“बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां न सिर्फ अरबों लोगों का जीवन प्रभावित कर रही हैं, बल्कि दूसरी कंपनियों और यहां तक कि सरकारों की भी बाहें मरोड़ने से बाज नहीं आतीं, पसर रहा है नव-उपनिवेशवाद”
मार्क एंड्रीसन का 2016 का एक ट्वीट काफी विवादास्पद रहा था। उन्होंने लिखा था, “उपनिवेशवाद का विरोध दशकों से भारतीयों के लिए आर्थिक रूप से विनाशकारी रहा है। इसे अब क्यों रोकें?” एंड्रीसन फेसबुक (अब मेटा) के निदेशक मंडल के सदस्य और सिलिकॉन वैली की सबसे शक्तिशाली शख्सियतों में एक हैं। फेसबुक के ‘फ्री बेसिक्स’ प्रोजेक्ट पर भारत के प्रतिबंध लगाने के बाद उन्होंने यह ट्वीट किया था। प्रोजेक्ट को ‘गरीबों के लिए मुफ्त इंटरनेट’ की आड़ में देश के डिजिटल बाजार पर फेसबुक का नियंत्रण बढ़ाना माना गया था। भारत के फैसले को उपनिवेशवाद विरोधी बताकर एंड्रीसन ने यह तो माना कि भारतीय बाजार में फेसबुक का प्रवेश उपनिवेशवाद का एक रूप है। उनके कहने का आशय यह भी था कि जिस तरह भारतीयों ने दशकों पहले अंग्रेजों को बाहर निकाला था, उसी तरह इस प्रोजेक्ट को ठुकराकर उन्होंने अपना नुकसान किया है।
बिल गेट्स
हालांकि बाद में एंड्रीसन ने ट्वीट के लिए माफी मांगी, लेकिन ट्विटर पर विवादास्पद टिप्पणी करने वाले वे एकमात्र शख्स नहीं हैं। टेस्ला के सह-संस्थापक और सीईओ इलॉन मस्क के ट्विटर पर 8.8 करोड़ से अधिक फॉलोअर हैं। ट्वीट की वजह से वे कानूनी संकट में फंसे तो इसी प्लेटफॉर्म पर अपनी प्रेमिका कनाडाई गायिका ग्रिम्स से भी मिले। ट्विटर के साथ उनका प्यार और नफरत भरा रिश्ता इतना गहरा है कि अब 44 अरब डॉलर में इसे खरीद रहे हैं। इस तरह यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भूगर्भ से लेकर अंतरिक्ष तक बिजनेस करने वाले उस टेक्नोलॉजी साम्राज्य का हिस्सा बन गया है जिसका नेतृत्व दुनिया का सबसे अमीर शख्स कर रहा है।
मस्क शीर्ष पर अकेले नहीं, ब्लूमबर्ग बिलियनेयर्स इंडेक्स के अनुसार दुनिया के 12 सबसे अमीर व्यक्तियों में से आठ टेक उद्यमी हैं। इनमें अमेजन के संस्थापक जेफ बेजोस, गूगल के सह-संस्थापक लैरी पेज और सर्गेई ब्रिन, माइक्रोसॉफ्ट के सह-संस्थापक बिल गेट्स और पूर्व सीईओ स्टीव बामर, ओरेकल के सह-संस्थापक लैरी एलिसन और फेसबुक के सह-संस्थापक मार्क जकरबर्ग शामिल हैं।
मार्क जकरबर्क
मस्क का दावा है कि अभिव्यक्ति की आजादी को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने ट्विटर को खरीदा है। सिलिकॉन वैली के उद्यमी ऐसे शब्दजाल बुनते रहते हैं। वे खुद को उस नई व्यवस्था के अगुआ तौर पर दिखाना पसंद करते हैं जिसमें टेक्नोलॉजी ने “सभी बाधाएं तोड़ दी हैं, सबको समान अवसर दिया है और मानव समाज को खुला और स्वतंत्र बनाया है।” हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। तथाकथित बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां, जिन्हें ‘बिग टेक’ भी कहा जाता है, वास्तव में उपनिवेशवाद के नए रूप के प्रणेता हैं। हम क्या खाते हैं, कैसा सोचते और कैसा अनुभव करते हैं, हमारे जीवन के हर पहलू को इनका उपनिवेशवाद नियंत्रित कर रहा है। इस बिग टेक में गूगल, अमेजन, मेटा, एपल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियां शामिल हैं। उनका बिजनेस मॉडल एक प्लेटफॉर्म के रूप में उनके विशाल आर्थिक और राजनीतिक दबदबे के इर्द-गिर्द तैयार हुआ है। ये न सिर्फ अरबों लोगों को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि दूसरी कंपनियों और यहां तक कि सरकारों की भी बाहें मरोड़ने से बाज नहीं आते।
मस्क की ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ वाली बात के बावजूद, उनके ट्विटर को खरीदने का संभावित कारण इस प्लेटफॉर्म के दुनिया भर में 33 करोड़ सक्रिय यूजर हैं। ये प्लेटफॉर्म अब उपभोक्ताओं को उत्पाद और सेवाएं बेचने वाले बिजनेस नहीं रह गए, ये दूसरे अनेक बिजनेस को उनके खरीदारों से जोड़ते हैं। इनमें डिजिटल डिवाइस रखने वालों की तलाश करते ऐप डेवलपर, खरीदार तलाशते ऑनलाइन विक्रेता और लगभग हर उद्योग की लाखों कंपनियां शामिल हैं जो अपने प्रोडक्ट ऑनलाइन तो नहीं बेचती हैं, लेकिन ऑनलाइन रहने वालों के लिए उन्हें अपने उत्पादों और सेवाओं का विज्ञापन करने की जरूरत है।
फेसबुक के तीन अरब सक्रिय यूजर की तुलना में ट्विटर के यूजर बहुत कम हैं। अकेले भारत में फेसबुक के लगभग 24 करोड़ यूजर हैं, जो किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक है। फेसबुक की मातृ कंपनी मेटा के पास इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप जैसे प्लेटफॉर्म भी हैं।
इलॉन मस्क
ऐसा भी नहीं कि सिर्फ सोशल मीडिया ही प्लेटफॉर्म आधारित कंपनियां हैं। गूगल की मातृ कंपनी अल्फाबेट में जीमेल, यूट्यूब, क्रोम वेब ब्राउजर के अलावा एंड्रॉयड मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम और सबसे लोकप्रिय सर्च इंजन हैं। इन सबको मिलाकर अल्फाबेट के 400 करोड़ से अधिक सक्रिय यूजर हो गए हैं। इसी तरह एपल, माइक्रोसॉफ्ट और अमेजन का भी विशाल यूजर आधार है। इस कारण दूसरी कंपनियां भी इन्हें मध्यस्थ बनाने को मजबूर हैं। कोविड-19 लॉकडाउन में अधिक से अधिक लोग एक-दूसरे से जुड़ने, पढ़ाई, काम और खरीदारी के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने लगे। इससे इन कंपनियों ने अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की। टेक्नोलॉजी शेयरों में तेजी आने से एपल, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और अमेजन का बाजार पूंजीकरण एक लाख करोड़ डॉलर को पार कर गया। मस्क की अपनी नेटवर्थ जनवरी 2020 से अप्रैल 2021 के बीच पांच गुना बढ़ गई। दूसरी तरफ, दुनिया में करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई और वे कर्ज में डूब गए।
आज एपल और माइक्रोसॉफ्ट की मार्केट वैल्यू दुनिया के सात बड़े देशों को छोड़ बाकी के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से ज्यादा है। यहां तक कि कनाडा, रूस और ऑस्ट्रेलिया जैसे बड़े देशों की अर्थव्यवस्था का आकार भी इन कंपनियों की मार्केट वैल्यू से कम है।
बिग टेक वास्तव में ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर बन गया है जिस पर शेष विश्व का बिजनेस चल रहा है। इसके बदले ये अपने प्लेटफॉर्म पर आश्रित कंपनियों से बड़ी कीमत वसूलते हैं, उन देशों से भी जो जिंदा रहने के लिए इन पर निर्भर हैं। यह एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के गरीब देशों के लिए खास तौर से सच है जो प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को डिजिटाइज करने और इंटरनेट कनेक्टिविटी बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।
बैंकिंग और पैसे ट्रांसफर करने से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सेवाएं ऑनलाइन मुहैया कराने के लिए सरकारों की भी इन टेक्नोलॉजी कंपनियों पर निर्भरता बढ़ रही है। यह दबदबा इन कंपनियों को यह निर्धारित करने की ताकत देता है कि उनके प्लेटफॉर्म पर किसी थर्ड पार्टी की सेवाएं कैसे संचालित होंगी। इसी दबदबे के कारण ये देशों की आर्थिक और व्यापार नीतियों को भी प्रभावित करती हैं। और यह भी कि टेक इंडस्ट्री को कैसे रेगुलेट किया जाना चाहिए।
बिग टेक कंपनियां सिर्फ इसलिए दूसरे बिजनेस का महत्वपूर्ण माध्यम नहीं बनीं कि करोड़ों लोग उनके प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं, बल्कि इसलिए भी कि उनके पास यूजर्स का विशाला डेटा बैंक है। हर वह ऐप जिसे यूजर डाउनलोड करते हैं, हर वह लिंक जिस पर वे क्लिक करते हैं, हर वह प्रोडक्ट जिसके बारे में वे ऑनलाइन छानबीन करते हैं, प्रत्येक डेटा रिकॉर्ड किया जाता है। इससे उनका ‘साइकोमेट्रिक’ प्रोफाइल तैयार होता है। यूजर के ऑनलाइन पोस्ट का विश्लेषण और वर्गीकरण किया जाता है। इससे उनकी पसंद-नापंसद का तो पता चलता ही है, यह भी समझ में आता है कि तनाव, चिंता और खुशी जैसे मौकों पर वे अपनी भावनाओं को कैसे प्रदर्शित करते हैं।
चिकित्सा, यात्रा, शिक्षा, बीमा और क्रेडिट कार्ड रिकॉर्ड जैसे कई अन्य स्रोतों से यूजर के आंकड़ों के साथ इन आंकड़ों को जोड़ा जाता है। एक अनुमान के अनुसार फेसबुक विभिन्न ऑनलाइन और ऑफलाइन स्रोतों से प्रत्येक व्यक्ति के लगभग 52,000 तरह का डेटा एकत्र करता है।
साइकोमेट्रिक प्रोफाइल से टेक्नोलॉजी कंपनियों को व्यक्ति के विचारों, मान्यताओं, पसंद-नापसंद, इच्छाओं और आकांक्षाओं की जानकारी मिलती है। इनका उपयोग यह अनुमान लगाने में किया जाता है कि यूजर ऑनलाइन क्या करना चाहते हैं। इससे भी अहम बात यह है कि इन आंकड़ों के इस्तेमाल से व्यक्ति विशेष को लक्ष्य कर उन्हें विज्ञापन दिखाए जाते हैं। इसी माइक्रो-टार्गेटिंग का नतीजा है कि पति को ‘मुझे भूख लगी है’ मैसेज भेजने के बाद पत्नी के मोबाइल पर आस-पड़ोस के रेस्तरां का विज्ञापन दिखने लगता है।
आपके पिता ने आपको मैसेज भेजा कि उनके दांत में दर्द है, तो आपको डेंटल सर्विस के स्पैम ईमेल आने लगते हैं। यह शोषण का रूप भी ले सकता है। जैसे, आर्थिक तंगहाली में फंसे लोगों को माइक्रो-टार्गेटिंग के बाद बैंक ज्यादा ब्याज वाले कर्ज का मैसेज भेजे।
जेफ बेजोस
इस तरह व्यक्ति को लक्ष्य बनाकर सिर्फ कंपनियां विज्ञापन नहीं देतीं, हाल के वर्षों में अनेक देशों के चुनाव अभियानों में साइकोमेट्रिक प्रोफाइल का इस्तेमाल किया गया। राजनीतिक दल मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए इनका प्रयोग करते हैं। देखा जाए तो राजनीतिक विज्ञापन भी किसी की मनोवैज्ञानिक कमजोरी का दुरुपयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, कोई आप्रवासी विरोधी पार्टी उन लोगों को निशाना बना सकती है जिनकी नौकरी चली गई है। ऐसे विज्ञापन में नौकरी खोने के लिए अप्रवासियों को दोष दिया जा सकता है। एक उदाहरण कैम्ब्रिज एनालिटिका घोटाले का है। इंग्लैंड स्थित इस कंसल्टिंग फर्म ने थर्ड पार्टी से अवैध तरीके से 8.7 करोड़ फेसबुक यूजर का डेटा लिया, जिसका इस्तेमाल 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की मदद में किया गया।
डेटा उस युग में ‘नया तेल’ है जिसे अमेरिकी लेखिका और हार्वर्ड की प्रोफेसर शोशना ज़ुबॉफ़ ‘सर्विलांस कैपिटलिज्म’ कहती हैं। पारंपरिक पूंजीवाद में न केवल उपभोग करने वाले ग्राहकों बल्कि उत्पादन करने वाले मजदूरों की भी आवश्यकता होती है। लेकिन सर्विलांस कैपिटलिज्म में ऑनलाइन खरीदारी करने वाले ही ग्राहक और मजदूर दोनों होते हैं। वे ग्राहक के रूप में खरीदारी करते हैं तो मजदूर के रूप में डेटा उत्पन्न करते हैं। इसी डेटा से उत्पादों का कस्टमाइजेशन और विज्ञापन तय होता है।
जब टेक्नोलॉजी कंपनियां अपने यूजर की संख्या बढ़ाने के प्रयास करती हैं, तो वे यह भी चाहती हैं कि यूजर तमाम गतिविधियां ऑनलाइन करे। वह ज्यादा से ज्यादा लिंक पर क्लिक करे, अधिक तस्वीरें पोस्ट करे, ज्यादा ट्वीट करे। फिर इनके विश्लेषण और वर्गीकरण के बाद उनसे पैसा बनाया जाता है। अंतर यह है कि मजदूर जानता है कि उसका काम कंपनी की मार्केट वैल्यू बनाता है और इसके लिए वह मजदूरी लेता है। लेकिन ऑनलाइन यूजर को शायद ही कभी किसी प्लेटफॉर्म के लिए अपने श्रम का एहसास होता हो। वह इसी बात से खुश है कि फेसबुक और गूगल उन्हें प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल मुफ्त में करने दे रही हैं।
यूजर किसी प्लेटफॉर्म पर ज्यादा समय बिताए, इसके लिए कंपनियां उन्हें फिल्टर के बाद चुनिंदा फीड परोसती हैं। साइकोमेट्रिक प्रोफाइल के आधार पर वे अनुमान लगाती हैं कि यूजर को क्या पसंद आएगा। यह एक तरह का चक्र है। यूजर ऑनलाइन जितना अधिक समय लगाएगा, वह अपने बारे में उतना अधिक डेटा उत्पन्न करेगा, उसकी प्रोफाइल उतनी ही सटीक होगी। लेकिन अनेक लोग इसे चक्र नहीं बल्कि दुष्चक्र के रूप में देखते हैं। टेक्नोलॉजी प्लेटफॉर्म को आपकी पसंद में समानता की उम्मीद होती है। यदि आपने पहले कुछ पसंद किया है, तो वे उम्मीद करेंगे कि अगली बार भी आप उस तरह के कंटेंट को पसंद करेंगे। यदि आपने कोविड-19 टीका विरोधी किसी लेख पर क्लिक किया, तो संभव है कि आपको टीका के फायदे बताने वाले लेखों की तुलना में टीका विरोधी लेखों के लिंक ज्यादा मिलें। इस तरह ये प्लेटफॉर्म भले ही एक खुली, सीमाविहीन जगत का वादा करते हों, वास्तव में वे यूजर को अपने फिल्टर के बुलबुले में फंसाते हैं। यह दुनिया को देखने के यूजर के दृष्टिकोण को संकुचित करता है और अलग तरह के दृष्टिकोणों को समझने में बाधक बनता है। विशेष रूप से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कंटेंट फिल्टर करना हानिकारक है, क्योंकि ये खास तौर पर युवाओं के लिए खबरों और समसामयिक मामलों की जानकारी हासिल करने का प्रमुख माध्यम बन रहे हैं। फिल्टर बुलबुले में रहना लोगों को किसी चरम विचार के प्रति अधिक आकर्षित करता है और वैकल्पिक विचारों के प्रति कम सहिष्णु बनाता है।
सच तो यह है कि फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म जानबूझकर यूजर के फीड में चरम विचारों को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि इससे यूजर ज्यादा समय बिताएगा। इस फिल्टर बुलबुले के अंदर नफरती भाषा, फर्जी खबरें और षडयंत्रकारी बातों के फैलने की आशंका अधिक है। इसका परिणाम ऐसा समाज है जो दल या वैचारिक आधार पर बंटा हुआ है, जहां विभिन्न पक्ष के लोग एक-दूसरे से बात करने या सुनने तक को तैयार नहीं हैं। अमेरिका से लेकर म्यांमार तक, फेसबुक पर इसी कंटेंट फिल्टर के कारण उथल-पुथल और राजनीतिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने के आरोप लग रहे हैं। हालांकि कंपनी इससे इनकार करती है।
इन समस्याओं का एक कारण यह है कि अधिकांश देशों में कानून टेक्नोलॉजी में प्रगति की तुलना में बहुत पीछे हैं। गोपनीयता और डेटा सुरक्षा कानून इसके उदाहरण हैं। अनेक देशों में डेटा सुरक्षा की जिम्मेदारी टेक्नोलॉजी कंपनियों के बजाय नागरिकों पर डाल दी गई है। अधिकांश लोग जानते ही नहीं कि उनके व्यक्तिगत डेटा का दुरुपयोग करके कैसे उनका आर्थिक और मनोवैज्ञानिक शोषण किया जा सकता है। वे पर्सनलाइज्ड फीड और फिल्टर बुलबुले की सुविधा के बदले अपना डेटा देकर खुश हैं। दरअसल, हमारे जीवन में डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल इतना बढ़ गया है कि इनसे बचने का कोई विकल्प नहीं रह गया है, उनके लिए भी नहीं जो इसके खतरों से अवगत हैं।
भारत जैसे देशों को टेक्नोलॉजी कंपनियों का दबदबा कम करने और दुरुपयोग रोकने के लिए त्रि-आयामी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। सबसे पहले ऐसे नियम तत्काल बनें जो आम यूजर को अपने डेटा पर अधिक नियंत्रण रखने और उसका दुरुपयोग रोकने की शक्ति दें। इसका एक मॉडल यूरोप का जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (जीडीपीआर) है, जो 2018 में लागू किया गया था। इसके तहत व्यक्तिगत डेटा एकत्र करने और उसकी प्रोसेसिंग से पहले यूजर से सहमति प्राप्त करना कंपनियों की जिम्मेदारी है। सहमति लेते वक्त कंपनी यूजर को सारी बातें बताएगी। यही नहीं, यूजर जब चाहे अपनी सहमति वापस ले सकता है। जीडीपीआर उन कंपनियों पर भी लागू होता है जो भले यूरोपीय नहीं हैं, लेकिन वे यूरोपीय नागरिकों का डेटा एकत्र कर रही हैं।
हालांकि भारी दंड के प्रावधान के बावजूद नियमों पर अमल में क्षेत्राधिकार और लॉजिस्टिक्स जैसी समस्याओं के कारण जीडीपीआर का पालन संतोषजनक नहीं रहा है। फिर भी इसे अन्य देशों के लिए अपने डेटा सुरक्षा कानून अपडेट करने का सबसे अच्छा मॉडल कहा जा सकता है। हालांकि अकेले डेटा सुरक्षा पर्याप्त नहीं होगी, क्योंकि इससे टेक्नोलॉजी कंपनियों की ताकत नहीं घटेगी। इसलिए दूसरा महत्वपूर्ण कदम प्रतिस्पर्धा कानूनों में संशोधन करना है ताकि बाजार पर फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म का एकाधिकार रोका जा सके। भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीआइ) पहले ही फेसबुक द्वारा व्हाट्सऐप की खरीद और व्हाट्सऐप की डेटा साझा करने की नीति में बदलावों की तहकीकात कर रहा है। लेकिन नियमों ने आयोग के हाथ बांध रखे हैं। इसमें संशोधन की जरूरत है।
बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों में अधिकतर अमेरिकी हैं। उन्हें नियंत्रित करने के लिए इंटरनेट गवर्नेंस पर एक वैश्विक दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो बिग टेक की उपनिवेशवादी महत्वाकांक्षाओं को चुनौती दे सके। अमेरिकी सरकारें सिलिकॉन वैली की कंपनियों और उनकी एकाधिकार प्रवृत्तियों को रोकने में विफल रही हैं। इसका एक कारण यह भी है कि कंपनियां अमेरिका के भू-राजनीतिक हितों का ख्याल रखती हैं। लेकिन अगर इंटरनेट पूरी दुनिया के हित में है तो इसका गवर्नेंस भी साझा होना चाहिए। टेक्नोलॉजी कंपनियों के लिए सबसे बड़ा बाजार बन गए भारत जैसे देशों को नए प्रोटोकॉल और नई नीतियां तैयार करने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। नीति ऐसी हो जो प्लेटफॉर्म का एकाधिकार तोड़े, सार्वजनिक हित वाली कंपनियों को उभरने और सफल होने के अवसर मुहैया कराए और इंटरनेट को सबके लिए समान अवसर में तब्दील करे, जैसी इसकी वास्तविक परिकल्पना थी।
(लेखक नीदरलैंड में टिलबर्ग यूनिवर्सिटी के सांस्कृतिक अध्ययन विभाग में हैं। विचार निजी हैं)