बात यहां तक आ गई है कि छात्रों को लगता है कि अगर वे कोचिंग नहीं लेंगे तो फेल हो जाएंगे। उनका भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। बच्चे स्कूल से आते हैं, फटाफट खाना खाते हैं, कोचिंग के लिए भाग जाते हैं। उन्हें खेलने-कूदने और हुतूतू तक का समय नहीं मिलता है। इन सेंटरों ने छात्रों का शारीरिक विकास तक रोक दिया है। बच्चे स्कूल में सोते हैं, थके होते हैं। स्कूल में इसलिए सोते हैं कि वहां टीचर कुछ करवाते नहीं हैं। मैंने खुद देखा है कि स्कूल से आकर टीचरों के घरों के सामने ट्यूशन पढ़ने वालों की लंबी कतार लगी होती है। रात के दस-दस बजे तक वे ट्यूशन पढ़ाते हैं।
मैंने लोकसभा में भी यह सवाल उठाया था। एक आंकड़े के अनुसार प्राइमरी के 80 फीसदी और उच्च शिक्षा के 96 फीसदी छात्र कोचिंग लेते हैं। हजारों करोड़ रुपये का कारोबार है यह, जिसका कोई हिसाब नहीं। कोई पूछने वाला नहीं। हाल ही में नारायण मूर्ति ने बोला है कि आईआईटी के लिए कोचिंग स्तर गिरा है। आखिर शिक्षा के इस धंधे में किसकी जवाबदेही है, स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई क्यों नहीं हो रही। मध्यवर्ग पहले बच्चे को महंगे स्कूल में पढ़ाते हैं, सारी जिंदगी फीस, डोनेशन देकर उनकी कमर टूट जाती है। फिर उसे कॉलेज भेजते हैं। फिर सारी जिंदगी की स्कूल फीस जितना खर्च कोचिंग में उठाते हैं। उसपर भी यह तय नहीं कि बच्चा प्रतियोगिता परीक्षा पास करेगा या नहीं। आखिर कहीं तो इसे खत्म करें।
(लेखक भाजपा सांसद और फिल्म अभिनेता हैं।)