“प्रशासनिक सेवा में पेशेवराना रुख घटा, अधिकारियों को स्थिरता प्रदान न करना सबसे बड़ी चुनौती”
आधी सदी से ज्यादा हुए, जब मैं प्रशासनिक सेवा में आया था। उस समय उसका ढांचा और जरूरतें बिल्कुल अलग थीं। काफी हद तक मानविकी पर आधारित संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट परीक्षाओं जैसी ही होती थी। सवालों के लंबे-लंबे जवाब अंग्रेजी में जबाव लिखना, घटनाओं की व्यापक समझ, तेजी से पढ़ने और लोगों में जल्दी घुल-मिल जाने की क्षमता पर फोकस रहता था।
तब युवा अधिकारियों की भर्ती पर जोर होता था, क्योंकि कम उम्र में लोगों को जरूरतों के मुताबिक प्रशिक्षित किया जा सकता है। भारतीय पुलिस सेवा के लिए उम्र की सीमा 20 से 23 साल और अन्य सेवाओं के लिए 21 से 24 साल थी। आरक्षित वर्गों के लिए छूट थी। दो बार से अधिक यूपीएससी की परीक्षा नहीं दी जा सकती थी। आम तौर पर पहली बार परीक्षा देने वाले ही टॉपर होते थे, खासकर मानविकी की पढ़ाई करने वाले। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का दबदबा रहता था। शीर्ष दो सेवाओं, भारतीय विदेश सेवा और भारतीय प्रशासनिक सेवा में उनकी हिस्सेदारी कई बार 40 से 50 फीसदी तक होती थी।
ज्यादातर प्रशिक्षुओं के लिए मसूरी स्थित नेशनल अकादमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (तब यही नाम था) कॉलेज जीवन के विस्तार की तरह था। वहां अनुशासन काफी सख्त था। क्लास में एक मिनट देर होने पर आधे दिन की आकस्मिक छुट्टी कट जाती थी। सभी को घर याद आती थी, लेकिन घर जाने के लिए सप्ताहांत में भी छुट्टी नहीं मिलती थी। 1969 तक घुड़सवारी सीखना जरूरी था। सभी प्रशिक्षुओं को कटलरी का इस्तेमाल करना और खाने की मेज पर कैसे व्यवहार करना है, बताया जाता था। सप्ताह में एक दिन ‘ड्राई खाना’ मिलता था, जिसमें सैंडविच, कटलेट आदि होते थे। इसका मकसद अफसरों को इन सबकी आदत डालना था क्योंकि कई बार उन्हें फील्ड में इसी तरह के खाने पर गुजारा करना होता था।
आज परिस्थितियां बिल्कुल अलग हैं। प्रशासनिक सेवा में प्रवेश की अधिकतम उम्र सीमा 32 साल हो गई है। बासवान समिति ने इसे घटाने की सिफारिश की थी, लेकिन ऐसा फैसला लेना राजनीतिक रूप से मुश्किल होता है। कोई कितनी बार भी परीक्षा दे सकता है। शीर्ष रैंक हासिल करने वाला अक्सर तीसरे या चौथे प्रयास में ऐसा करता है। कई बार तो वह आइएएस के अलावा किसी अन्य सिविल सेवा में नौकरी कर रहा होता है। अब कम ही लोग मानविकी से आते हैं। अब इसमें आने वाले डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजमेंट स्पेशलिस्ट और डिजिटल सिस्टम की गहरी जानकारी रखने वाले होते हैं। मैंने ऐसे अफसरों के साथ भी काम किया जिन्होंने आइआइटी और आइआइएम दोनों में पढ़ाई की।
हमारे समय में इस सेवा में आने वाले ज्यादातर लोग मध्यवर्ग के शहरी होते थे। आज हर वर्ग के लिए मौका है। पिछड़ी जनजातियों से लेकर दूरदराज के गांव से लोग आ रहे हैं। तैयारी के लिए पूरे देश में कोचिंग संस्थान खुल गए हैं। परीक्षा दो हिस्सों में बांट दी गई है। मुख्य परीक्षा से पहले होने वाली प्रिलिमनरी सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट में बड़ी संख्या में अभ्यर्थी छंट जाते हैं। परीक्षार्थी देश की किसी भी भाषा में उत्तर लिख सकते हैं। साक्षात्कार में भी ट्रांसलेटर मुहैया होते हैं, ताकि अभ्यर्थी जिस भाषा में चाहे जवाब दे सके। परीक्षा देने वालों की संख्या भी हमारे समय की तुलना में अधिक हो गई है।
मैंने सिविल सेवा में आखिरी 15 साल केंद्र सरकार में गुजारे थे। तब अनेक युवा अधिकारियों के साथ काम करने का मौका मिला। करिअर के आखिरी चार साल कैबिनेट सचिव रहने के दौरान मैं कई पिछड़े राज्यों में गया और वहां कनिष्ठ अधिकारियों से मिला। उनके उत्साह, प्रशासनिक तंत्र में बदलाव की इच्छा और प्रशासनिक कार्य आसान बनाने में उनकी तकनीकी दक्षता से मैं काफी प्रभावित होता था।
कई चुनौतियां हैं, जिन्हें दूर करने की जरूरत है। बड़ी उम्र में सेवा में आने के कारण अधिकारियों का करिअर छोटा हो जाता है, जिसका असर उनके नजरिए पर होगा। 30 साल या इससे कम कार्यकाल वाले आइएएस अधिकारी का फोकस राज्य की सेवा (जिस राज्य का काडर मिला है) पर होगा, न कि केंद्रीय और राज्य स्तरीय सेवा के मिश्रण पर। सेवा के ढांचे में बार-बार बदलाव भी एक समस्या है। रेलवे की लोक सेवाओं को मिलाकर एक कर देने से गैर-तकनीकी सेवा के अधिकारियों में असंतोष बढ़ सकता है। सीधी भर्ती (लैटरल एंट्री) भी तलवार बन कर लटक रही है।
अधिकारियों के काम के मूल्यांकन और स्थायित्व में अनिश्चितता भी एक समस्या है। जैसे, केंद्र सरकार में वरिष्ठ पदों पर नियुक्ति के लिए एंपैनलमेंट की व्यवस्था लगातार बदलती रहती है। इसमें हाल में जो बदलाव किए गए, उन्हें दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने पूरी तरह खारिज कर दिया था। इन बदलावों से निचले स्तर के अधिकारियों में अनिश्चितता है क्योंकि कोई नहीं जानता कि उनके काम का आकलन कौन और कैसे करेगा। एंपैनलमेंट के नियमों में मर्जी से बदलाव होते हैं जिससे व्यवस्था अनिश्चित और अप्रत्याशित हो जाती है।
राजनीति ने भी सिविल सेवा में पेशेवर अंदाज को कम किया है। मैंने केंद्र में कांग्रेस नीत सरकार और केरल में वाम दलों की सरकारों के साथ काम किया है। दोनों ने मेरे पेशेवर रुख का सम्मान किया। केंद्र में मेरा सबसे अच्छा कार्यकाल वाजपेयी सरकार के मंत्रियों मुरोसोली मारन, अरुण जेटली और अरुण शौरी के साथ रहा। हाल के वर्षों में सिविल सेवा में जो सबसे खराब बात देखने को मिली, वह अधिकारियों को वर्ग, समुदाय या जाति में बांटने की है। साथ ही अधिकारियों को किसी एक काम के लिए स्थिर न होने देना भी है। अगर यह जारी रहा तो प्रशासनिक सेवा के पेशेवर तौर-तरीकों के लिए खतरनाक साबित होगा।
(लेखक केंद्र में कैबिनेट सचिव रहे हैं)