चरम पर बेरोजगारी। जीडीपी बहुत कम। महंगाई बहुत ज्यादा। असंगठित क्षेत्र पर बढ़ता दबाव। स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र पर घटता खर्च। कृषि की विकास दर सुस्त। उत्पादन की विकास दर नेगेटिव। हवा में नफरत घोलने की कोशिशें। ऐसे ही माहौल में चुनाव की बाजी। सवाल है कि क्या 2022 के चुनावी परिणाम काफी कुछ तय करेंगे।
दरअसल उम्मीद-नाउम्मीदी के बीच झूलते हुए 2022 की शुरुआत ही महामारी की तीसरी लहर से हुई है, जिसका मतलब जिंदगी आसान न हो पाना है। असंख्य गरीब-मजदूरों के सामने कमाई के रास्ते का सिमटना है। छोटे व्यापारियों के लिए खुद को खड़ा कर पाना और मुश्किल होगा। किसानों के लिए मंडी पहुंच पाना आसान नहीं होगा। उद्योगों की चिमनियों से धुआं निकलता हुआ दिखाई नहीं देगा। शिक्षा ऑनलाइन है तो बेरोजगारी का दर्द ऑफलाइन, जो सड़कों पर लाठियां खा रहा है। रोजगार की जगह मुफ्त अनाज बांटना ही सरकार अपनी उपलब्धि करार देने से नहीं हिचकती। असल में चुनावी जीत में जब सारी असफलताओं को ढंक लेने की क्षमता हो तो फिर चुनाव के लिए ही जीने-मरने में देश को उलझा देना गलत कहां हैं। यानी 2022 में यूपी (मार्च) से लेकर गुजरात (नवंबर) विधानसभा चुनाव में ही समूची मोदी कैबिनेट नजर आएगी, इससे इंकार कोई कर नहीं सकता है। सरकार के लिए चुनावों में जीत अगर देश में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर जीत हासिल करना है तो फिर चुनाव महज लोकतंत्र का पर्याय नहीं हैं, बल्कि देश की ऐसी भाग्य रेखा हैं जिस पर देश के हर नागरिक को न सिर्फ चलते रहना है, बल्कि हर पॉलिसी को भी चुनावी मोड में तब्दील हो जाना है।
तमाम सवालों का जन्म यहीं से होता है। क्या संवैधानिक संस्थानों की भूमिका भी सत्तानुकूल होगी? क्या स्वायत्त संस्थाएं अपने तौर पर कोई निर्णय नहीं ले पाएंगी? क्या रिजर्व बैंक की भूमिका राष्ट्रीय बैंकों को निजी हाथों में सौंपने की होगी? क्या भारत का संघीय ढांचा भी चुनावी सत्ता का गुलाम होकर कार्य करेगा? या फिर चुनाव के जरिए सत्ता परिवर्तन देश में नए हालात पैदा करेगा?
इसी मायने में यूपी का चुनाव महत्वपूर्ण बना चुका है। वहां जीत की उम्मीद और हताशा ने वो सारे दरवाजे खोल दिए हैं, जिसकी इजाजत कानून का राज कभी नहीं देता है। लेकिन चुनाव में जीत के लिए अगर धर्मिक कट्टरता और हिंसक बयान समाज को बांटने लगे और बंटे हुए समाज में ही सत्ता को चुनावी जीत दिखाई देने लगे तो फिर कानून का राज काम नहीं करता, बल्कि कानून पर सत्ता का राज काम करता है। जाहिर है, इसका खुला प्रयोग दिल्ली, हरिद्वार, रायपुर में नजर आया, जिसे अलग-अलग राज्यों में सत्ता और विपक्ष के बयानों ने तूल भी दिया। ध्यान दें तो सारी कड़ियां समाज के उसी कल्चर से टकराईं, जिस सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान भारत के अतीत से जुड़ी रही है। या फिर दुनिया भर में जिस भारतीय कल्चर की पहचान रही है उसमें पहली बार चुनावी जीत के लिए दरारें पैदा करने की कोशिश भी उभरी और काफी हद तक सियासत सफल भी रही।
तो क्या सत्ता परिवर्तन दरारों को भर देगा या बांटे जा रहे समाज में बदले के भाव के साथ खड़ा हो जाएगा? दरअसल यूपी चुनाव में अखिलेश यादव भी सत्ता में आने के बाद बुलडोजर का रुख भाजपा की तरफ करने को तैयार दिखते हैं। असदुद्दीन ओवैसी पुलिस को उसी तर्ज पर धमकाने को तैयार हैं, जिस तर्ज पर उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी के दिशानिर्देश पर पुलिस पर मुसलमानों को धमकाने का आरोप है। समाज, समुदाय या जातियों में राजनीतिक पक्ष लेकर बंटने की सोच के दायरे में परिवार तक आ गए हैं।
दरअसल 2022 में तीन नए हालात हैं। एक, चुनावी राजनीति पर टिके देश में मुसलमान हाशिये पर और खामोश हैं। दूसरे, न तो मुसलमानों को, न ही हिंदुओं को उनके अपने समाज के भीतर से कोई कट्टरता के खिलाफ खड़ा होकर भारत के सांस्कृतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाने को तैयार है। तीसरे, अर्थव्यवस्था और संवैधानिक संस्थाओं को लेकर कोई दृष्टिकोण किसी भी नेता या राजनीतिक दल के पास नहीं है। बौद्धिक तबका चाहे हिंदू समाज से जुड़ा हो या मुस्लिम समाज से, हालात ने दोनों को अपने-अपने दायरे में इस तरह समेट दिया है, जहां दोनों हिंदू या मुस्लिम विरोधी होने के आरोप भर से सिमट गए हैं। चुनावी सफलता के लिए असफल किए जा रहे भारत के सामने बड़ा संकट संसद का भी है। संसद राजनीति के उस पाठ को अपना चुकी है, जहां राजनीतिक सफलता के लिए उसके भीतर या बाहर संसद का ही इस्तेमाल किया जा रहा है। यानी संसद भी सियासी हथियार हो सकती है, यह खुले तौर पर इस दौर में उभरा है।
लेकिन इस कड़ी में जनता कहां है? वह प्रवासी मजदूर जो घर लौटा, वह किसान जो आंदोलन के बाद घर लौटा, वह डिग्रीधारी युवा जो हर दिन बिना रोजगार घर लौटता है, इस दौर में हर किसी ने लाठियां भी खाईं। किसानों ने लाठी खाई। मजदूरों ने लाठी खाई। जेएनयू-जामिया के छात्रों पर लाठियां बरसीं। और तो और, अब तो डॉक्टरों पर लाठी बरस गई। बैंककर्मी और एलआइसी कर्मी भी निराशा के शिकार हुए। हालात डगमगाये तो देश की कैबिनेट को भी जातियों के आधार पर सींचने का ऐलान किया गया। हिंदू-मुस्लिम के बीच मोटी लकीर खींचने के साथ गिरजाघर को भी निशाने पर लिया गया और बात बढ़ते बढ़ते महात्मा गांधी तक भी पहुंची। अज्ञानता की राजनीति का परचम लहराने का खुला मौका कानून की खामोशी के जरिए दिया गया।
देश के जमीनी सवाल गायब हैं। पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था को भी महामारी तले दबाने का ही प्रयास हुआ। 2014 में जीडीपी 152 लाख करोड़ रुपये थी। जो कोविड से पहले यानी 2019 में घटकर 146 लाख करोड़ रुपये की हो गई थी। महामारी से पहले ही अर्थव्यवस्था कैसे डावांडोल हुई, इस पर बहस न हो इसलिए ढाल कोविड काल को बनाया गया। 2021-22 में जीडीपी बढ़कर 148 लाख करोड़ की हुई लेकिन 2014 के मुकाबले फिर भी कम है। यही हाल रोजगार का है। संगठित-अंसगठित सभी क्षेत्रों को मिलाकर 2014 में कुल रोजगार 46.96 करोड़ था, जो 2019 में घटकर 40.40 करोड़ हो गया और 2021 में 39.40 करोड़ रह गया। तो सवाल गवर्नेंस का है। सवाल नीतियों के ऐलान और उन्हें लागू कराने का है। अगर सत्ता के कॉरपोरेटीकरण के हालात को परखें तो भी दो सवाल बेचैन कर देंगे। एक तरफ देश की जीडीपी का नीचे जाना और दूसरी तरफ कॉरपोरेट के नेटवर्थ में ऐतिहासिक बढ़ोतरी होना। एक तरफ कॉरपोरेट के जरिये देश चलाने के हालात पैदा करना, दूसरी तरफ कॉरपोरेट का सबसे कम पैसा इसी दौर में बाजार में लगाना। इसी दौर में सबसे ज्यादा सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में कौड़ियों के मोल देने से सरकार घबराई नहीं। लेकिन नए बरस का असल पाठ जमीनी मुद्दों को चुनावी सफलता के आगे बेमानी करार देने का है। यह संयोग से सबसे बड़े सूबे यूपी के चुनाव पर जा टिका है। तो, संभले कौन और संभाले कौन। 2022 में सबसे बड़ा शून्य इसी सवाल से जा जुड़ा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)