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मेरी मां से मुझ तक पहुंची शशि की मुस्कराहट

शशि कपूर को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलना बहुत ही सुखद है। वह भले ही फिल्मी दुनिया के प्रचलित शब्द सुपर सितारे नहीं थे पर सितारे तो थे ही। उनकी फिल्मों से दर्शक जुड़े क्योंकि लोग उनके सहज अभिनय के कायल थे
मेरी मां से मुझ तक पहुंची शशि की मुस्कराहट

फिल्मी खानदान से न होने के बाद भी मैं कह सकती हूं कि फिल्में मेरी रगों में दौड़ती हैं। यह शायद मां की वजह से ही है। आज जब खबर आई कि शशि कपूर को फिल्मी दुनिया का सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के सम्मान मिलने की घोषणा हुई तो एक वाकया याद आ गया, हमारे यहां टेलीविजन नहीं था और दूरदर्शन के सुनहरे दौर में टीवी पर कन्यादान फिल्म दिखाने की घोषणा हुई थी। मां कभी किसी के यहां टीवी देखने नहीं जाती थीं, लेकिन उस रविवार वह पड़ोस में टीवी देखने गईं क्योंकि उनके पसंदीदा नायक शशि कपूर उसमें हीरो थे। मेरी याददाश्त में मैंने भी शायद शशि कपूर की वह पहली ही फिल्म देखी थी, जो मेरे जहन में रह गई थी। मेरे भाई ने यूं ही पूछा, ‘मां आप कैसे फिल्म देखने चली गईं।’ मुझे आज भी मां का चेहरा याद है, उन्होंने बहुत शरारत से मुस्करा कर कहा, ‘क्योंकि मुझे शशि कपूर बहुत पसंद है।’

उससे पहले मुझे सच में मां की पसंद का अंदाजा नहीं था। उनकी दिलकश मुस्कराहट की मैं भी कब मुरीद बन गई पता ही नहीं चला। मां से लेकर मुझ तक शशि कपूर ने बराबरी से दिल पर राज किया। सालों बाद जब मैंने उमराव जान देखी तो मां से कहा, इसमें फारुख शेख के बदले शशि होते तो भी अच्छा लगता न मां। वह ऐसे संजीदा भूमिकाएं भी कितनी आसानी से कर लेते हैं। 36 चौरंगी लेन, दीवार के बाद मुझे जिस भूमिका ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया था, वह थी सत्यम शिवम सुंदरम। मैंने इसे पता नहीं कितनी बार देखा और हर बार मुझे लगा, सुंदरता के प्रति दीवानापन यदि किसी में इस तरह से हो तो क्या वह सामान्य है। इसी असामान्य भूमिका को उन्होंने इतनी विश्वसनीयता से निभाया कि मुझे सबसे ज्यादा यही फिल्म पसंद है।

अमिताभ बच्चन के साथ सुहाग, काला पत्थर, कभी कभी, दो और दो पांच और सिलसिला से ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि फिर लगभग उनकी सभी फिल्में मैंने देखी। एक सहज अदाकारी के साथ एक पर एक चढ़े दांतों की पंक्ति जब झिलमिलाती थी, तब सच में दिल में कुछ कुछ होता था। उस वक्त भी बहुत से सितारे थे, अब भी बहुत से सितारे हैं, पर शशि कपूर की बात इसलिए अलग थी क्योंकि वह मुझे कभी अभिनय करते हुए से दिखाई नहीं देते थे। मैं उनकी मुस्कराहट और संवाद अदायगी को बहुत पसंद करती हूं। एक मासूम सा चेहरा जिसे न्यू दिल्ली टाइम्स के लिए श्रेष्ठ नायक का राष्ट्रीय अवॉर्ड मिला, जिनकी बोलती आंखे, और माथे पर झूलती लट ने फिल्मों में अभिनेता के एक अलग रूप को परिभाषित किया। ऐसे शशि कपूर को दादा साहब फाल्के भले ही देर से मिला हो, पर ठीक है, देर आए दुरुस्त आए। 

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