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प्रथम दृष्टि: दांव पर सियासत

"इसमें शक नहीं है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम आगामी लोकसभा चुनाव को काफी हद तक प्रभावित करेंगे" इस...
प्रथम दृष्टि: दांव पर सियासत

"इसमें शक नहीं है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम आगामी लोकसभा चुनाव को काफी हद तक प्रभावित करेंगे"

इस पर कोई विवाद शायद ही है कि दिल्ली में सत्ता के गलियारे तक पहुंचने के रास्ते की शुरुआत लखनऊ से होती है। हो भी क्यों नहीं? जिस प्रदेश में देश में सबसे अधिक, लोकसभा के अस्सी सांसद चुनकर भेजने की ताकत हो, उसका राष्ट्रीय राजनीति के मानचित्र पर सबसे बड़ा वजूद होना लाजिमी है। लेकिन यह ताकत सिर्फ लोकसभा चुनाव के वक्त ही नहीं दिखती, प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी उतने ही असरकारी हैं। किसी अन्य राज्य का चुनाव राष्ट्रीय राजनीति के लिए उतना अहम नहीं होता है, जितना उत्तर प्रदेश का। इसलिए, जब भी वहां चुनावी समर का आगाज होता है, देश और विदेश में लोगों की नजरें उस पर टिक जाती हैं। चर्चाओं का बाजार गर्म हो जाता है, कयासों के सिलसिले शुरू हो जाते हैं और भविष्यवाणियों की झड़ी लग जाती है। राजनीतिक विश्लेषकों के बीच यह बताने की होड़-सी रहती है कि लखनऊ की गद्दी पर कौन विराजमान होने जा रहा है?
दरअसल, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को तकरीबन दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के सेमी-फाइनल के रूप में देखा जाता है। आम तौर पर ऐसा समझा जाता है कि जिसकी लखनऊ में ताजपोशी होती है, उसी दल को दिल्ली का सेहरा भी मिलता है। प्रजातंत्र में आखिरकार लड़ाई संख्याबल पर जीती जाती है। आजाद भारत के इतिहास में सबसे अधिक प्रधानमंत्री वहीं से चुनकर आए। इन्हीं वजहों से इस बार भी उत्तर प्रदेश में हो रहे चुनाव भविष्य में राष्ट्रीय राजनीति की दशा-दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

इस चुनाव में सबसे अधिक दिलचस्पी इस बात में है कि क्या योगी आदित्यनाथ फिर मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं? अगर वे इसमें सफल हो जाते हैं तो न सिर्फ अपने राज्य में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी उनका राजनैतिक कद बढ़ जाएगा। पिछले कई वर्षों से भारतीय जनता पार्टी में उनकी गिनती नरेंद्र मोदी-अमित शाह के बाद वाली पीढ़ी के अग्रणी नेताओं में रूप में होती रही है। इस चुनाव में उनके नेतृत्व में भाजपा की जीत से उनकी सियासी ताकत उनकी पार्टी और पार्टी के बाहर बढ़ेगी। उनके विरोधी उन पर प्रदेश के भगवाकरण, कानून-व्यवस्था के लचर होने, अल्पसंख्यकों और किसानों के हितों की अनदेखी करने जैसे आरोप लगाते हैं। यह भी कहा जाता है कि वे इन्हीं वजहों से सत्ता-विरोधी लहर का सामना कर रहे हैं। लेकिन, योगी के समर्थकों का मानना है कि उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में जिस पैमाने पर विकास हुआ है, वह कई दशकों से नहीं हुआ था। उनके अनुसार, मुख्यमंत्री की छवि एक ईमानदार और सख्त प्रशासक के रूप में उभरी है और उन्हें जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त है। जो भी हो, विपक्ष के लिए योगी इस चुनाव में एक बड़ी चुनौती अवश्य हैं।

विपक्ष के लिए यह करो-या-मरो वाली स्थिति है। योगी की सत्ता में वापसी उसे फिर से हाशिये पर खड़ा कर सकती है। केंद्र सरकार की मदद से ‘डबल इंजन’ की सरकार चलाने का लगातार दूसरा मौका योगी को मिलना उनके विरोधियों के लिए लिए ऐसा झटका होगा, जिससे उबरने में उन्हें लंबा समय लगेगा। इसलिए, अखिलेश यादव ने इस चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। लेकिन, बहुकोणीय चुनाव में, जिसमें विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर नहीं लड़ रहे हैं, क्या समाजवादी पार्टी के युवा नेता सिर्फ अपने दमखम पर फिर से मुख्यमंत्री बन सकते हैं? यह देखना भी उतना ही दिलचस्प होगा।

यह भी दिलचस्प होगा कि मायावती इस चुनाव में कैसा प्रदर्शन करती हैं? अधिकतर आकलनों के अनुसार इस बार सपा और भाजपा के बीच सीधी टक्कर दिख रही है। लेकिन, क्या प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के पारंपरिक वोट बैंक के वजूद को नकारा जा सकता है? यह भी देखना होगा कि क्या मायावती और अखिलेश को 2019 के लोकसभा चुनाव की तरह एक बार फिर साझा लड़ाई की रणनीति बनाने की जरूरत थी? इनके अलावा, कांग्रेस पर इस चुनाव के परिणामों का क्या असर होगा? प्रियंका गांधी प्रदेश में अपनी पार्टी का खोया वजूद वापस पाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही हैं, लेकिन पिछले तीन दशक से अधिक समय से उसकी सांगठनिक क्षमता में ह्रास और कुशल नेतृत्व के अभाव के कारण यह आसान नहीं लगता, वह भी तब जब कांग्रेस ने स्वयं अपने बलबूते ही चुनाव लड़ने की योजना बनाई। कई छोटी पार्टियां भी अपने-अपने प्रभुत्व वाले इलाकों में स्वतंत्र रूप से या किसी न किसी गठबंधन से साथ जोर-आजमाइश कर रही हैं। क्या इसका असर भी अंतिम परिणामों में पड़ेगा?

नतीजे जो भी आएं, उत्तर प्रदेश के परिणाम आगामी लोकसभा चुनाव को काफी हद तक प्रभावित करेंगे। योगी आदित्यनाथ की सत्ता में वापसी भाजपा में निस्संदेह नया जोश भर देगी जबकि अखिलेश या मायावती की विजय विपक्ष को 2024 के आम चुनाव के पूर्व केंद्र में मोदी के खिलाफ साझा योजना बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगी। इसका आकलन 10 मार्च को चुनाव परिणामों के बाद ही हो सकता है। फिलहाल यही कहा जा सकता है, ‘लेट द बेस्ट मैन ऐंड वुमन विन (वही जीते जो सर्वश्रेष्ठ हो)।’ शायद जनता भी यही चाहती है।

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