संतरे और अमरूद की तरह इतिहास और वर्तमान भी अलग चीजें हैं। इतिहास को इतिहास की तरह देखें और वर्तमान को वर्तमान की तरह। इतिहास में वर्तमान को पढ़ना इतिहास और वर्तमान दोनों के साथ अन्याय है। उसी तरह वर्तमान के अखाड़े में इतिहास को घसीटना भी वर्तमान और इतिहास दोनों के साथ अन्याय है। जैसे फल नामक समूह के उपसमूह होते हुए भी संतरा और अमरूद एक-दूसरे से अलग हैं वैसे ही कालप्रवाह को यदि एक समूह मानें तो उसके उपसमूह होते हुए भी इतिहास और वर्तमान अलग-अलग चीजें हैं।
इतनी लंबी-चौड़ी भूमिका हमने उत्तर मध्ययुगीन भारतीय इतिहास की एक अहम शख्सियत टीपू सुल्तान पर वर्तमान के सियासी अखाड़े में छिड़े विवाद के संदर्भ में बांधी है। इतिहास और वर्तमान का अंतर मानते हुए भी हम जानते हैं कि वर्तमान अपना वैचारिक गठन बुनने में इतिहास का प्रतीकात्मक इस्तेमाल करता रहा है। बल्कि इससे भी आगे बढ़कर हम जानते हैं कि इतिहास और वर्तमान के बीच एक बारीक कार्य-कारण संबंध है, हालांकि उस तक हम गहन विश्लेषण के बाद ही पहुंच सकते हैं जिसके मार्ग में वर्तमान की राजनीतिक बयानबाजियां अवरोधक का काम करती हैं। इन बयानबाजियों का घटाटोप उस इतिहास और इतिहास एवं वर्तमान के सूक्ष्म कार्य-कारण संबंध को ओझल करने का काम ही करती हैं।
टीपू की एक प्रतीकात्मकता उनके समकालीन ब्रिटिश प्रतिद्वंद्वियों ने गढ़ी। दूसरी प्रतीकात्मकता सेकुलर राष्ट्रीय आंदोलन ने प्रतिष्ठित की। और उसे पलटकर दक्षिणपंथी हिंदुत्व एक नई प्रतीकात्मकता गढ़ना चाह रहा है। ब्रिटिश साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के लिए 18वीं सदी के अंत में और 19वीं सदी की शुरुआत में तीन खतरे सबसे बड़े थे : अमेरिकी स्वाधीनता संग्राम, फ्रांसीसी क्रांति से पैदा हुआ गणतंत्र - जिसनेे बाद में नेपोलियन के रूप में एक नई साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा पैदा की - और भारत के मैसूर राज्य में हैदर अली-टीपू सुल्तान की ताकत। तत्कालीन ब्रिटिश समाज में स्वाधीनतावादी विचारधाराएं पैदा हो गई थीं जो अमेरिकी स्वाधीनता संग्राम तथा फ्रांसीसी क्रांति से सहानुभूति रखती थीं इसलिए चाह कर भी ब्रिटिश शासक वर्ग उन्हें कुचल नहीं पाया। लेकिन जब फ्रांस में नेपोलियन बोनापार्ट पहले तानाशाह और फिर सम्राट बनकर उभरे तो ब्रिटिश शासक वर्ग उनके खिलाफ अपने देश में राष्ट्रवादी ज्वार पैदा करने में सफल हुआ। श्वेत नस्लवाद के दिनों में अमेरिका और फ्रांस की चुनौतियां तो फिर भी गोरी नस्ल से मिल रही थीं लेकिन टीपू की चुनौती को तो तत्कालीन अंग्रेजी शासकवर्ग ने एक हीन माने जाने वाली अश्वेत नस्ल की अपमानजनक चुनौती के तौर पर देखा होगा। इसलिए आक्रामक ब्रिटिश साम्राज्यवादी राष्ट्र ने अपने राक्षसशास्त्र के सबसे काले रंग टीपू सुल्तान के ऊपर चस्पां किए। समकालीन ब्रिटिश दस्तावेजों में टीपू सुल्तान को एक अनपढ़, उज्बक, क्रूर और बर्बर विधर्मी मुस्लिम शासक के तौर पर चित्रित किया गया है जो अपने विरोधियों को क्रूरतम यातना देने से नहीं हिचकता था, जरा भी असहमति बर्दाश्त नहीं करता था और जिसके कट्टर मुस्लिम मन में काफिरों, हिंदू हों या ईसाई, के लिए कोई इज्जत नहीं थी। वह मौका देखकर व्यापक धर्मांतरण के लिए अपनी प्रजा के विभिन्न समुदायों पर जुल्म ढाने में कोताही नहीं करता था।
दूसरी तरफ, 20वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देने वाले सेकुलर राष्ट्रीय आंदोलन और वामपंथ के बुद्धिजीवियों एवं इतिहासकारों ने जवाब में टीपू के अन्य ऐतिहासिक कृत्यों को रेखांकित करके उनकी एक साम्राज्य विरोधी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी नायक की छवि प्रतिष्ठित की। उन्होंने बताया कि टीपू ने शृंगेरी मठ सहित डेढ़ सौ मंदिरों को प्रचुर दान और संरक्षण दिया। श्रीरंगपट्टणम में टीपू के महल के सामने श्रीकृष्ण मंदिर के प्रति उनकी आस्था के साक्ष्य भी रेखांकित किए गए। इनके साथ ही टीपू को एक आधुनिकतावादी द्रष्टा के तौर पर भी रेखांकित किया गया। यह बताते हुए कि टीपू ने अपने महल के प्रांगण में फ्रांसीसी क्रांति के प्रतीक के तौर पर स्वाधीनता का वृक्ष लगाया, रॉकेट टेक्नोलॉजी विकसित करने की कोशिश की, ब्रिटिश इंडिया कंपनी की तर्ज पर विदेशों से व्यापार के लिए एक कंपनी का गठन किया, नेपोलियन, अफगान शासकों और उस्मान तुर्कों से संयुक्त अंग्रेज विरोधी मोर्चा बनाने का अनुरोध किया, चीन में अपने दूत भेजे यूरोपीय तौर पर अपनी सेना को प्रशिक्षित किया और राजस्व प्रशासन तथा कृषि को कई तरह के नवाचारों से चुस्त-दुरुस्त किया।
सेकुलर बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों की ओर से रेखांकित इन तमाम पक्षों को नकारते हुए दक्षिणपंथी हिंदुत्व अपनी बहुसंक्चयकवादी राष्ट्रवाद की अवधारणा के अनुरूप टीपू को महज एक हिंदू विरोधी कट्टर इस्लामी शासक के तौर पर चित्रित करना चाहता है। हिंदुत्ववादियों के खलनायक पुराण में टीपू का स्थान शीर्ष पर गजनवी और औरंगजेब के बरक्स है।
टीपू को अगर हिंदुत्ववादी सिर्फ कट्टर मुसलमान बना देेंगे तो फिर पुनरुत्थानवादी इस्लामपंथी भी उन्हें एक कट्टर मुसलमान के तौर पर ही देखें तो आश्चर्य नहीं। वर्तमान के सियासी अखाड़े में यह ध्रुवीकरण दंगा-फसाद की जड़ नहीं बनेगा तो और क्या।
यह सही है कि इतिहास में टीपू की क्रूरता के भी साक्ष्य हैं। कोड़वा समुदाय पर जुल्म के साक्ष्य हैं। मलाबार में धर्मांतरण के भी साक्ष्य हैं। यह सही है कि सारी सत्ता टीपू के हाथ में केंद्रित थी। इसलिए ऐसे व्यक्तित्व को पूर्णत: आधुनिक गणतंत्रवादी और धर्मनिरपेक्ष नायक नहीं कह सकते। लेकिन यह भी नजरअंदाज नहीं कर सकते कि उस समय भला कौन शासक और शासन व्यवस्था क्रूर नहीं थी। टीपू और उनके राज्य को मटियामेट करने वाले हैदराबाद के निजाम, मराठे और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी क्या कम क्रूर थे? यहां तक कि गणतंत्रवादी फ्रांसीसी क्रांति भी बेहद क्रूर थी और अमेरिकी स्वाधीनता की परिभाषा में वहां के काले गुलामों तथा महिलाओं की स्वाधीनता निहित नहीं थी। टीपू सुल्तान अपने समय के अन्य शासकों जैसे क्रूर थे। लेकिन इसे भी नजरअंदाज नहीं कर सकते कि वह कई मंदिरों के संरक्षक भी थे। उनकी शासन व्यवस्था हिंदू हाकिमों पर निर्भर थी। वह आधुनिक पश्चिम से सीखकर उसे मात देना चाहते थे। उसकी कल्पना को कहीं न कहीं फ्रांसीसी क्रांति के स्वाधीनतावाद ने छुआ तभी वह जेकोबिन क्लब के सदस्य बने। अगर उस समय के इतिहास को समग्रता में समझना है तो टीपू सुल्तान के व्यक्तित्व को समग्रता में समझना होगा और तभी कालप्रवाह से प्राप्त वर्तमान भारतीय समाज को हम अपनी समग्रता में समझने की कोशिश कर पाएंगे, उसकी दरारों और फांकों के साथ।