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संविधान दिवस: फिर से एक स्वांग !

क्या संविधान दिवस महज एक और जुमलेबाजी है?
संविधान दिवस: फिर से एक स्वांग !

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 नवंबर को पावन भावनाओं का इजहार करते हुए भारतीय संविधान को अपनी सरकार का एकमात्र पवित्र ग्रंथ बताया। छब्बीस नवंबर अब आधिकारिक तौर पर संविधान दिवस नामित किया गया है। लेकिन 26 जनवरी, जिस दिन आधिकारिक तौर पर संविधान अस्तित्व में आया, के बजाय 1949 में जिस दिन संविधान को अंगीकृत किया गया उस दिन जश्न मनाने के पीछे तर्क क्या था? सीपीआई (एम) के सीताराम येचुरी ने राज्यसभा में यह बेहद अहम सवाल उठाया।

कुछ लोग इसे भारतीय संविधान के जनक माने जाने वाले बीआर आंबेडकर जिनकी इस वर्ष 125 वीं जयंती है, की विरासत पर दावा जताने की भारतीय जनता पार्टी की कोशिश करार दे सकते हैं। लेकिन अगर हम सरकार की इस पहल को उदारता से लें तो भी आंबेडकर और संविधान निर्माण की प्रक्रिया पर प्रधानमंत्री के प्रतिपादन में बहुत सारी असंगत ध्वनियां थीं। 

जिस तरह सरकार के स्वच्छ भारत अभियान ने गांधी को साफ-सफाई और स्वच्छता के महज एक ही मुद्दे तक सीमित कर दिया, वैसे ही मोदी का भाषण आंबेडकर को जटिलताविहीन करता है। मोदी ने एक बात आंबेडकर के बारे में यह कही, ‘उन्होंने अपने जीवन में इतने अत्याचार और अपमान का सामना किया कि अगर उनकी जगह कोई और साधारण व्यक्ति होता, तो वह द्वेषपूर्ण हो गया होता। लेकिन उन्होंने बदले की कोई भावना नहीं रखते हुए महानता दिखाई। उन्होंने हर किसी से जुड़ने का प्रयास किया। संविधान अमृत की तरह है’। मोदी का आलंकारिक भाषण आंबेडकर को एक परोपकारी के रूप में सामने लाता है जिनका उद्देश्य केवल प्यार और खुशी फैलाना था। यह उस व्यक्ति का व्यंग्यचित्र बनाने के समान है जो अछूतों के अधिकार के लिए लड़ने वाला मुजाहिद और हिंदुत्व के रीती रिवाजों का हठी आलोचक था। उदाहरण के तौर पर, धर्म के बारे में आंबेडकर के क्या विचार थे, 1936 में छपे एनिहीलेशन ऑफ कास्ट में देखें: ‘यह हिंदु धर्म क्या है? क्या यह सिद्धांतों का एक समूह है या यह नियमों की धर्मसंहिता है। हिंदु धर्म जैसा वेदों और स्मृतियों में निहित है केवल बलि संबंधी, सामाजिक, राजनीतिक और स्वच्छता के नियमों और विनियमों का एक उलझा हुआ ढेर है। हिंदुओं द्वारा जिसे धर्म कहा जाता है वह कुछ और नहीं बल्कि आदेशों और निषेधों का झुंड है’।    

आंबेडकर की गांधी से असहमति, खासकर जाति व्यवस्था और अछूतों को अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित करने को लेकर निस्संदेह सर्वविदित थी। लेकिन यह गांधी के बारे में आंबेडकर के विचारों का उल्लेख करने में महत्वहीन है। ‘गांधीवाद’ नाम से एक लेख में आंबेडकर ने लिखा, ‘कहा जा सकता है कि गांधी जाति के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन गांधी यह नहीं कहते हैं कि वह वर्ण व्यवस्था के खिलाफ हैं। और माननीय गांधी की वर्ण व्यवस्था क्या है? यह बस जाति व्यवस्था का एक नया नाम है और यह जाति व्यवस्था की तमाम खामियों को बरकरार रखे हुए है’। फिर भारत में भारतीयों के शासन से भी उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं है, ‘क्या जो जानता है कि भारत में शासक वर्ग के दृष्टिकोण, परंपरा और सामाजिक दर्शन का जो स्वरूप है उसे देखते हुए कांग्रेस शासित संप्रभु भारत हमारे आज के भारत से अलग हो जाएगा?’

यह उत्कट भावना भारतीय संविधान पर उनके काम के मूल में है। अगर मोदी ने आंबेडकर के व्यक्तित्व को गलत समझा है, तो संविधान निर्माताके तौर पर सिर्फ आंबेडकर से ही रेखांकित करने के मामले में भी वह सही नहीं है। किसी विदेशी विद्वान का दुर्लभ हवाला देते हुए मोदी ने ग्रैनविल ऑस्टिन के मार्गदर्शक काम का उल्लेख केवल उनकी यह राय बताने के लिए की कि भारतीय संविधान एक सामाजिक दस्तावेज है। यह वही ऑस्टिन थे जिन्होंने लिखा था कि जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और अबुल कलाम आजाद, संविधान सभा के ‘चार नेता’ थे और वे संविधान सभा के भीतर एक प्रभावशाली समूह थे। इन चार नेताओं के साथ ऑस्टिन ने आंबेडकर, के.एम.मुंशी और अन्य सहित 16 और लोगों को संविधान सभा के सबसे प्रभावशाली सदस्यों के तौर पर बताया। निस्संदेह ऑस्टिन ने आंबेडकर और हिंदू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं को संविधान सभा में लाने के लिए कांग्रेस पार्टी को श्रेय दिया जबकि कांग्रेस के भारी बहुमत के कारण उन्हं बाहर रखा जा सकता था।

संविधान सभा के मामले में ऑस्टिन अंतिम शब्द नहीं हैं। लेकिन मुद्दा यह है कि लोकसभा में मोदी के भाषण में इसके कई असली योगदानकर्ताओं को भुला दिया गया। प्रधानमंत्री की ज्यादातर भाषणबाजी की तरह लोकसभा में प्रधानमंत्री की ऊंची उड़ान भरती लफ्फाजी ने ब्योरों की ऐसी तैसी कर दी और संविधान सभा तथा भारतीय संविधान लिखने वाले स्त्री-पुरुषों की त्रुटिपूर्ण छवि पेश की।

 

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