“जरूरी तो यह है कि माफिया-नेता-अफसर गठजोड़ को ध्वस्त किया जाए”
अतीक अहमद प्रकरण सारे देश में चर्चा का विषय बन गया है। एक माफिया का मारा जाना अपने आप में कोई बड़ी घटना नहीं है, लेकिन जिन हालात में यह हुआ उससे सवाल खड़े होते हैं। इसे कुछ अनावश्यक तूल भी दिया जा रहा है। कुछ पार्टियों के नेताओं ने तो इसे ‘लोकतंत्र की हत्या’ तक करार दिया है। बेशक, उन्हें भारतीय जनता पार्टी को कठघरे में खड़ा करने का अच्छा मौका लग सकता है और यह भी कि इसका उन्हें 2024 के चुनाव में फायदा मिल सकता है।
अतीक अहमद और अशरफ जिन परिस्थितियों में मारे गए वे दुर्भाग्यपूर्ण थीं। पुलिस अभिरक्षा में हत्या होना प्रदेश पुलिस के लिए कोई गर्व का विषय नहीं है। सुरक्षा में जो पुलिसकर्मी लगे थे, उनसे कर्तव्यपालन में अवश्य लापरवाही हुई। राज्य सरकार ने पांच पुलिसकर्मियों को इस कारण निलंबित कर दिया है, मगर इस घटना से यह निष्कर्ष निकालना कि राज्य पुलिस ने अतीक की हत्या करवाई गलत भी हो सकता है। उभरते सवालों के मद्देनजर सरकार ने 24 घंटे के अंदर ही न्यायिक जांच के आदेश दे दिए। आशा है कि कालांतर में सच्चाई सामने आ जाएगी।
वास्तव में तीनों युवक जिन्होंने अतीक की हत्या की, उनकी गहन पूछताछ इस अभियोग की विवेचना में महत्वपूर्ण होगी। आखिर बांदा, हमीरपुर और कासगंज के लड़कों की टीम किसने बनाई, उन्हें क्या प्रेरणा दी, तुर्की की बनी पिस्तौल क्यों दी और उन्हें एक कुख्यात अपराधी की हत्या की योजना में क्यों शामिल किया? इसके पीछे कौन व्यक्ति या समूह था? यह भी पता लगाना जरूरी है कि इन अपराधियों ने ‘जय श्री राम’ का नारा खुद लगाया या ऐसा करने की उन्हें सलाह दी गई। इसके पीछे मकसद क्या थे?
उपरोक्त घटना से पहले 13 अप्रैल को अतीक का बेटा असद अहमद और उसका साथी गुलाम हुसैन प्रदेश पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स द्वारा झांसी जनपद में एक कथित मुठभेड़ में मारे गए थे। पुलिस के अनुसार, ये दोनों उस काफिले पर हमले की योजना बना रहे थे जिसमें अतीक और अशरफ साबरमती जेल से प्रयागराज लाए जा रहे थे। पुलिस को इसकी खुफिया जानकारी मिल गई थी।
इन सारी घटनाओं को गहराई में समझने की जरूरत है। वास्तव में देश में माफिया गिरोहों की समस्या बहुत गंभीर हो गई है। इस समस्या की शुरुआत देश में करीब 50 साल पहले हुई थी। सबसे बड़े माफिया गिरोह महाराष्ट्र में पनपे। दाऊद इब्राहिम का नाम तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर था, उसके अलावा याकूब मेनन, हाजी मस्तान, वरदराजन मुदलियार आदि कुख्यात थे। उत्तर प्रदेश में मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, सुंदर भाटी, श्रीप्रकाश शुक्ला, हरिशंकर तिवारी आदि के नाम चर्चा में रहे। बिहार में शहाबुद्दीन का नाम था। समझने की बात यह है कि माफिया सरगना राजनीतिक संरक्षण में फले-फूले और उन्होंने अपनी आर्थिक शक्ति का विस्तार किया। प्रारंभ में तो उन्होंने अपने राजनैतिक आकाओं से दूरी बनाए रखी लेकिन धीरे-धीरे उन्हें लगा कि वे स्वयं राजनीति में प्रवेश कर सकते हैं और वे लोकतंत्र के मंदिर- हमारे देश की पार्लियामेंट और राज्यों की असेंबली- में घुसते चले गए। अपराध और राजनीति के बीच जो विभाजक रेखा थी, वह धीरे-धीरे धुंधली पड़ती गई।
धरा गया हमलावरः अतीक को गोली मारने वाला पुलिस के कब्जे में
कालांतर में केंद्र सरकार इस समस्या के प्रति जागरूक हुई और उसने 1995 में वोहरा कमेटी का गठन किया कि वह समस्या का अध्ययन कर उससे निपटने के लिए सुझाव दे। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि माफिया का नेटवर्क देश के कुछ क्षेत्रों में समानांतर सरकार जैसा चला रहा है। रिपोर्ट पर पार्लियामेंट में काफी हल्ला हुआ लेकिन कोई ठोस पहल नहीं की गई। राजनीति के अपराधीकरण की प्रक्रिया काफी आगे बढ़ चुकी थी, इसलिए राजनीति के प्रतिनिधियों से यह उम्मीद करना कि वे कुख्यात अपराधियों के विरुद्ध कोई सख्त कदम उठाएंगे, निरर्थक था। परिणाम यह हुआ कि माफिया अपना जाल फैलाता गया और स्थानीय प्रशासन पर हावी होता गया। मुख्यमंत्री स्तर तक उसकी पहुंच हो गई। इन हालात में स्थानीय पुलिस और मजिस्ट्रेट कुख्यात अपराधियों के विरुद्ध असहाय हो गए। यही नहीं, उनकी जी हुजूरी भी करने लगे।
योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री पद संभालते ही कथित तौर पर यह तय किया कि उन्हें माफिया की कमर तोड़ देनी है। एक सुनियोजित कार्यक्रम के अंतर्गत उन्होंने कार्रवाई शुरू की। प्रथम चरण में उन्होंने यह तय किया कि माफिया का राजनीतिक संरक्षण एकदम समाप्त हो जाए। द्वितीय चरण में उन्होंने माफिया के आर्थिक साम्राज्य पर प्रहार किया। एक आकलन के अनुसार केवल अतीक अहमद और उसके परिवार की 1,169 करोड़ रुपये की कुल संपत्ति या तो जब्त कर ली गई या वापस ले ली गई या उसे ढहा दिया गया। तृतीय चरण में उन्होंने माफिया गिरोह के सभी सदस्यों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई को गति दी। पहली बार ऐसा हुआ कि 12 गैंगस्टर और उनके 29 सहयोगियों को अदालत से सजा हुई। मुख्तार अंसारी को 10 साल की जेल हुई और अतीक अहमद को आजीवन कारावास की सजा हुई। इस सारी कार्रवाई से माफिया की जड़ें हिल गईं और वह बर्बादी के कगार पर पहुंच गया। दुर्भाग्य से 15 अप्रैल को पुलिस से एक चूक हो गई, जिसमें अतीक और उसके भाई अशरफ की हत्या हो गई। इसको लेकर कई सवाल खड़े हुए।
विदेश की मीडिया ने भी इस घटना को अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। बीबीसी ने अपनी रिपोर्ट में इसे एक पूर्व सांसद की हत्या का मामला बताया है, न कि एक माफिया डॉन की। इसी तरह न्यूयॉर्क टाइम्स ने घटना के संदर्भ में भारत में न्यायेतर हत्याओं पर गंभीर चिंता व्यक्त की है, हालांकि तथ्य तो यह भी है कि अमेरिका की पुलिस हर वर्ष करीब 1000 व्यक्तियों को गोली मार देती है- 2021 में यह संख्या 1048 और 2022 में 1096 थी।
पुलिस को आज कठघरे में खड़ा कर दिया गया है। यह सही है कि पुलिस से गलतियां हुई हैं परंतु क्या शासन के अन्य अंगों से गलतियां नहीं हुईं? इलाहाबाद के अनेकानेक जिलाधिकारियों की क्या कोई जिम्मेदारी नहीं बनती, जो जनपद के क्रिमिनल एडमिनिस्ट्रेशन के प्रमुख माने जाते हैं? न्यायपालिका के 10 जज जो एक के बाद एक अतीक अहमद से संबंधित केस से अपने आपको अलग करते रहे, क्या उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो हमारे देश के नेताओं की है जिनके संरक्षण में माफिया का साम्राज्य खड़ा होता है।
अगर हमें इस समस्या से निजात पानी है तो चार बिंदुओं पर ठोस कार्रवाई करनी पड़ेगी। सर्वप्रथम, माफिया-नेता-अफसर गठजोड़ को तोड़ना होगा। दूसरे, आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के पार्लियामेंट और असेंबली में प्रवेश पर प्रतिबंध सुनिश्चित करना होगा। तीसरे, क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में व्यापक सुधार करने होंगे, विशेष तौर से पुलिस कार्यप्रणाली को हर प्रकार के बाहरी दबाव से मुक्त करना होगा। और चौथे, केंद्र को ऑर्गनाइज्ड क्राइम्स एक्ट बनाना पड़ेगा जिसके अंतर्गत इन माफियाओं के विरुद्ध प्रभावी कार्रवाई की जा सके।
(लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक थे)