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प्रथम दृष्टि: चुनावी गुरु

“चुनावी गुरुओं की पूछ और महत्ता तब तक बनी रहेगी जब तक हर राजनीतिक दल फिर से यह नहीं समझ लेता कि अंततः...
प्रथम दृष्टि: चुनावी गुरु

“चुनावी गुरुओं की पूछ और महत्ता तब तक बनी रहेगी जब तक हर राजनीतिक दल फिर से यह नहीं समझ लेता कि अंततः जनता से जुड़ना और उनकी आशाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप काम करके ही चुनाव जीता जा सकता है”

राजनीति की बिसात हो या युद्ध का मैदान, गुरु का महत्त्व पौराणिक काल से ही बना रहा है। द्रोणाचार्य से लेकर चाणक्य तक अनेक गुरुओं ने शिष्यों की तकदीर बनाई और बिगाड़ी है। आधुनिक काल में भी शिक्षा और स्वास्थ्य से लेकर खेल और वाणिज्य-व्यापार के क्षेत्र में गुरुओं की भूमिका महती रही है। आपको क्या खाना है, क्या पहनना है, कैसे बोलना है, कैसे उठना-बैठना है, यह बताने वाले गाइड भी सर्वत्र उपलब्ध हैं। लव गुरुओं की भी बहुतायत है। देश की सियासत में भी आजकल एक अतरंगी दोस्त, दार्शनिक और रहनुमा की प्रजाति का प्रादुर्भाव हुआ है, जिसे संक्षेप में चुनावी गुरु कह सकते हैं। ऐसे गुरु तमाम तरह के अस्त्र-शस्त्र से लैस होते हैं।

चुनावी समर में कैसी रणनीति बनानी है, किसे टिकट देना है, किसके साथ गठबंधन करना है, किस जाति या कौम का वोट किधर जाता है और उसे अपने पक्ष में कैसे करना है, इस गुरु के पास सभी मुश्किलों के हल होते हैं। ये ‘एक-साइज-सबको-फिट’ सिद्धांत में विश्वास नहीं रखते, जैसी जिसको जरूरत उसके लिए वैसा ही टेम्प्लेट। ये गुरु पूरी तरह से पेशेवर होते हैं जिनकी किसी खास विचारधारा में आस्था नहीं होती। ये सुबह वामपंथ के पुरोधाओं के साथ कॉफी पर चर्चा करते हैं, शाम को दक्षिणपंथियों के साथ रोटियां तोड़ते हैं। मध्यमार्गियों के लिए तो दोपहर में लंच पर उपलब्ध हैं ही। तात्पर्य यह है कि विचारधारा से इतर, उनके पिटारे में एक विजय सूत्र रहता है जिसका वे हताश हो रही पार्टियों के लिए संजीविनी के रूप में ब्रांडिंग करते हैं। चुनाव के मामले में तो वे हकीम लुकमान की तरह नब्ज पर हाथ रखकर असाध्य रोग का इलाज ढूंढ लेते हैं और जरूरत पड़ने पर सुश्रुत की तरह शल्य चिकित्सा की भी दक्षता रखने का दावा करते हैं।

यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि बदलते दौर में ये चलते-फिरते शॉपिंग मॉल हैं जहां चुनावी समर के लिए जरूरी सभी असलहे उपलब्ध होते हैं। जाहिर है, अपनी सेवाएं देने के लिए उन्हें मेहनताना की दरकार होती है। सिर्फ लोकतंत्र की बेहतरी के लिए ऐसा नहीं किया जा सकता। लेकिन, कभी-कभी उनकी अपनी सियासी इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं बलवती हो उठती हैं और वे सारथी की भूमिका छोड़ पार्थ को दरकिनार कर खुद गांडीव उठाकर महाभारत लड़ने के अरमान पाल लेते हैं। वे सोचते हैं, चन्द्रगुप्त मौर्य चाणक्य के बगैर नंद साम्राज्य को कैसे धराशायी कर सकता है? द्रोणाचार्य की दीक्षा के बगैर क्या अर्जुन मछली की आंख वेध सकता है? दूसरों के सिर पर बार-बार विजय का सेहरा बांधने से तो अच्छा है खुद ही तख्त पर काबिज होना, भले ही उनका सियासत का कोई अनुभव हो या न हो!

हालांकि बंद कमरे में उनकी राजनीतिक समझ अव्वल दर्जे की और दृष्टि पैनी दिखती है। चुनाव पूर्व बहती हवा का ये रुख भले ही न मोड़ पाएं, वह किस दिशा में जाएगी, यह जरूर भांप लेते हैं और अक्सर उसी हिसाब से अपने क्लाइंट का चयन करते हैं। भविष्य में चुनावी इतिहास में उनके योगदान को स्वीकारा जाए या नहीं, कम से कम उन्होंने राजनीतिक दलों के बीच यह अवधारणा बनाने में सफलता जरूर पाई है कि चुनाव महज लोकलुभावन मैनिफेस्टो से नहीं जीता जा सकता, उसके लिए पेशेवरों की सेवाएं निहायत जरूरी होती हैं, जो समय रहते जरूरी डाटा निकल सकें, समीकरण समझा सकें।

लेकिन, क्या ऐसे चुनावी गुरुओं के पास जिताने या हराने का वाकई कोई अचूक फार्मूला होता है? भारत जैसे विविधता भरे देश में मतदाता के अंतर्मन को पावरपॉइंट के जरिए समझना टेढ़ी खीर है। अंतिम क्षण में प्याज की कीमतों में उछाल भी सत्ताधीशों के गले की फांस बन जाती है। वैसी स्थिति में चुनाव पूर्व के सभी आकलन, सभी रणनीतियां धरी रह जाती हैं। अगर चुनाव जीतने का वाकई कोई फार्मूला होता जिसे कोचिंग से सीखा-समझा जाता, तो जनता नहीं, ऐसे गुरु ही चुनावों में पार्टियों की तकदीर लिखते। मतदाता को किसी चुनावी फार्मूले में नहीं बांधा जा सकता। तो, फिर पार्टियां ऐसे गुरुओं को अपने पाले में किसी भी कीमत पर लाने के लिए क्यों आमादा रहती हैं? इसका मूल कारण यह है कि कई दल जमीनी हकीकत से कोसों दूर हो गए हैं। उनकी योजनाएं राजधानियों में वातानुकूलित कमरों में बनाई जाती हैं जो धरातल पर कभी नहीं उतरतीं।

पहले के नेता चुनाव हारने के बाद क्षेत्रों का दौरा करते थे, ताकि यह समझ पाएं कि जनता ने उन्हें क्यों नकार दिया। आज के नेता इसे समझने के लिए चुनावी गुरुओं की शरण में जाते हैं, जिनके पास हर सवाल से जुड़े रेडीमेड उत्तर रहते हैं। यह तो वक्त बताएगा कि ऐसे गुरु चुनाव लड़ने की पारंपरिक संस्कृति में बदलाव ला सकते हैं या नहीं लेकिन जैसे-जैसे सोशल मीडिया और बाकी वर्चुअल माध्यमों का विकास होगा, उनकी पूछ और महत्ता बढ़ती रहेगी। वे तब तक ट्रेंड करेंगे जब तक हर राजनीतिक दल फिर से यह नहीं समझ लेता कि अंततः जनता से जुड़ना और उनकी आशाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप काम करके ही चुनाव जीता जा सकता है, चाहे उनके वार रूम में कोई स्वयंभू चुनावी गुरु स्लाइड्स के साथ मौजूद हो या नहीं।

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