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समान सिविल कोड की राजनीति खत्म कर, मुसलमान औरत को इंसाफ दो

मौजूदा सरकार बनने से पहले भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में समान सिविल कोड लाने की बात कही गई। इसके चलते इस कोड का जिक्र बार-बार उठता है। लेकिन समान सिविल कोड को लाने की बात करने वालों के असल इरादे कोई नहीं जानता! भारतीय जनता पार्टी या फिर उनकी सरकार ने कभी स्पष्ट भी नहीं किया कि इस कोड के क्या प्रावधान होंगे, इसमें कौन-कौन सी धाराएं इत्यादि शामिल होंगी, किस धर्म के आधार पर समान सिविल कोड के प्रावधान तय कि ए जाएंगे।
समान सिविल कोड की राजनीति खत्म कर, मुसलमान औरत को इंसाफ दो

क्या इस कोड कोलाने से हिंदू धर्म और अन्य धर्मों पर आधारित मौजूदा सारे कानून रद्द कर दिए जाएंगे? इस कोड के विषय में हो रही राजनीति से यह मालूम पड़ता है कि भारतीय जनता पार्टी से जुड़े कुछ गुटों का इरादा देश के अल्पसंख्यक समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार से छेड़खानी करने का है!

 

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो नेहरू एवं आंबेडकर ने समान सिविल कोड के द्वारा देश भर की महिलाओं के साथ धर्म के नाम पर हो रहे अन्याय को दूर करने की चेष्टा की थी। जिसका विरोध जनसंघ एवं अन्य हिंदू धर्मगुरुओं यानी कि एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के पूर्वजों ने किया था। फिर समान सिविल कोड आज भारतीय जनता पार्टी की प्राथमिकता कैसे बन गया, यह सोचने वाली बात है!

 

मजे की बात यह है कि समान सिविल कोड के कुछ प्रणेता मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात करते हैं और कहते हैं कि मुस्लिम महिलाओं के उद्धार के लिए इसकी जरूरत है। जब तथ्य कुछ और ही है। हमारे देश का संविधान सभी मजहब के नागरिकों को पारिवारिक मामलों में मज़हबी आचरण का अधिकार देता है। इसी संवैधानिक प्रावधान के चलते हमारे देश में हिंदू, ईसाई, पारसी इत्यादि धर्मों के अनुसार पारिवारिक कानून मौजूद हैं जो शादी, तलाक, विरासत, मिल्कियत जैसे मामलों पर लागू हैं। हिंदू, ईसाई, पारसी इत्यादि समुदायों की तरह मुस्लिम समुदाय के लिए भी कुरान आधारित पारिवारिक कानून की हमारे देश में सक्चत जरूरत है। मुस्लिम महिलाओं के सवाल जैसे कि शादी की उम्र, ज़ुबानी तलाक, बहुपत्नीत्व, बच्चों की सरपरस्ती, भरन-पोषण इत्यादि का निवारण एक कुरान आधारित मुस्लिम पारिवारिक कानून से ही हो सकता है, न कि किसी काल्पनिक समान सिविल कोड से!

 

1986 के शाहबानो के किस्से से सब परिचित हैं। दुख की बात यह है कि 1947 से लेकर आज तक हमारे देश में पितृसîाात्मक एवं धार्मिक गुटों की राजनीति और सरकारों के साथ उनकी सांठ-गांठ के चलते कोई भी विधिवत मुस्लिम कानून नहीं बनाया गया। यहां ये कहना जरूरी है कि हमारे देश में मुसलमान समाज से जुड़े दोनों कानून अंग्रेजों के जमाने के हैं। मुस्लिम पर्सनल एक्ट (शरीअत) एप्लीकेशन कानून, 1937 में महज इतना कहा गया है कि भारत के मुसलमानों पर शरीअत कानून लागू होगा। लेकिन ये शरीअत कानून कौन-सा होगा-शादी की उम्र, तीन तलाक, एक से ज्यादा शादी, मेहर, हलाला, बच्चों की सरपरस्ती वगैरह अति महत्वपूर्ण मामलों के बारे में इस कानून में कोई जिक्र ही नहीं है। यही वजह है कि तीन तलाक जैसी गैरकुरानी प्रथाएं चलन में हैं। आश्चर्य की बात है कि जब भी किसी शाह बानू ने कोर्ट में इंसाफ की गुहार लगाई तो मुस्लिम मर्द गुटों ने इसे धार्मिक मामलों में दखल कहकर नकार दिया, जबकि दुनिया के करीब सभी मुस्लिम देशों में शादी एवं पारिवारिक मामलों के लिए विधिवत कानून मौजूद हैं। ताज्जुब की बात है कि जब औरत पर जुबानी तलाक और रातोरात घर से निकाल दिए जाने जैसे जुल्म होते हैं, तब इन्हें धर्म पर कोई खतरा नजर नहीं आता। इस सूरत में कुरान आधारित विधिवत मुस्लिम पारिवारिक कानून ही ऐसी हजारों औरतों की सहायता कर सकता है। फिर यह एक आम मुस्लिम औरत का कुरानी एवं संवैधानिक अधिकार भी है।

 दूसरी ओर हिंदुत्ववाले गुट समान सिविल कोड के नाम पर राजनीति करते रहे हैं। सरकारें अपने धर्मनिरपेक्षता के दायित्व से पीछे हटती रही हैं और मुस्लिम महिलाएं एकतरफा जुबानी तलाक और अपने पति की दूसरी शादी जैसी समस्याओं का शिकार होती रही है। पुरुषों और धर्म की राजनीती में महिलाओं की कौन सुनेगा? मौजूदा सरकार को चाहिए की कुरान आधारित मुस्लिम पारिवारिक कानून को संसद में पारित करवाकर अपना संवैधानिक धर्म निभाए और समान सिविल कोड की राजनीति खत्म करे।

(लेखिका भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह-संस्थापक हैं)

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