वास्तव में यह निर्णय इसीलिए स्वागतयोग्य है कि अध्यादेश में मात्र इसी वर्ष हेतु छूट दी गई है और वह भी राज्य सरकारों को, व्यक्तिगत निजी संस्थानों को नहीं।
कुछ एन.जी.ओ. जो अध्यादेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कर रहे हैं, वे सत्य और वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ हैं। नीट के इस वर्ष से लागू किए जाने पर ग्रामीण क्षेत्र और पिछड़े इलाके से आने वाले छात्रों के साथ अन्याय हो जाता क्योंकि उनको समान अवसर नहीं मिल पाता। इसके कई कारण हैं।
कुछ राज्य ऐसे हैं जो अपने स्वयं के माध्यम से पारदर्शी प्रक्रिया अपना कर मेरिट के आधार पर प्रवेश देते हैं। उसमें सम्मिलित होने वाले अभ्यर्थी राज्य में चल रही शैक्षणिक प्रणाली के हिसाब से तैयारी करते हैं। पूरे वर्ष या इससे अधिक समय अपने राज्य के पाठ्यक्रम के अनुरूप राज्य प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर छात्र प्रवेश परीक्षा में जाते हैं। यकाएक उन्हें नीट की मेरिट में आकर ही प्रवेश के लिए मजबूर किया जाना उनके साथ अन्याय हो जाता क्योंकि जो अभ्यर्थी नीट के हिसाब से तैयारी कर रहे थे वो उनसे निश्चित रूप से आगे रहते। इसी तरह अधिकांश सीटों पर बड़े-बड़े शहर और महानगर के क्षेत्र या पब्लिक स्कूल से आने वाले छात्र पहले से ही इस प्रवेश परीक्षा में अधिक सुविधाजनक स्थिति में होते। ऐसे अभ्यर्थी बेहतर अंग्रेजी और प्रवेश परीक्षा की नीट के अनुसार तैयारी में भी बेहतर स्थिति में होते।
नीट का तुरंत लागू किया जाना स्वयं ही 'प्राकृतिक न्याय के नियमों’ के अनुरूप न होता जिसकी स्वयं सुप्रीम कोर्ट बराबर वकालत कर रहा है। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि कुछ राज्य बारहवीं कक्षा की मेरिट के आधार पर मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश देते हैं जिसके लिए उन्हें अधिकार प्राप्त है। ऐसे में मेडिकल में प्रवेश पाने वाला इच्छुक छात्र 12वीं कक्षा की परीक्षा की तैयारी रात-दिन एक करके करता है और हो सकता है कि जो छात्र अपने प्रदेश में टॉप करता है और निश्चय ही मेडिकल में प्रवेश का अधिकारी है, वह नीट की प्रवेश प्रक्रिया द्वारा प्रवेश पाने से वंचित हो सकता है क्योंकि नीट की परीक्षा में पूछे गए प्रश्न पाठ्यक्रम सिलेबस इंटरमीडिएट की परीक्षा से भिन्न हैं और कहीं भी मेल नहीं खाते। तमिलनाडु में यह प्रवेश प्रणाली लागू है। इस तरह तमिलनाडु के सैकड़ों मेधावी छात्र जो डॉक्टर बनने की मेरिट रखते हैं, नीट लागू करने पर प्रवेश पाने से रह जाते। उनको मिलने वाली सीटें दूसरे राज्य के छात्रों को मिल जातीं।
नीट लागू करने में सरकार ने पूरी रुचि दिखाई है और पुन: सुप्रीम कोर्ट से जो अपील की थी वह मात्र एक वर्ष की छूट छात्रों के व्यापक हित को देखते हुए की थी जिसे कोर्ट ने ठुकरा दिया। कोर्ट इस गहराई को समझने में असमर्थ रहा और इसलिए सरकार को अध्यादेश का सहारा लेना पड़ा। नीट का इस वर्ष से लागू किया जाना स्वयं सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित नियमों के प्रतिकूल दिखाई दे रहा था इसलिए सरकार ने अध्यादेश की हिम्मत जुटाई जिसमें अधिकांश राज्य सरकारें और विरोधी राजनीतिक दलों ने भी हामी भरी। देखने योग्य है कि अध्यादेश पर राष्ट्रपति ने तुरंत हस्ताक्षर नहीं किए। वैसे भी वर्तमान राष्ट्रपति आंखें खोलकर सोच-समझकर ही निर्णय लेने के लिए जाने जाते हैं। उनकी गिनती शुरू से ही प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों में होती है। पूरी रिपोर्ट मंगा कर उन्होंने राज्यों की समस्या, ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्र से आने वाले छात्रों की परेशानी और भाषा की मजबूरी समझ कर ही हस्ताक्षर किए हैं।
एक वर्ष और वह प्रणाली जो वर्षों से चली आ रही है, चल जाती तो क्या आसमान टूटने वाला था जबकि निजी कॉलेजों और प्रबंधन की सीटों का आवंटन नीट द्वारा ही रखा गया था। इस वर्ष राज्यों को अपनी प्रवेश परीक्षा करने देना मात्र अपने-अपने प्रदेश के छात्रों को समान अवसर मुहैया कराना भर ही था। और यदि राज्य सरकारों पर इतना भी भरोसा नहीं किया जा सकता है तो उनके समस्त विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं को बंद कर देना चाहिए। शायद राज्य सरकारों को भंग ही कर देना चाहिए।
डॉ. देवी सेठी का यह कथन कि जो छात्र डॉक्टर बनना चाहते हैं, CET या NEET की तैयारी जैसी ही तैयारी करते हैं, असत्य है क्योंकि जिन्हें मालूम है कि उन्हें अपने ही प्रदेश में परीक्षा से प्रवेश मिल सकता है, वे उसी हिसाब से तैयारी करते हैं या जिस प्रदेश में इंटरमीडिएट की मेरिट से प्रवेश मिलता है वे इंटरमीडिएट की परीक्षा में ही जान लगा देते हैं। मेडिकल के लिए अंग्रेजी का ज्ञान बहुत आवश्यक है, भी गलत है। मैं स्वयं हिंदी माध्यम से पढ़ा छात्र हूं और मेरे जैसे लाखों डॉक्टर हैं जो इंटरमीडिएट तक मुश्किल से थोड़ी बहुत कामचलाऊ अंग्रेजी ही जानते थे पर आज देश के ही नहीं, विश्व के महान डॉक्टरों में उनकी गिनती होती है। इस तरह तो ग्रामीण टैलेंट गांव में ही दम तोड़ कर रह जाएगा।
अब यदि हम सर्वोच्च न्यायालय की बात करें तो अगस्त 2002 में उच्च शिक्षा हेतु मापदंड और शिक्षा प्रणाली प्रवेश प्रक्रिया आदि हेतु 11 न्यायाधीशों की बेंच ने पूरे अध्ययन और सुनवाई के बाद फैसला लिखा था, एक-एक पहलू पर विस्तार सहित चर्चा हुई थी। वो निर्णय उच्च शिक्षा में न्याय के इतिहास में सदा एक 'बाइबिल’ का काम करेगा। इसकी पुन: समीक्षा हेतु कुछ बिंदुओं को न्यायाधीश की बेंच ने अक्टूबर 2005 में ईनामदार एवं अन्य के केस में निर्णायक फैसला लिखा जिसे T.M.A. Pai एवं अन्य के केस में 2002 के निर्णय को उचित ठहराया था।
ग्यारह न्यायाधीश की बेंच ने महाविद्यालयों को जिन्हें सरकार से सहायता प्राप्त नहीं होती है, पूर्ण रूप से प्रबंधन आदि में स्वतंत्र रखा था।
निर्णय का रूप :
''गैर सहायता प्राप्त स्वयं वित्तीय एवं अल्पसंख्यक संस्थान सरकारी नियंत्रण से मुक्त रहेंगे और राज्य सरकारें उन पर आरक्षण का नियम भी लागू नहीं कर सकेंगी। प्रवेश प्रक्रिया केंद्र या राज्य स्तर पर ही हो।’’
इसी बेंच के निर्णय के प्रतिकूल भी सरकारें रोजाना नए-नए आदेश देती रहती हैं और न्यायालयों से इन्हें कोई राहत नहीं मिल पाती है। उदाहरण के तौर पर, पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुमोदित कमेटी ने बी.एड. पाठ्यक्रम दो वर्ष का किया जिसके कारण बी.एड. पाठ्यक्रम में ही लाखों सीटें रिक्त रह गईं। निजी कॉलेजों के प्रबंधन में विश्वविद्यालय के स्टाफ को रखा गया जो कि 11 जजों की बेंच के निर्णय के विपरीत था। आज हजारों बी.एड. कॉलेज बंद होने की कगार पर हैं।
कुछ एन.जी.ओ., विरोधी राजनीतिक दल और कुछ अंग्रजीदां लोग अध्यादेश का विरोध कर रहे हैं तथा पुन: न्यायालय में जाने की बात कह रहे हैं। उन्हें समझना होगा कि नीट के विरोध में न राज्य सरकारें हैं न ही केंद्र सरकार है। पर वर्तमान सत्र के प्रवेश हेतु राज्यों पर नीट को न थोपा जाए इससे छात्रों का भारी अहित होगा। महानगर और पब्लिक स्कूल के छात्रों का पलड़ा ग्रामीण और पिछड़े इलाकों के छात्रों से भारी होगा और वे बाजी मार लेंगे। कई राज्यों में स्थानीय छात्रों को प्रवेश ही नहीं मिल सकेगा। हालांकि वे प्रवेश पाने के लिए राज्य स्तर पर पूरी क्षमता रखते होंगे।
परिस्थतियों को ध्यान में रखते हुए उक्त अध्यादेश स्वागयोग्य है तथा गरीबों और ग्रामीण छात्रों के हित में है। नीट इसी वर्ष से निजी संस्थानों में और प्रबंधन कोटे पर लागू हो रहा है। अध्यादेश में उन्हें कोई भी छूट नहीं मिली है तो अध्यादेश पर हाय तौबा किसलिए? महज झूठी लोकप्रियता हेतु उसका विरोध किया जा रहा है।
(लेखक पेशे से डॉक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक पृष्ठभूमि से हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)