क्या कहता है कानून
संविधान के अनुच्छेद 262 के अनुसार अंतर राज्यीय नदियों (जिन राज्यों से नदी गुजरती है) वाले राज्यों में अगर जल बंटवारे को लेकर विवाद हो तो उसपर संसद कानून बना सकती है। वर्ष 1956 में इंटरस्टेट रिवर वाटर डिस्पयूट एक्ट-1956 बनाया गया। उसकी पहली लाइन यही है कि- अंतर-राज्यीय नदियों के झगड़े निपटाने के लिए भारत सरकार का बनाया ट्रिब्यूनल फैसला करेगा। संविधान में साफ लिखा है कि जो नदियां जिन राज्यों से गुजरती हैं उनपर उन राज्यों का अधिकार है।
कानून यह भी कहता है कि उन नदियों के जल बंटवारे संबंधी विवाद को वही राज्य सुलझाएंगे जिन राज्यों से नदी गुजरती है। केंद्र सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है। शेड्यूल-7 के तहत तीन प्रकार की सूचियां हैं। पहली सूची उन कामों की है जिनपर सिर्फ केंद्र सरकार को कानून बनाने का अधिकार है। सूची-2 के तहत राज्य के विषय निर्धारित किए गए हैं, जिनपर सिर्फ राज्य सरकार कानून बना सकता है। तीसरी सूची में वे विषय शामिल हैं जिनपर केंद्र और राज्य सरकारें दोनों कानून बना सकती हैं। अगर केंद्र सरकार कानून बनाती है तो राज्य सरकार का कानून नहीं मान्य नही होगा।
जो नदियां हिमाचल प्रदेश से आती हैं उन नदियों पर पूरी तरह से हिमाचल प्रदेश का अधिकार है। लेकिन उनका यह अधिकार नहीं है कि वे उनका पानी प्रदेश में ही रख लें। हां, हिमाचल सरकार उनपर बांध बनाकर बिजली पैदा सकती है। नदी बहती है। पंजाब आने पर उस नदी के वही अधिकार पंजाब के हो जाते हैं। केंद्र सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है। जब भी दो राज्य बंटते हैं तो केंद्र सरकार उनकी जमीन, कार्यालय, इनसे संबंधित चीजें तो बांट सकती है लेकिन वह पानी का बंटवारा नहीं कर सकती। जैसे ही राज्यों का पुर्नगठन होता है तो नए राज्य के लिए फौरी तौर पर प्राकृतिक संसधानों का इंतजाम केंद्र सरकार कर देती है। लेकिन वे हमेशा के लिए नहीं होते हैं।
तंगभद्रा प्रोजेक्ट की नक्ल है एसवाईएल
वर्ष 1953 में मद्रास और आंध्र प्रदेश के बीच कृष्णा नदी पर बने तुंगभद्रा प्रोजेक्ट के पानी का बंटवारा किया गया लेकिन ये दोनों रिपेरियन स्टेट हैं। मैं साफ तौर पर कहना चाहता हूं कि केंद्र सरकार को पानी बांटने का अधिकार नहीं है। ये राज्यों का विषय है। केंद्र सरकार प्रोजेक्ट बांट सकती है। (नदियों पर लगे प्रोजेक्ट) अब हुआ यह कि जब 1966 में जब हरियाणा पंजाब से अलग हुआ तो संविधान के अनुच्छेद –66 के तहत आंध्रा स्टेट एक्ट (तंगभद्रा प्रोजेक्ट) को पंजाब-हरियाणा पर हुबहू लागू कर दिया गया। कांगजों में सिर्फ तुंगभद्रा की जगह पर अधिकारियों ने भाखड़ा लिख दिया। पंजाब-हरियाणा के बीच नदी जल का बंटवारा पूरी तरह से तुंगभद्रा जल बंटवारे की नकल था। अधिकारी यह भूल गए या वे ज्यादा मेहनत नहीं करना चाहते थे कि पंजाब और हरियाणा मद्रास और आंध्र प्रदेश की तरह रिपेरियन राज्य नहीं हैं। इस कानून को मैं बाबूओं का बनाया कानून कहूंगा। अनुच्छेद 78 पुराने बने तुंगभद्रा कानून की नक्ल है।
कैसे हुई कानून की अनदेखी
कानून में यह प्रावधान है कि नदी जिन राज्यों से होकर गुजरती है, उस जल बंटवारे या विवाद संबंधी बैठकों में उन राज्यों को बुलाना जरूरी है। जैसे एसवाईएल विवाद संबंधी सभी बैठकों में हिमाचल प्रदेश और चंडीगढ़ (यूनियन टेरेटरी) को बुलाया जाना जरूरी था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। जबकि चंडीगढ़ को रोजाना 8 करोड़ गैलन पानी चाहिए और हिमाचल के पंजाब के साथ लगते मैदानी इलाकों को भी पानी चाहिए।
किस पानी का झगड़ा है दोनों राज्यों के बीच
दरअसल वर्ष 1947 तक रावी और ब्यास दोनों नदियां का पानी पाकिस्तान जाता था। वर्ष 1955 में भारत-पाकिस्तान के बीच नदियों का बंटवारा हो गया और रावी-ब्यास नदियां भारत के हिस्से आ गईं। इस तरह इनका सरपल्स एक करोड़, 58 लाख, 50,000 एकड़ फुट पानी उत्तर भारत के राज्यों को बांट दिया गया। अब 1966 में जब हरियाणा का गठन हुआ तो रावी और ब्यास का पंजाब के हिस्से आ रहा 72 लाख एकड़ फुट सरप्स पानी को लेकर दोनों राज्यों में विवाद हुआ। हरियाणा का कहना था कि इस पानी से उसे भी हिस्सा चाहिए।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की भूमिका
उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी। हरियाणा के बंसीलाल उनकी सरकार में डिफेंस मिनिस्टर थे। वह इंदिरा गांधी के करीबी भी थे इसलिए उन्होंने इंदिरा गांधी के जरिये पंजाब और हरियाणा के बीच रावी और ब्यास नदियों के विवादित सरप्लस पानी के बंटवारे पर 24 मार्च 1976 को एक समझौता करवा लिया कि इन दोनों नदियों के कुल 72 लाख एकड़ फुट के सरप्लस पानी में से 35 लाख एकड़ फुट पानी पंजाब को, 35 लाख एकड़ फुट हरियाणा को और 2 लाख एकड़ फुट पानी दिल्ली को दिया जाएगा।
क्यों सुप्रीम कोर्ट गई पंजाब सरकार
अब सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब सरकार से हरियाणा को उसके हिस्से का पानी देने के लिए नई नहर बनाने के लिए कहा। इस नहर को एसवाईएल कहते हैं। इसपर पंजाब ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि 25 मार्च 1976 वाला केंद्र सरकार का फैसला गलत है। कोर्ट में यह मामला दो साल तक चलता रहा। अब हरियाणा में कांग्रेसी नेता भजनलाल की सरकार थी। शिव शंकर उस समय केंद्रीय कानून मंत्री होते थे। पंजाब के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह थे। भजनलाल भी इंदिरा गांधी के खासमखास थे। उन्होंने इंदिरा गांधी के जरिये दरबारा सिंह पर दबाव डलवाकर यह कहा कि पंजाब सरकार सुप्रीम कोर्ट से अपना केस वापस ले। हालांकि इसपर दरबारा सिंह ने आनाकानी की। लेकिन इसपर उनसे इस्तीफा मांग लिया गया। दरबारा सिंह को उनके शुभचिंतकों ने कहा कि अगर वह इस्तीफा दे भी देंगे तो नया मुख्यमंत्री तो सुप्रीम कोर्ट से केस वापस ले ही लेगा। इसके बाद 31 दिसंबर 1981 को इस संबंध में एक नया समझौता हुआ। पुराने 24 मार्च 1976 वाले फैसले को बाकायदा समझौता बना दिया गया।
अकाली दल और भिंडरावाला की भूमिका
आठ अप्रैल 1982 को इंदिरा गांधी ने पंजाब में कपूरी के पास एसवाईएल का नींव पत्थर रखा। नहर का काम शुरू हो गया। लेकिन इसके खिलाफ अकाली दल ने 8 अप्रैल 1982 को कपूरी में धरना दे दिया। उसी वक्त अमृतसर में एक बम विस्फोट हुआ जिसमें तीन लोग मारे गए। भिंडरावाले के साथी को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे नाराज भिंडरावाले ने भी केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा लगा लिया। अब एसवाईएल के खिलाफ अकाली दल और भिंडरावाले दोनों ने सरकार के खिलाफ सांझा मोर्चा लगाया जिसे धर्मयुद्ध मोर्चा का नाम दिया। इसके दो मुख्य बिंदू थे। पहला कि चंडीगढ़ पंजाब को दिया जाए और दूसरा कि एसवाईएल नहर नहीं बनाई जाए। पंजाब में फिर आतंकवाद आ गया। लौंगोवाल समझौता हुआ। कुछ सालों बाद नहर का काम फिर से शुरू हो गया। लेकिन आतंकवादियों ने नहर का काम कर रहे 35 मजदूरों की हत्या कर दी। चंडीगढ़ में एक चीफ इंजीनियर और सुपरिटेंडेंट इंजीनियर की हत्या कर दी गई। उसके बाद सात साल नहर का काम बंद रहा। फिर पंजाब में अमन शांति कायम हो गई। 15 जून 2002 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चूंकि एसवाईएल का तीन फीसदी काम बाकी रहता है इसलिए एक साल के अंदर उसे पूरा किया जाए। एक साल खत्म होने से ठीक 15 दिन पहले 15 जनवरी 2003 को पंजाब सरकार ने अदालत में दरख्वास्त दी कि वह नहर का काम पूरा नहीं कर सकती है। 4 जून 2004 को अदालत ने कहा कि पंजाब सरकार नहीं बना सरकती है तो उसे केंद्र सरकार बनाए।
कैप्टन अमरिंदर सिंह ने रद्द करवाए सभी समझौते
इस बीच उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने 12 जून 2004 को एक कानून बनाया जिसे टरमिनेशन ऑफ एग्रीमेंट एक्ट कहा जाता है। यानी पुराने सभी समझौते रद्द। केंद्र सरकार ने यह एक्ट राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दिया कि क्या यह सही है? (केंद्र सरकार के पास कानूनी हक है कि अगर उसे राज्यों के बनाए किसी कानून पर शक हो तो वह उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकती है।) राष्ट्रपति के पास 12 साल मामला पड़ा रहा। अब उसी कानून पर फिर से विचार हो रहा है। यहां तक कि पंजाब सरकार ने तो हाल ही में एसवाईएल के लिए लोगों से ली जमीन उन्हें वापस कर दी है। इसपर राज्यपाल की मोहर लगनी अभी बाकी है।
(लेखक रिटायर्ड पीसीएस अधिकारी हैं और नदी जल बंटवारे विषय के माहिर हैं)