यह सब ऐसे देश में हो रहा है जहां राजनीतिक दल सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आने के खिलाफ लड़ रहे हैं। अभी तक सरकारी एजेंसियां भी खुद सक्रिय होकर जानकारियां सर्वजनिक करने की आदी नहीं हैं और आरटीआई कार्यकर्ताओं को तमाम तरह का उत्पीड़न झेलना पड़ता है। इस तरह के माहौल में एनजीओ पर खुद सक्रिय होकर जानकारियां सरकार को देने का दबाव एक ऐसा कदम है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। क्योंकि पारदर्शिता एक समग्र व्यवस्था है, जिसे टुकड़ों में लागू करना कई तरह के असंतुलन पैदा कर सकता है। इससे एनजीओ पर प्रशासनिक खर्च का बोझ बढ़ना तय है जबकि इससे जवाबेदही बढ़ेगी, इसकी गारंटी नहीं है। जहां तक एनजीओ का सवाल है, सार्वजनिक संस्थाएं होने के नाते इन्हें जनता के प्रति पारदर्शी और जवाबदेह होना ही चाहिए। बहरहाल, इस समय जब नागरिक समाज के संगठन विदेशी फंडिंग की नई व्यवस्था से पर्दा उठने का इंतजार कर रहे हैं कि पारदर्शिता और जवाबदेही की यह नई व्यवस्था किस प्रकार की होगी, कई अहम मुद्दों पर विचार करना जरूरी है। सरकार के पास पहले से एेसे कानूनी उपकरण हैं जो उसके प्रति एनजीओ की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं।
पहला मुद्दा जो इस बहस में पूरी तरह छूट गया है, वह है कि किस प्रकार भारत के आर्थिक विकास की बहस में खुफिया ब्यूरो एक महत्वपूर्ण मध्यस्थ या संभाषी बन गया है। आखिरकार, वह आईबी की रिपोर्ट ही थी जिसमें ग्रीनपीस द्वारा अनुदान प्राप्त एनजीओ को देश के आर्थिक विकास को दो से तीन फीसदी नुकसान पहुंचाने का गुनहगार ठहराया गया था। राष्ट्रीय सुरक्षा और कॉरपोरेट स्वतंत्रता को लेकर जताई जा रही चिंताएं अपनी-अपनी जगह जायज हैं। लेकिन मौजूदा विवाद इन दो चिंताओं के गुत्थम-गुत्था होने का सीधा परिणाम है। इसका एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा यह भी है कि देश में कॉरपोरेट गवर्नेंस को लेकर जायज राष्ट्रीय चिंताएं व्यक्त करना भी और ज्यादा मुश्किल हो जाएगा। एक बार नागरिक समाज अर्थव्यवस्था बिगाड़ने के मामले में बलि का बकरा बना दिया गया तो किसी के लिए भी यह सवाल उठाना मुश्किल होगा कि भारत के कॉरपोरेट घराने शासन की खामियों जैसे आंतरिक कारण और वैश्विक आर्थिक असमानताओं जैसी बाहरी वजह के चलते अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं।
दूसरा मुद्दा जिस तरफ ध्यान नहीं गया है वह है कि सार्वजनिक फंडिंग सिर्फ परोपकार या विकास के लिए ही जरूरी नहीं है। वास्तव में, भारत में विदेशी अनुदान का अच्छा खास हिस्सा तर्कसंगत शोध और ज्ञान के नए परिप्रेक्ष्य तैयार करने और इसके प्रसार में जाता है। भारत में 50 के दशक की शुरुआत से ही फोर्ड फाउंडेशन सामाजिक क्षेत्र खासकर शहरी विकास और नियोजन से जुड़े महत्वपूर्ण शोध के लिए सहायता देता रहा है। आईआईटी और आईआईएम जैसे प्रमुख संस्थानों में विशुद्ध विज्ञानों में फोर्ड फाउंडेशन ने कई तरह की नई पहल में मदद की है। पिछले दो दशक के दौरान अंतरराष्ट्रीय अनुदान एजेंसियों ने महत्वपूर्ण शोध और शिक्षण कार्यक्रमों को सहायता दी है जो आगे चलकर अहम नीतिगत पहल का कारण बने। यह भी सच है कि इस प्रकार की गतिविधियों पर सरकारी खर्च भी पिछले दशक के दौरान कई गुना बढ़ा है। फिर भी, अंतरराष्ट्रीय फंडिंग का मतलब सिर्फ पैसे से नहीं है, बल्कि इससे तमाम तरह की भागीदारी और संवाद की संभावनाएं खुलती हैं। भारतीय परोपकार को संस्था निर्माण और ज्ञान के सृजन से जुड़ी ऐसी गतिविधियों की मदद के लिए जरूरी खुली सोच और प्रतिबद्धता अभी विकसित करनी बाकी है। यह काम सरकार अकेले नहीं कर सकती।
आज जिस तरह का संदेहपूर्ण माहौल बनाया जा रहा है, भारत में पहले भी ऐसी कोशिशें हो चुकी हैं। भारत के राजनैतिक दलों में मौजूद वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी अलग-अलग मौकों पर अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं को अलग-अलग वजह से डरा चुके हैं। लेकिन ऐसे वक्त जब भारतीय परोपकार को व्यापक सामाजिक लोकतांत्रिक जुड़ाव की तलाश करनी बाकी है, सरकारी एजेंसियों के पास नए शोध की क्षमता नहीं है और, सबसे महत्वपूर्ण, जब समाज विज्ञान और प्राकृतिक विज्ञान दोनों में अंतरराष्ट्रीयकरण और वृहत भागीदारी की अहमियत बढ़ती जा रही है, विदेशी अनुदानकर्ताओं का गला घोंटना भारत को कई अच्छी पहल से वंचित कर सकता है।