क्या मोदी सरकार अपने पहले बड़े संवैधानिक संकट की ओर बढ़ रही है? अब जरा शब्दों के इस तीखे आदान-प्रदान की कुछ बानगी देखिए:
- न्यायमूर्ति जे. एस. केहर: आप नहीं कह सकते कि वर्तमान व्यवस्था पारदर्शी नहीं हैं?
- न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ: क्या यह ढांचा आधारित सौदेबाजी है? पहली पांत में एक व्यक्ति अनुसूचित जाति का होगा, दूसरी पांत में एक व्यक्ति अनुसूचित जनजाति का होगा, फिर एक अल्पसंख्यक होगा, वगैर
- न्यायमूर्ति मदन लोकुर: क्या सरकार सुझा रही है कि 9 जजों की पीठ का निर्णय गलत था?
- पीठ: पक्षधरों को नियुक्ति प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लेना चाहिए... हर चीज में सरकार एक पक्षकार है (वादी अथवा प्रतिवादी)।
- पीठ: क्या संसद जजों का वेतन 1 रुपये तय करने का कानून बना सकती है?
महान्यायवादी मुकुल रोहतगी: तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश (अल्तमश कबीर) की बहन को हाईकोर्ट का जज क्यों बनाया गया?
एनजेएसी विधेयक संसद के दोनों सदनो ने अगस्त में सर्वसम्मति से बिना किसी बहस के पारित किया था। तबसे अबतक 15 राज्य विधानसभाएं एनजेएसी के गठन से संबंधित संविधान संशोधन विधेयक का अनुमोदन भी लगभग बिना किसी बहस के कर चुकी हैं। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने 2014 के आखिरी दिन उसे अपनी सहमति दे दी और संबद्ध कानून 13 अप्रैल 2015 को अधिसूचित कर दिया गया। फिर भी इस अधिनियम का कड़ा विरोध हो रहा है। तेजतर्रार कानूनी विशेषज्ञ इसकी कमियों की चीरफाड़ कर रहे हैं। फली नरीमन ने इसे मृतजात (मृत पैदा शिशु) कानून कहा है। राम जेठमलानी को आयोग के छह सदस्यों में कानून मंत्री के शामिल किए जाने पर आपत्ति है। प्रशांत भूषण इस बात पर चकित हैं कि भला कैसे जजों की नियुक्ति में राज्य का नियंत्रण न्यायपालिका की स्वतंत्रता बचा पाएगा। राजीव धवन ने ध्यान दिलाया है कि कॉलिजियम व्यवस्था के मुकाबले एनजेएसी न तो ज्यादा पारदर्शिता बरत पाएगा, न ज्यादा जवाबदेही। सरकार के वरिष्ठतम कानून अधिकारी अॅटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी एनजेएसी कानून की वैद्यता पर विचार कर रही 5 सदस्यों की पीठ के खोजी प्रश्नों का जवाब देते-देते परेशान हैं। जो कानून ज्यादा से ज्यादा बुरी तरह प्रारूपित लग रहा है, उसके बचाव में बेकफूट पर जाने को मजबूर रोहतगी ने कॉलिजियम व्यवस्था पर चौतरफा हमला बोल दिया है। कॉलिजियम व्यवस्था के सिलसिले में उन्होंने जबरदस्त हमला बोलते हुए न्यायपालिका पर एकतरफा, पूर्वाग्रहग्रस्त और गोपनीय नियुक्तियां करने का आरोप लगाया है।
सुप्रीम कोर्ट पीठ ने रोहतगी से बार-बार सफाई मांगी है कि कैसे एनजेएसी एक बेहतर विकल्प है, कैसे उसके सदस्य ज्यादा ‘जवाबदेह होगें’ और किसके प्रति। प्रधान न्यायाधीश सहित आयोग के जज सदस्यों को वीटो का वही अधिकार नहीं दिया गया है जो अन्य सदस्यों को मिला है? अगर दोनों तरफ बराबर मत पड़े तो क्या होगा? अगर रिटायर जजों और अफसरों की सदस्यता वाले न्यायाधिकरणों में न्यायिक सदस्यों की राय को प्राथमिकता दी जा सकती है तो इन एनजेएसी में क्यों नहीं? दो गणमान्य सदस्यों का चयन कैसे होगा और उनके लिए कानून का जानकार होने की योग्यता क्यों नहीं रखी गई है? उनसे भिड़ते हुए रोहतगी ने प्रतिवाद किया है कि न्यायमूर्तियों का काम न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं हैं। संविधान स्पष्ट कहता है कि यह अधिकार राष्ट्रपति और सरकार के ही पास है। हालांकि इसे न्यायपालिका ने 1993 में हथिया लिया और 1998 में उसका पुन: अनुमोदन भी कर दिया। रोहतगी ने कहा कि इन दोनों पिछले फैसलों की समीक्षा उनसे भी बड़ी एक पीठ को करनी चाहिए? तुनककर न्यायमूर्ति केहर ने रोहतगी को याद दिलाया कि जिस 1993 के निर्णय पर वह सवाल उठा रहे हैं उसे कोई चुनौती नहीं दी गई। अटार्नी जनरल को याद दिलाया गया कि पिछली एनडीए सरकार ने ही सुप्रीम कोर्ट के पास 1998 में राय के लिए राष्ट्रपति का प्रतिवेदन भेजा था। और एनडीए की पिछली सरकार ही थी जिसने तत्पश्चात सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला स्वीकार किया जो सुप्रीम कोर्ट के 1993 के निर्णय का अनुमोदन करता था। इससे कॉलिजियम प्रणाली और भी सशक्त हुई। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने टिप्पणी की, 'यदि हर सरकार परिवर्तन के साथ अंतिम रूप से मान्य न्यायिक निर्णयों पर फिर सवाल उठाए जाने लगे तो यह एक खतरनाक परंपरा होगी।’
शुरू में सरकार आत्मविश्वास से लबरेज लग रही थी। पिछले वर्ष अगस्त में पास होने के तुरंत बाद बिल को चुनौती दी गई थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए उसपर सुनवाई नहीं की कि यह जल्दबाजी होगी। कानून अस्तित्व में आने के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई का फैसला किया तो भी उसने एनजेएसी के क्रियान्वयन पर कोई स्थगन आदेश नहीं दिया। लेकिन फिर सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड समय में संविधान पीठ का गठन कर सरकार को चौंका दिया। पीठ ने बिना किसी अंतराल के बहस सुननी भी शुरू कर दी। सरकार को एक अन्य झटका तब लगा जब प्रधान न्यायाधीश एचएलदत्तू ने आयोग के दो गणमान्य सदस्यों के चयन के लिए प्रधानमंत्री और सबसे बड़े विपक्षी दल के साथ एक बैठक में शामिल होने से बना कर दिया। गंभीर रोहतगी ने प्रधानमंत्री के नाम प्रधान न्यायाधीश का खत प्रस्तुत करते हुए पीठ से मांग की कि वह दत्तू को बैठक में शामिल होने का निर्देश दें। रोहतगी ने दलील दी कि एक अधिसूचना से आयोग अस्तित्व में आया था इसलिए चयन प्रक्रिया में भाग लेने के लिए प्रधान न्यायाधीश बाध्य हैं। वह देश के कानून की अवहेलना नहीं कर सकते। लेकिन प्रधान न्यायाधीश की राय थी कि कानून की वैद्यता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के निपटारे तक प्रक्रिया में शामिल होना उनके लिए अनुपयुक्त होगा। अदालत ने पूछा, 'यदि कानून को असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया गया तो गणमान्य लोगों का क्या होगा?’
बहस शुरू होने के 3 हफ्ते बाद भी दोनों में से कोई पक्ष पीछे हटने केा तैयार नहीं है। कहीं हम किसी संवैधानिक संकट की तरफ तो नहीं बढ़ रहे हैं?