एक मिनट के लिए भूल जाइये कि आज मुंबई के किसी रेलवे स्टेशन पर भगदड़ मची थी। अपनी जिंदादिली पर गर्व करने वाले महानगर में बारिश की फिसलन के बीच अफरा-तफरी 22 लोगों की जान ले गई। करीब 40 घायल अस्पताल में हैं। भीड़ को भगदड़ में बदलने में चंद मिनटों का समय लगा, हालांकि बदइंतजामी का यह सिलसिला बरसों पुराना है। 104 साल पुराने एलफिंस्टन फुटओवर ब्रिज पर कभी भी बड़ा हादसा हो सकता है, इस बारे में कई मर्तबा आगाह किया गया। मुंबई के लोगों की ऐसी सैकड़ों चेतावनियां सुबह से सोशल मीडिया पर तैर रही हैं। ट्विटर पर चलने वाली सरकार ये आवाज़ें सुन नहीं पाई।
Pre-rush hour Parel station. The only staircase which people use to exit and enter the station. A major accident is waiting to happen. pic.twitter.com/FWMrTboh4a
— MANJUL (@MANJULtoons) February 1, 2017
फिर भी कुछ देर के लिए भूल जाइये कि यह रेलवे की लापरवाही और “न्यू इंडिया” की एक खौफनाक तस्वीर है। सोचिए, जब ऐसा हादसा नहीं हो रहा होता, तब मुंबई लोकल की पटरियों, रेलवे स्टेशनों पर क्या होता है। महाराष्ट्र रेलवे पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि जनवरी, 2016 से जुलाई, 2017 के बीच मुंबई लोकल से जुड़े हादसों में 3,880 लोगों की जान गई। हर साल करीब 3 हजार से ज्यादा लोग मुंबई में रेल से कटकर या गिरकर मर जाते हैं। हजार से ज्यादा लोग रेल लाइन पार करते हुए तो तकरीबन इतने ही लोग खचाखच भरे रेल के डिब्बों से गिरकर मरते हैं।
ऐसे ही चलती है मुंबई
हर साल देश भर में होने वाले आतंकी हमलों में जितने लोग मारे जाते हैं, उससे करीब 10 गुना ज्यादा लोग मुंबई की रेल लाइनों पर दम तोड़ते हैं। मुंबई में जान इतनी सस्ती है? रोजाना 8-9 लोग मुंबई लोकल के हादसों में मरते ही हैं। इस देश में बहुत कुछ चलता है। यह भी शायद इसी चलते रहने का हिस्सा है। आज सुबह एलफिंस्टन ब्रिज पर हादसा नहीं हुआ होता, तब भी 8-9 लोग मुंबई लोकल के इर्द-गिर्द जान गवां चुके होते।
मुंबई ऐसे ही चलती है। भीड़ के सैलाब के बीच रेंगती जिंदगी को यथास्थिति मानकर मुंबईकर्स ने अपनी जिंदादिली का जश्न मनाना सीख लिया। जब तक बेहतर सुविधाएं, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बेहतर इंतजाम और स्मार्ट सिटी के सपने साकार हों, तब तक यह जिंदादिली ही चलते रहने का हौंसला देती है। चर्चगेट रेलवे स्टेशन की नेशनल ज्योग्राफिक वाली मशहूर तस्वीर मुंबई लोकल की पहचान शायद ऐसे ही बनी। ऐसा लगता है मानो दोनों तरफ खड़ी रेलगाड़ियों के बीच यात्रियों की बेतहाशा भीड़ उफनकर प्लेटफार्म से बाहर आ गिरेगी। विचित्र नजारा है!
ताज्जुब की बात है कि इस तरह की तस्वीरों ने मुंबई लोकल की क्षमताओं में विस्तार और शहर के बुनियादी ढांचे में सुधार की बहस छेड़ने के बजाय भीड़, धक्का-मुक्की और रेलमपेल वाली मुंबई की छवि में रंग भर दिए। इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव और जनजीवन की दुश्वारियों को मुंबई की खूबी की तरह पेश किया जाता रहा। शहरीकरण की चुनौतियों और महानगरों के प्रबंधन से जुड़े सवाल नाम बदलने जैसे भावनात्मक मुद्दाेें के आगे नतमस्तक हो गए। बेतहाशा भीड़ और अपर्याप्त व्यवस्थाओं को मुंबई की पहचान के तौर पर सेलीब्रेट किया गया। ये नजारे कभी बदल भी सकेंगे, यह यकीन ही नहीं रहा कभी। मुंबई की तस्वीर बदलनी चाहिए, इस तरह के स्वर उठते भी होंगे तो ज्यादा सुनाई नहीं पड़े। मुंबई ऐसी है। ऐसी ही चलती रहेगी। यही मान लिया गया। ज्यादा हुआ तो इन सवालों ने क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति को चमकाना शुरू कर दिया।
काम के बजाय नाम पर जोर
अब कहा जा रहा है कि रोजाना कई लाख लोगों की आवाजाही का जरिया बनने वाला 6 फुट का एलफिंस्टन ब्रिज चौड़ा होगा। नए रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा है कि इसका सेफ्टी ऑडिट किया जाएगा। इतने बड़े हादसे के बाद भी कोई संदेह बाकी रह गया है शायद! परेल और एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन के बीच बने इस फुटओवर ब्रिज को चौड़ा करने की मांग कई वर्षों से उठ रही है। शिवसेना के सांसदों अरविंद सावंत और राहुल शिवाले ने 2015-16 में इसकी मम्मत और चौड़ा करने के लिए तत्कालीन रेल मंत्री सुरेश प्रभु चिट्ठी लिखी थी। आरोप हैं कि इसके जवाब में रेल मंत्री ने फंड की कमी का हवाला दिया था। इधर, केंद्र सरकार का कहना है कि नए फुटओवर ब्रिज के निर्माण को साल 2016 में ही मंजूरी दे दी गई थी और इसके लिए टेंडर की प्रक्रिया चल रही है। काश यह हादसा टेंडर निकलने का इंतजार कर लेता!
रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा का कहना है कि हादसा ओवरब्रिज से नहीं भीड़ के कारण हुआ। "फुटओवर ब्रिज टूटा होता तो बात समझ में आती। वह भारी भीड़ के बाद भी टूटा नहीं। जो हादसा हुआ वह भगदड़ के कारण हुआ है।"
आप समझ सकते हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी रेलवे प्रणाली का नेतृत्व किस विजन के साथ किया जा रहा है। यह रिफॉर्म और स्मार्टनेस से आगे की चीज है। हादसे में मरने वालों को 10 लाख रुपये और गंभीर रूप से घायलों को 1 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाएगा। यह रकम कम से कम ढाई करोड़ रुपये बैठेगी। संभवत: इससे कम पैसे में फुटओवर ब्रिज चौड़ा हो सकता था। लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार से पहले रेलवे स्टेशन का नाम एलफिंस्टन रोड से बदलकर प्रभादेवी करने जैसे जरूरी काम निपटाए गए। नाम बदलने पर आजकल वैसे ही बहुत जोर है।
Sad to hear about stampede on Elphinstone Road bridge. What the station needs is better infrastructure, not a pointless name change
— Sidharth Bhatia (@bombaywallah) September 29, 2017
यात्री सुरक्षा साइड लाइन
तीन साल पहले मुंबई लोकल से गिरकर एक युवक की मौत का वीडियो वायरल हुआ था। तब मुंबई की उपनगरीय रेल सेवा में यात्रियों की सुरक्षा का सवाल उठा। लेकिन बात आई-गई हो गई। फिर भी कुछ लोग मुंबई लोकल में यात्रियों की सेफ्टी के मुद्दे को हाईकोर्ट तक लेकर गए। एक रेल हादसे में अपनी दोनों टांगे गवांने वाले समीर झवेरी की याचिका पर सुनवाई के दौरान मुंबई लोकल से होने वाली मौतों का आंकड़ा सामने आया। पता चला कि इन हादसों की सबसे बड़ी वजह बेकाबू भीड़ और इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी है। रोजाना लाखों यात्रियों की आवाजाही वाले रेलवे स्टेशनों पर फर्स्ट एड बॉक्स तक नहीं था। इसके लिए भी अदालत को निर्देश देने पड़े।
स्मार्ट सिटी बसाने, मौजूदा शहरों को क्योटो, शंघाई बनाने जैसे दावों-वादों के दौर में देश के बाकी शहरों की हालत भी खास बेहतर नहीं है। लेकिन सात टापूओं से फैली सपनों की नगरी दो करोड़ से ऊपर आबादी के बोझ तले रेंग रही है। वहां न थमने की जगह है, न चलने की। मुंबई लोकल को आधुनिक बनाने के प्रयास स्टेशनों के नाम बदलने पर अटके हैं।
Victims of stampede are tragically dead. Can happen to any of us. Lack of infrastructure & mob in panic. Civic amenity & civic sense needed.
— Amrita Bhinder (@amritabhinder) September 29, 2017
बचपन से पढ़ते आए हैं। देश की पहली यात्री ट्रेन बांबे से ठाणे के बीच 16 अप्रैल, 1853 को चली थी। तब 400 लोगों को लेकर 34 किलोमीटर चली यह रेल लंबा सफर तय कर चुकी है। रोजाना 75 लाख से ज्यादा लोग 465 किलोमीटर में फैले मुंबई के लोकल रेल नेटवर्क का इस्तेमाल करते हैं। यह मुम्बई की लाइफलाइन है। लेकिन तीन तरफ समुद्र से घिरे भूगोल और यथास्थिति को नियति मानकर चलने की सोच ने मुंबई को इन पटरियों से आगे नहीं बढ़ने दिया। इस हादसे के बाद शहर के बुनियादी ढांचे को लेकर सरकार की प्राथमिकताओं और नीतियों पर सवाल उठ रहे हैं। उसी अंदाज़ में जैसे बाढ़ के बाद अरबन प्लानिंग का ख्याल आने लगता है।
ये सवाल बहुत पहले उठ जाने चाहिए थे। आखिर जो राजनीति बंबई को मुंबई बना सकती हैं, वो भीड़ को भगदड़ में बदलने से रोकने के इंतजाम भी करवा सकती थी। मगर सवाल प्राथमिकताओं का है।
Human life pays for politicians income.. #Elphinstone pic.twitter.com/pxfi4gM46u
— Shradha Agrawal (@iamShradha_11) September 29, 2017