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विमर्श: राष्ट्रीय छवियां बदलने की कोशिश

“मौजूदा सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान का इतिहास को नए स्वरूप में पेश करने का जतन” नई दिल्ली के प्रसिद्ध...
विमर्श: राष्ट्रीय छवियां बदलने की कोशिश

“मौजूदा सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान का इतिहास को नए स्वरूप में पेश करने का जतन”

नई दिल्ली के प्रसिद्ध इंडिया गेट पर पिछले दिनों नेताजी सुभाष चंद्र बोस का एक होलोग्राम स्थापित किया गया है। दशकों पहले इस स्थान से ब्रिटिश सम्राट की मूर्ति को हटा कर उसकी जगह महात्मा गांधी की मूर्ति लगाने की योजना बनाई गई थी लेकिन ब्रिटिश सम्राट की मूर्ति तो हटा दी गई पर राष्ट्रपिता की मूर्ति नहीं लग सकी क्योंकि बहुत से गांधीवादियों का कहना था कि एक पत्थर से बनी छतरी के नीचे महात्मा की मूर्ति नहीं लगाई जानी चाहिए। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने बहुत धूमधाम के साथ नेताजी का होलोग्राम लगा दिया है। बाद में उनकी मूर्ति लगाई जाएगी।

स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न खड़ा होता है कि होलोग्राम लगाने की ऐसी क्या जल्दी थी? जब मूर्ति तैयार हो जाती, तब लग जाती। लेकिन मोदी सरकार के अधिकांश निर्णय चुनाव को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं, और भारत जैसे विशाल देश में किसी-न-किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। अब उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं और ऐसे में मतदाताओं का ध्यान आकृष्ट करने और उन्हें प्रभावित करने के लिए कुछ अप्रत्याशित करना जरूरी हो जाता है। यह साबित करने के लिए भी कि नेताजी के असली कद्रदां हिंदुत्ववादी हैं जबकि कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने उनकी अनदेखी की है। ऐसी ही बात सरदार वल्लभभाई पटेल लिए भी कही जाती है। इन दोनों को ही महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश भी की जाती है। प्रचार किया जाता है कि जवाहरलाल नेहरू को स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री मनोनीत करके महात्मा गांधी ने सरदार पटेल के साथ अन्याय किया था और यदि नेहरू की जगह पटेल प्रधानमंत्री बनते तो देश का इतिहास कुछ और ही होता। दिलचस्प बात तो यह है कि इन पटेल और नेताजी के बारे में कुछ इस तरह बात की जाती है मानो वे कांग्रेस के नहीं, संघ के सदस्य थे।

दरअसल हुआ यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े भारतीय जनता पार्टी जैसे संगठनों ने अपने वैचारिक और राजनीतिक प्रभाव का तो आशातीत विस्तार कर लिया है, लेकिन उनके पास ऐसे राष्ट्रीय नायक नहीं हैं जिन्हें कांग्रेस के महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्रीय नायकों के खिलाफ प्रचार अभियान में उतारा जा सके। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि संघ ने अपना लक्ष्य हिंदू समाज का संगठन और सैन्यीकरण निर्धारित किया था और स्वयं को ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन से दूर रखा था। यही नहीं, वह गांधी और नेहरू जैसे नेताओं के सख्त खिलाफ था और आज भी है। उसकी कथनी और करनी में हमेशा बहुत बड़ी खाई रही है और अपने ढर्रे में ढालने के लिए कुछ भी कहने से उसे परहेज नहीं रहा है।

संघ की समस्या यह है कि देश की आजादी के लिए चले लंबे संघर्ष से स्वयं को दूर रखने के बावजूद उसका दावा है कि वही सबसे बड़ा देशभक्त और राष्ट्रवादी संगठन है। इस दावे को साबित करने और नैतिक वैधता प्राप्त करने के लिए उसने उन राष्ट्र नायकों पर भी अपना अधिकार जताना शुरू कर दिया, जिनके विचार उसकी हिंदुत्ववादी विचारधारा से कतई मेल नहीं खाते। सभी जानते हैं कि संघ और उसके सदस्य-कार्यकर्ता महात्मा गांधी से नफरत करते हैं और समय-समय पर उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी करते रहते हैं। संघ पर महात्मा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप था और उसके इस दावे को कि नाथूराम गोडसे ने हत्या करने से काफी पहले संघ छोड़ दिया था, नाथूराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे ने ही ध्वस्त कर दिया था और जोर देकर कहा था कि नाथूराम ने संघ कभी नहीं छोड़ा था। उसने अदालत में यह बात संघ को बचाने के लिए कही थी।

दिलचस्प बात यह है कि एक ओर तो संघ और उसके प्रभावशाली कार्यकर्ता लगातार महात्मा गांधी के खिलाफ दुष्प्रचार करते रहते हैं, जिसकी मिसालें जब-तब मिलती रहती हैं। गोडसे के महिमामंडन पर उन्हें कभी कोई आपत्ति नहीं हुई है, दूसरी ओर संघ ने गांधी को उन व्यक्तियों की सूची में भी शामिल किया हुआ है जिन्हें वह प्रातःस्मरणीय मानता है। अक्सर वह बिना किसी ठोस प्रमाण के यह दावा भी करता रहता है कि महात्मा गांधी ने संघ की एक शाखा देखने के बाद उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। इसके बावजूद संघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग, आइटी सेल और ट्रोल सेना गांधी पर लगातार हमले करते रहते हैं। सुभाष चंद्र बोस और गांधी के राजनीतिक मतभेद सर्वविदित हैं और उन्हीं के कारण बोस ने कांग्रेस छोड़ी थी और फिर देश भी छोड़ दिया था। इसलिए गांधी का विरोध करने के लिए उनसे बेहतर व्यक्ति कोई नहीं हो सकता। उनके प्रति आज भी पूरे देश की जनता के मन में अपार आदर और सम्मान है। इसलिए उनका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की जा रही है।

लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि आज नेताजी जीवित होते, तो एक सुचिंतित योजना के तहत देश में बनाए जा रहे माहौल के प्रति उनका क्या रुख होता? उनके भाई शरतचंद्र बोस के पौत्र और हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर सुगत बोस का कहना है कि यदि नेताजी आज जीवित होते, तो किसी की हिम्मत नहीं थी कि तथाकथित धर्म संसद आयोजित करके मुसलमानों के जनसंहार का आह्वान कर सके। सुगत बोस पूर्व सांसद हैं और सुभाष चंद्र बोस की जीवनी भी लिख चुके हैं। यदि हम इतिहास पर नजर डालें, तो पाएंगे कि उनका दावा पूरी तरह सही है। नेताजी के निकटतम सहयोगी मुसलमान थे और उनकी आजाद हिंद फौज में हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई- सभी समुदायों के अफसर और सैनिक थे। अंग्रेजों ने लालकिले में आजाद हिंद फौज के जिन अफसरों पर मुकदमा चलाया था, उनमें एक हिंदू (जनरल प्रेम कुमार सहगल), एक मुसलमान (जनरल शाहनवाज खान) और एक सिख (जनरल गुरदयाल सिंह ढिल्लों) थे। नेताजी सभी समुदायों की एकता और समानता में विश्वास करते थे, हिंदुत्ववादियों की तरह हिंदुओं के वर्चस्व में नहीं।

1938 में कांग्रेस के हरिपुर अधिवेशन में नेताजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वतंत्र भारत के भावी संविधान की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए कहा था कि इसमें सभी को अपने धर्म का पालन करने की आजादी प्राप्त होगी और सभी धार्मिक समुदाय समान होंगे। राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थता की नीति का पालन करेगा। क्या आज के भारत में ऐसा हो रहा है? यदि आज नेताजी जीवित होते तो क्या यह सब देखकर उनके जैसा देशप्रेमी योद्धा हाथ-पर-हाथ धरे बैठा रहता? 1940 में हिंदुत्व की अवधारणा के सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर से ही भेंट के बारे में नेताजी ने अपनी पुस्तक भारतीय संघर्ष में लिखा है कि उनकी दिलचस्पी केवल इस बात में थी कि हिंदू अधिक-से-अधिक संख्या में ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करें। हिंदुओं का सैन्यीकरण सावरकर की हिंदू महासभा और हेडगेवार और गोलवलकर के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घोषित लक्ष्य रहा है। इसीलिए संघ की शाखाओं में आज भी हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। और, इसीलिए कट्टर सेकुलरवादी होने के बावजूद नेताजी उन्हें बहुत अधिक आकृष्ट करते हैं क्योंकि नेताजी ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी और वे महात्मा गांधी की अहिंसात्मक संघर्ष की रणनीति से असहमत थे। लेकिन सारी असहमति और विरोध के बावजूद महात्मा गांधी के प्रति उनका रवैया क्या था?

महात्मा गांधी और उनके सहयोगियों के जबरदस्त विरोध के बावजूद 1939 में सुभाष चंद्र बोस एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। इस जीत के बाद उन्होंने 3 फरवरी, 1939 को एक बयान जारी किया जिसके अंत में उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी मेरे बारे में जो भी राय रखते हों, लेकिन मेरी हमेशा यह कोशिश रहेगी कि मैं उनका विश्वास जीत सकूं, क्योंकि यह बहुत बड़ी त्रासदी होगी अगर मैं और लोगों का तो विश्वास जीत पाया पर भारत के महानतम व्यक्ति का नहीं।

संघ और भाजपा के लोग अक्सर यह आपत्ति करते रहते हैं कि महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कैसे कहा जा सकता है? उन्हें पता होना चाहिए कि नेताजी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उन्हें इस नाम से संबोधित किया था। 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो से प्रसारित किए गए अपने एक संदेश में उन्होंने महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में संबोधित करते हुए उनसे अनुरोध किया था कि आजादी के पावन युद्ध में वे उन्हें अपना आशीर्वाद और शुभकामनाएं दें।

और सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू के बीच क्या संबंध था, इसका पता पटेल के “आशीष” शीर्षक वाले उस लेख से चल जाता है जो उन्होंने 14 अक्टूबर, 1949 को लिखा था। उस लेख में उन्होंने नेहरू को अपना छोटा भाई बताते हुए उनके त्याग और देशसेवा की बेहद प्रशंसा की थी और कहा था कि कुछ स्वार्थ-प्रेरित लोग उन दोनों के बीच विरोध होने का दुष्प्रचार करते रहते हैं। पटेल ने ही गृह मंत्री के रूप में संघ के नेताओं की गिरफ्तारी और संघ पर प्रतिबंध लगाए जाने के आदेश दिए थे।

संघ और भाजपा के पटेल और बोस प्रेम को देख कर पुरानी उक्ति याद आ रही है: “राम-राम जपना, पराया माल अपना”!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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