“ऑर्गेज्म की अनुभूति जितनी शारीरिक है, उससे कहीं अधिक यह सुख मानसिक संतुष्टि से जुड़ा है। देह सुख को मन या दिमाग से अलग कर पाना कठिन है”
पितृ सत्ता के विभिन्न अवयवों- धर्म, समाज, परिवार आदि के जरिये सदियों से स्त्री पर पूर्ण आधिपत्य के लिए उसकी यौनिकता का दमन होता आया है। स्त्री की देह पर अंकुश लगाकर, उसकी सहज मानवीय इच्छाओं को नियंत्रण में रख पुरुष की तुलना में उसे दोयम दर्जे का नागरिक बना कर रखना सभ्य कहे जाने वाले समाज की सुनियोजित रणनीति रही है। इसलिए ताकि वंश, परिवार और समाज की शुद्धता कायम रहे, पितृ सत्ता का एकछत्र अधिकार बना रहे। स्त्री सशक्तीकरण के लिए सदियों के निरंतर संघर्ष के बाद स्त्रियों ने न सिर्फ शिक्षा, आर्थिक समानता, परिवार में श्रम का विभाजन, राजनीतिक अवसरों की समानता आदि प्राप्त की बल्कि अपनी देह पर पूरे अधिकार के लिए भी मुखर हुईं। क्योंकि वे स्पष्ट देख पा रही थीं कि किस तरह उनकी देह को ही उनका कारागार बना दिया गया। देह मुक्ति के साथ चयन के अधिकार की मांग भी लगातार उठती रही, जो अब भी जारी है। हालांकि जिस तरह से मुक्ति शब्द भ्रामक है, चयन का अधिकार भी अपने अंदर कई प्रश्न समेटे हुए है। पितृ सत्ता चालाक और ताकतवर है। सदियों से उसकी कोशिश रही है कि वह स्त्री को देह तक सीमित रखकर हर तरह से उसका उपभोग करता रहे। पितृ सत्ता नहीं चाहती कि स्त्री भी समान मस्तिष्क की तरह कभी विकसित हो।
उसने बड़ी चालाकी से अपने फायदे के लिए स्त्रियों को उनकी मुक्ति और चयन के अधिकार का भ्रम देकर शोषण का नया तंत्र विकसित कर लिया। स्त्रियों के शरीर को हमेशा से उत्पाद की तरह इस्तेमाल करने वाला बाजार, अब स्त्री यौनिकता से जुड़े संवेदनशील मुद्दों को भी अपने व्यावसायिक फायदे के लिए भुनाने में लगा है। देह मुक्ति और शोषण के बीच का यह अंतर इतना सूक्ष्म है कि स्त्री को पता ही नहीं चलता कि कब वह खुद को एक और नारकीय कारागार में कैद कर लेती है, जहां उसे मनुष्य की तरह नहीं, सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह इस्तेमाल किया जाने लगता है।
हाल ही ऑर्गेज्म पर छिड़ी बहस नई नहीं है। इसमें सिर्फ स्त्री यौनिकता के प्रश्न समाहित नहीं, बल्कि उसके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव भी शामिल हैं। इन मुद्दों को बाजार और त्वरित सफलता पाने की महत्वकांक्षा के तहत भुनाने से भरसक बचते हुए इन पर संजीदगी से विचार और संवाद किए जाने की जरूरत है।
साथ ही यह भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि चयन के अधिकार के तहत एक मुक्तचेत्ता स्त्री की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए, जिससे गांव-कस्बों की वंचित स्त्रियों को भी अधिकतम लाभ मिल सके। अभी हमारे समाज में स्त्रियों को शिक्षा, पसंद का जीवनसाथी चुनने, पौष्टिक भोजन, प्रसूति और स्वास्थ्य सुविधा, नौकरी आदि तक की आजादी नहीं है। आज भी यहां प्रेम करने के लिए स्त्रियों को सरेआम मौत के घाट उतार दिया जाता है। ऐसे समाज में विवाहेतर संबंध वाले डेटिंग ऐप पर ‘ऑर्गेज्म’ खोजने, जहां से भी मिले वहां से शारीरिक सुख ले लेने की मानसिकता क्या उन लाखों लड़कियों के आगे बढ़ते कदमों पर जंजीर नहीं लगवा देंगी, जो मुश्किल से पढ़ने-लिखने की स्वतंत्रता पा सकी हैं। कहीं ऐसा न हो कि स्त्रीवाद के इस अराजक स्वरूप से डरा निम्न या आम मध्यम वर्गीय परिवार अपनी बेटी या बहन की सामान्य आजादी पर भी सात ताले जड़ दे।
यह अच्छी बात है कि अब स्त्रियां भी शारीरिक सुख के लिए सजग हो रही हैं और लेकिन यह सुख पाने का सबसे बेहतर तरीका है साथी के साथ स्वस्थ संवाद, समझदारी या जरूरत पड़ने पर सेक्सलॉजिस्ट/काउंसलर की सलाह। देह सुख की सीमा क्या हो, यह स्वस्थ समाज को तय करना होगा। इसमें परिवार और जीवनसाथी के प्रति प्रतिबद्धता दोनों जेंडर पर समान रूप से लागू है। यदि किसी कारणवश दैहिक इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती, तो उसका निवारण कम से कम डेटिंग साइट पर बने अवैध संबंध तो कतई नहीं हो सकते। यह तो एक नए शोषण तंत्र का आरंभ ही होगा।
ऑर्गेज्म की अनुभूति जितनी शारीरिक है, उससे कहीं अधिक यह सुख मानसिक संतुष्टि से जुड़ा हुआ है। देह सुख मन या दिमाग से अलग कर पाना कठिन है, खासकर स्त्रियों के लिए। अमूमन स्त्रियां उसी साथी के साथ देह सुख की अनुभूति कर पाती हैं, जो उनके मन को समझता हो, उसकी जरूरतों के लिए संवेदनशील हो और अपनी पार्टनर को बराबरी का मनुष्य मानता हो। प्रेम और समझदारी से पनपे ऐसे संबंध ही स्त्री-पुरुष को एक धरातल पर ला सकते हैं, उनके बीच स्वस्थ मानसिक और शारीरिक संवाद स्थापित कर सकते हैं।
लेखिका सिल्विया प्लाथ ने अपने जर्नल में स्त्रियों के इस मानसिक जुड़ाव पर बेहद सुंदर लिखा है, “हां, मैं तुम्हारे प्रति आसक्त थी। अब भी हूं। इससे पहले किसी ने मुझमें ऐसी शारीरिक अनुभूति नहीं जगाई थी। मैंने तुम्हें दूर किया क्योंकि मैं समय गुजारने वाली चीज नहीं बनना चाहती थी। इससे पहले कि मैं तुम्हें अपना शरीर दूं, मेरा तुम्हें अपने विचार, अपना दिमाग, अपने सपने देना जरूरी है और तुम्हारे पास इनमें से कुछ भी नहीं था।”
सिल्विया प्लाथ का यह द्वंद्व हर मुक्तिकामी आधुनिक स्त्री का द्वंद्व है, जो देह और दिमाग के संघर्ष में उसे अपनी अस्मिता, अपने स्वाभिमान को बचा लेने के चयन को बाध्य करता है। तब उसे यह फर्क करना भी आ जाता है कि किस तरह से पितृ सत्ता की पूरी मशीनरी उसकी देह को प्लेजर टूल में बदलने के लिए लगी हुई है। ये बड़ी चालाकी से उसे व्यक्ति से सिर्फ देह में रिड्यूस कर देती है। वह भी उसकी स्वाभाविक कामनाओं और अधिकारों का सहारा लेकर। यह बहुत सूक्ष्म शोषण है, जिसे स्त्री जब तक समझती है, वह टूल में तब्दील हो चुकी होती है। पितृ सत्ता को ऑर्गेज्म देने वाला टूल!
चयन और अपनी अस्मिता का यह बोध भी मानसिक सशक्तीकरण से ही संभव है, जिसका एकमात्र रास्ता किताबें हैं। मुक्तिकामी स्त्री (अमूमन) किसी को सिर्फ देह से नहीं बल्कि अपने दिमाग, सपनों, संपूर्ण विचार के साथ प्रेम करती है। शरीर सुख की आकांक्षा उसे लुभा सकती है, लेकिन रोक नहीं सकती। उसके लिए यह ज्यादा जरूरी है कि शरीर के साथ उसके मन, दिमाग और सपनों को भी अपनाया जाए।
यही वास्तविक (मानसिक) ऑर्गेज्म है। जो दिमाग और भावनाओं के संपूर्ण निवेश के बिना असंभव है। किताबें और कलाएं हमारी यौनिक इच्छाओं का उद्दातीकरण करती हैं, हमें पशुओं से अलग बनाती हैं। वासना स्वाभाविक मानवीय पहलू है। वह प्रेम के बिना भी सक्रिय और संतुष्ट हो सकता है। लेकिन दिमागी ऑर्गेज्म जो कहीं उद्दात, कहीं वृहत भाव है, किसी से संपूर्ण एकाकार के अभाव और प्रेम के बिना असंभव है।
स्त्रियों को इसी चरम सुख के लिए लड़ना चाहिए। समुचित शिक्षा ही स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए सचेत करती है। उन्हें यह दृष्टि देती है कि वे अपनी यौनिकता के अधिकारों के संघर्ष का किसी को दुरुपयोग न करने दें। अब तक हमारे देश में औरतों को पढ़ने-लिखने, मनचाहा करिअर चुनने तक की आजादी नहीं है। जब यह सब मिल जाए, तो मनचाहा साथी चुनने का हक मांगें। यदि साथी मनवांछित न हो तो गरिमापूर्ण तरीके से तलाक लेकर अलग हो जाएं और अपने मन मुताबिक जीवन जिएं।
रिश्तों में प्रतिबद्धता और नैतिकता इतनी घिसी हुई चीज भी नहीं। यदि विवाह/सहजीवन चुना है, तो रिश्ते की गरिमा का निर्वाह स्त्री-पुरुष दोनों को करना चाहिए। साथी को धोखा देकर, बाहर सुख तलाशकर सिर्फ रिश्तों की गरिमा नहीं, साथी की अस्मिता का भी हनन होता है। ऐसा करने का अधिकार न स्त्री को है न पुरुष को। यदि रिश्ते से कोई संतान हो, तो उसके जीवन पर कभी न मिटने वाला नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
सदियों के संघर्ष के बाद स्त्री ने ज्ञान भवन के विशालकाय लौह पट्ट पर पड़ी श्रृंखलाएं खोल तो ली हैं लेकिन वह अब भी वहां उन्मुक्त होकर विचरण नहीं कर पा रही। अब भी मुक्ति की वास्तविक चाबी वहीं कैद है।
(मैंने अपनी मां को जन्म दिया (काव्य संग्रह) और वो साल चौरासी था (उपन्यास) की लेखिका। विचार निजी हैं)