मजबूरी समझिए कि वह खुले आम बड़े पड़ोसी को आंखें नहीं दिखा सकता, विशेषत: जिस पर वह इतना निर्भर हो। वह अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान की अभिव्यक्ति के लिए कोमल कूटनीति का ही सहारा लेगा।
केंद्र के पीआर ने अखिलेश, नीतीश को उकसाया
साथ ही उत्तर प्रदेश और बिहार से नेपाल के करीबी रिश्तों को देखे हुए केंद्र सरकार को इन दोनों राज्यों की सरकारों और मुख्यमंत्रियों से सहयोग लेना चाहिए था। इसलिए भी कि नेपाल तक व्यापक राहत और मदद पहुंचाने का सुगम रास्ता भी इन्हीं दोनों राज्यों से होकर जाता है। राहत सामग्री भी सबसे ज्यादा इन्हीं राज्यों से जुटाई जा सकती है और नेपाल के सीमावर्ती हिस्सों से यहां के लोगों का भाषाई-सांस्कृतिक भावनात्मक जुड़ाव है। इन सबकी उपेक्षा मोदी सरकार के आत्मकेंद्रित प्रचार रणनीतिकारों ने क्या की, एक राजनीतिक चुनौती मोल ली। कहते हैं केंद्र और भारतीय फौज की मदद तो काठमांडू और आसपास ही ज्यादा दिखी दक्षिण नेपाल के मुफस्सिल में तो उत्तर प्रदेश और बिहार की राहत कुमुक ही दिखाई दी। रही-सही कसर, नीतीश कुमार को चुनावी वर्ष में कोई श्रेय न लेने देने की केंद्र की रणनीति के तहत जनकपुर जाने से रोक कर पूरी कर दी गई। जनकपुर सीता और उनके पिता जनक का स्थान माना जाता है और मिथिला बल्कि पूरे उत्तर बिहार की श्रद्धालु जनता की भावनाओं में उसका अहम महत्व है। नीतीश कुमार को वहां जाने से रोककर भाजपा की हिंदुत्वादी राजनीति ने मानो कुल्हाड़ी पर पैर रख दिया, यह आगामी बिहार चुनाव में पता चल सकता है।