“विडंबना देखिए, निकहत जरीन भले महिला मुक्केबाजी का विश्व खिताब ले आई, बैडमिंटन टीम ने पहली बार थॉमस कप जीत लिया, उन लाजवाब खिलाड़ियों से ज्यादा चर्चा क्रिकेट स्टार की होती है जो ‘गोल्डन डक’ पर आउट हो जाता है”
सबसे पहले, एक स्वीकारोक्ति। मैं क्रिकेट का आशिक रहा हूं। यह मेरा पहला प्यार रहा है, जिसकी स्मृतियां मेरे मन में सदा के लिए रची-बसी हैं। शायद इसलिए कि इस खेल के प्रति मेरी दीवानगी बचपन में उसी दिन शुरू हुई, जिस दिन भारतीय टीम ने पोर्ट ऑफ स्पेन टेस्ट की चौथी पारी में वेस्ट इंडीज के खिलाफ चार सौ रन से ऊपर के लक्ष्य का पीछा करते हुए जीत हासिल की थी। भारत को उन दिनों ‘ढाई बल्लेबाजों की टीम’ कहा जाता था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुनील गावस्कर और गुंडप्पा विश्वनाथ को दो बल्लेबाज और बाकी टीम को आधा बल्लेबाज समझा जाता था। ऐसी टीम का तेज और खतरनाक कैरिबियाई गेंदबाजों के समक्ष उछाल भरी पिच पर जीतना एक सपने के समान था।
आम तौर पर लोग 1983 के विश्व कप क्रिकेट में जीत को भारतीय क्रिकेट का ‘टर्निंग पॉइंट’ मानते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि 1976 में उस टेस्ट की जीत ने खिलाड़ियों में जो जोश और जज्बा पैदा किया, उसने सात साल बाद देश के खेल इतिहास का सर्वोत्तम क्षण लाने का मार्ग प्रशस्त किया। देश की कई पीढ़ियों के लिए क्रिकेट के प्रति प्रेम दीवानगी की हद तक थी, जो किसी और खेल के लिए न थी। इसलिए क्रिकेट को यहां धर्म कहा गया और सचिन तेंडुलकर को “भगवान” की संज्ञा दी गई। लेकिन, इसका अर्थ यह कतई न था कि हमें बाकी खेलों से प्यार न था। अन्य खेलों में भारतीय टीम के अच्छे प्रदर्शन पर भी हमारा सीना फख्र से चौड़ा हो जाता था, चाहे वह 1975 की भारतीय पुरुष हॉकी की विश्व कप में विजय हो, या 1980 ओलंपिक में महिला टीम की। हम विजय अमृतराज और रमेश कृष्णन के विंबलडन क्वार्टरफाइनल में पहुंचने मात्र से रोमांचित होते थे और पी.टी. उषा के ओलंपिक में मेडल न जीतने के बावजूद उनके अभूतपूर्व प्रदर्शन पर जश्न मनाते थे। माइकल फरेरा और गीत सेठी के बिलयर्ड्स और स्नूकर में और विश्वनाथन आनंद के शतरंज में विश्व चैंपियन बनने और प्रकाश पादुकोण के ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप में जीत की घड़ी हमारे जीवन के स्वर्णिम क्षण थे। लेकिन क्रिकेट सर्वोपरि था।
अब, दूसरी स्वीकारोक्ति। क्रिकेट आज मेरे लिए किसी अजनबी की तरह नजर आता है। आज मुझे इस खेल में गावस्कर के स्ट्रेट ड्राइव नहीं दिखते, कोई विश्वनाथ की तरह स्क्वायर कट और मोहिंदर अमरनाथ की तरह पुल शॉट नहीं खेलता। तेंडुलकर की तरह कोई सम्पूर्ण खिलाड़ी भी नहीं लगता। इसका यह अर्थ नहीं कि विराट कोहली का विश्वस्तरीय प्रदर्शन नहीं रहा है, न ही मैं उन लोगों में अपना नाम शुमार करना चाहता हूं जो बीते हुए दिन के लौट आने के विरह गीत गाते हैं। बकौल सुदर्शन फाकिर, अपनी बेहतरी के लिए आदमी को वक्त के साथ बदलते रहना चाहिए। लेकिन, कम से कम क्रिकेट के मामले में कभी-कभी लगता है, मैं समय के साथ अपने आपको नहीं बदल पाया। शायद इस खेल का बाजारीकरण इसका कारण है।
आज जिस तरह आइपीएल जैसे टूर्नामेंट में खिलाड़ियों की बढ़-चढ़कर बोली लगाई जाती है और कॉर्पोरेट घरानों का वर्चस्व बढ़ रहा है, इस खेल का कलात्मक पक्ष गौण हो गया है। अब जिस मैच में जितने छक्के-चौके, वह उतना ही रोमांचक। दर्शक अब क्रिकेट से फ्रीस्टाइल मुक्केबाजी या रग्बी जैसे रोमांच की उम्मीद कर स्टेडियम में जाते हैं। मेरे जैसे पुरातनपंथियों की संख्या अब नगण्य है, जो रोमांच की जगह क्रिकेट में रोमांस ढूंढ़ते हैं। आइपीएल और अन्य टी-20 प्रतियोगिताओं के प्रति दिनोदिन बढ़ता जुनून और टेस्ट मैचों का खाली स्टेडियम में खेला जाना गवाह है कि क्रिकेट का स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। अस्सी के दशक में जब कैरी पैकर सीरीज से ऑस्ट्रेलिया में “रंगीन” बदलाव की शुरुआत हुई थी तो उसे क्रिकेट का सर्कस कहा गया था। आज वह सर्कस इतना बड़ा हो चुका है कि दुनिया भर का क्रिकेट उसके सम्मोहन में बंधा है। कलात्मक खेल के रूप में यह क्रिकेट की प्रगति है या अवनति, इस पर एक मत नहीं हो सकता लेकिन यह सही है इस खेल की कला और तकनीक हमेशा के लिए पीछे छूट चुकी है। आज स्ट्रेट ड्राइव खेलनेवालों से उनकी पूछ ज्यादा है जो हेलीकॉप्टर शॉट से गेंद को बाउंड्री से बाहर करने का माद्दा रखते हैं।
जाहिर है, चाहे मैं बीते दौर को लेकर शिकवा-शिकायत करूं, क्रिकेट का जलवा बरकरार है। उसका स्वरूप बदलते वक्त के साथ जरूर बदलता जा रहा है, लेकिन उसके दीवानों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इसलिए, हैदराबाद की निकहत जरीन वर्षों से सामाजिक रूढ़ियों का मुकाबला करते हुए भले ही महिला मुक्केबाजी का विश्व खिताब अपने नाम कर ले, अब भी इस देश में क्रिकेट खिलाड़ी ही हैं जिनके लिए पलकें बिछाईं जाती हैं। भारत की बैडमिंटन टीम ने 73 वर्ष के इतिहास में भले पहली बार थॉमस कप जीत लिया हो, लेकिन उस प्रतियोगिता में किदांबी श्रीकांत, लक्ष्य सेन, ध्रुव कपिला, चिराग शेट्टी, सात्विक साईराज रंकीरेड्डी, एचएस प्रणय, प्रियांशु राजावत जैसे खिलाड़ियों के प्रदर्शन से ज्यादा चर्चा उस बड़े क्रिकेट स्टार की होती है जो ‘गोल्डन डक’ पर आउट हो जाता है। क्रिकेट छोड़ बाकी खेलों की अब भी यही त्रासदी है।