मोदी का बहुप्रचारित विकसित गुजरात आज पटेल आरक्षण की आग में धू-धू कर जल रहा है और अराजक आवारा भीड़ के हवाले है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सुरक्षित स्थानों से शांति की रटी-रटाई अपीलें दोहरा रहे हैं। अनियंत्रित भीड़ सरकारी संपत्तियों को निशाना बना रही है। कहीं बसें जलाई जा रही हैं तो कहीं पटरियां उखाड़ने की कोशिशें की गईं। पुलिस और दंगाई आंख मिचौनी खेलते दिखाई पड़ रहे हैं।
क्या अहमदाबाद में 25 अगस्त को हुई पाटीदार अमानत आंदोलन समिति की महाक्रांति रैली अप्रत्याशित थी? राज्य शासन के खुफिया विभाग को इसकी जानकारी नहीं थी या अंदाजा लगाने में वे विफल रहे कि 6 जुलाई से निरंतर गुजरात के अलग-अलग हिस्सों में हो रही रैलियां एक दिन बड़ा आंदोलन बनेंगी। जबकि 17 अगस्त को सूरत की रैली में ही लाखों लोग शिरकत कर चुके थे, उसके बावजूद हालात यहां तक पहुंचने देने के पीछे कोई साजिश रही या इसे महज राजनीतिक, प्रशासनिक और खुफिया विफलता माना जाए।
एक 22 वर्षीय नौजवान हार्दिक पटेल, जिसे आम आदमी पार्टी का समर्थक बताया जा रहा है और जिसके कारोबारी पिता भरतभाई पटेल भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता है, जिसकी विश्व हिंदू परिषद् नेता डॉ. प्रवीण भाई तोगड़िया के साथ गर्वीले अंदाज की फोटुएं सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं उसके पीछे क्या सिर्फ पटेल समुदाय ही है या और कुछ ढकी-छिपी ताकतें भी काम कर रही है? क्या इसे गुजरात में मोदी की कठपुतली मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को सत्ताच्युत करने की साजिश का अंग माना जा सकता है? यह पूरा प्रकरण गांधीनगर से लेकर दिल्ली तक चल रही भाजपा की आंतरिक कलह का नतीजा है या कुछ और? इस बारे में अभी ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता है, सिर्फ अटकलें लगाई जा सकती हैं।
प्रथम दृष्टया हार्दिक पटेल एक विरोधाभासी व्यक्तित्व का नौजवान दिखाई पड़ता है, जिसका एक साफ राजनीतिक एजेंडा है। वह आरक्षण विरोधी लोगों की तरह तर्क देते हुए अपने समुदाय के लिए आरक्षण मांगता दिखाई देता है, मसलन उसका यह कहना है – 'या तो सबको दो अथवा आरक्षण खत्म करो।' अक्सर आरक्षण विरोधी यही तर्क इस्तेमाल करते हैं। हार्दिक पटेल का मानना है –'पटेल समुदाय के युवा 90 प्रतिशत अंक होने के बावजूद डॉक्टर की पढाई में दाखिला नहीं ले पाते है, जबकि आरक्षण के बूते 40 फीसदी अंक वाले भी दाखिला और नौकरी पा जाते हैं।' हार्दिक के इन विचारों में नया कुछ भी नहीं है। योग्यता तंत्र की बहस के जरिये आरक्षण व्यवस्था पर हमला बोलने वाले लोग सदैव इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। दिल्ली में सत्तारूढ़ दोनों सरकारों की विचारधारा कमोबेश आरक्षण के मुद्दे पर हार्दिक पटेल जैसी ही है।
हार्दिक पटेल के अन्य बयानों को भी देखना जरूरी है। उसका कहना है –'एक आतंकी के लिए आधी रात को कोर्ट खुल सकता है तो गुजरात के युवाओं के लिए क्यों नहीं?' यह भी कि आतंकियों को बिरयानी और हमें लाठियां मिल रही हैं। यह प्रवीण तोगड़िया के पुराने भाषणों की नकल करने जैसा है। आज तो हार्दिक खुले आम कह रहे हैं, अगर सड़कों पर उतर कर आंदोलन कर रहे युवाओं की मांग को पूरा नहीं किया गया तो इनमें से कुछ नक्सली और कुछ आतंकी बन सकते हैं।
खैर, यह भारतीय लोकतंत्र को संख्या बल से धमकाने वाले समुदायों का पुराना शगल है। बहरहाल हार्दिक पटेल के बयान अरविंद केजरीवाल और तोगड़िया का अजीब सा सम्मिश्रण उपस्थित करते हैं। इनसे अराजकता और सांप्रदायिकता दोनों की मिलीजुली गंध आती है जिसे अगर जातिवाद का साथ मिल जाए तो वह समस्त लोकतान्त्रिक ढांचों को ध्वस्त करने का मंसूबा पालने वाली आत्मघाती राजनीति के विष वृक्ष को पल्लवित और पुष्पित कर सकती है। इन खतरों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
हार्दिक पटेल की पटेलों को नौकरियों और प्रवेश में 27 प्रतिशत आरक्षण की मांग पर विचार किया जाए तो वह बहुत ही कमजोर है। भले ही संख्या बल की दृष्टि से यह आज बहुत मजबूत लग रही है मगर तार्किक रूप से इस मांग की परिणिति शून्य होने वाली है। कोई भी सरकार गुजराती पटेलों को उनके द्वारा मांगे जा रहे आरक्षण से नहीं नवाज सकती है। संवैधानिक बाध्यताएं अपनी जगह हैं। कानूनी पचड़ों की अभी हम बात नहीं भी करें तो भी किसी भी सरकार के लिए यह कर पाना असंभव लगता है।
यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और धार्मिक तथा आर्थिक रूप से सक्षम पटेल समुदाय को आरक्षण की जरूरत है या यह आंदोलन उन्हें राजनीतिक रूप से संगठित करने का एक माध्यम भर है। वैसे देखा जाए तो पटेल समुदाय गुजरात का सबसे वर्चस्वशाली समाज है। आबादी के लिहाज़ से गुजरात की पूरी आबादी का 20 फीसदी है। जमीन पर स्वामित्व को देखें तो अव्वल है, कृषि भूमि की सर्वाधिक जोत पर उनका कब्जा है। व्यापार में देखें तो विश्व के हीरा कारोबार के एक तिहाई पर गुजराती पटेल ही काबिज हैं। रियल एस्टेट में उनकी प्रचुर उपस्थिति है, निजी शिक्षा के संस्थानों पर मालिकाना हक के मामले में भी उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता है। गुजरात में सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों के 40 प्रतिशत हिस्से पर उनका आधिपत्य है। राजनीतिक भागीदारी पर नजर दौडाएं तो आजादी के बाद से ही दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों में पटेल अच्छी स्थिति में रहे हैं। देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल से लेकर आनंदीबेन पटेल तक पटेल समाज कभी भी राजनीतिक रूप से उपेक्षित समुदाय नहीं रहा है। आज भी गुजरात में 40 विधायक और सात मंत्री है और मुख्यमंत्री स्वयं पटेल समुदाय से आती हैं। कई विश्वविद्यालयों में कुलपति पटेल हैं। अहमदाबाद से लेकर अमेरिका तक पटेलों की मौजूदगी आश्चर्यचकित करती है। बावजूद इसके इतना संपन्न, शिक्षित और सक्षम समुदाय अपने लिए आरक्षण मांग रहा है। इसके लिए हिंसक आंदोलन कर रहा है तो यह देशवासियों की समझ से परे है।
वैसे देखा जाए तो गुजरात का यह पटेल विद्रोह सिर्फ आरक्षण की मांग का आंदोलन मात्र न होकर उससे आगे आकार लेती एक नई राजनीति का आगाज भी है। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास के बहुप्रचारित दावे की विफलता के रूप में भी देखा जा सकता है कि जब अापने इतना विकास कर दिया तब भी लोग आरक्षण के जरिये अपना विकास चाहते हैं। इस तरह तो आपका गुजरात माॅडल असफल साबित हुआ। कुछ लोग इसे मोदी और तोगड़िया के मध्य कई वर्षों से चल रहे शीत युद्ध के विस्फोट के रूप में भी देख रहे हैं। कुछ हद तक यह परिघटना अन्ना केजरीवाल द्वारा प्रारंभ की गई अराजक राजनीति के बढ़ते खतरों के बारे में सोचने को मजबूर करती है। पाटीदार अनामत आंदोलन समिति की आरक्षण की मांग और हार्दिक पटेल का अचानक उभार प्रवासी गुजरातियों के द्वारा गुजरात की राजनीति में निवेश किए जाने वाले विदेशी धन के प्रभाव का भी संकेत देता है। यह सोशल मीडिया पर सक्रिय युवा पीढ़ी की राजनीतिक अभिलाषाओं में हो रही वृद्धि की तरफ भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
इस आंदोलन का जीवन कितना होगा, यह तात्कालिक होगा या दीर्घकालिक, चुनावी राजनीति तक ही अल्पजीवित होगा या लंबा चलेगा, अभी कुछ भी कह पाना कठिन है। अभी तो यह आवश्यक है कि यह बहुसंख्यक भीड़ का हिंसक आंदोलन बनने के बजाय एक लोकतांत्रिक आन्दोलन बने और संवाद के जरिये समस्या का सर्वमान्य एवं विधिसम्मत हल निकल कर आए ताकि वास्तविक गरीब, वाकई पिछड़े और आरक्षण के असली हकदार दलित और आदिवासी लोग आरक्षण के खिलाफ बन रहे माहौल से प्रभावित ना हों। हार्दिक पटेल के इस आंदोलन के निहितार्थों को समझ पाने में अक्षम रही हमारी व्यवस्था को और अधिक ज़िम्मेदार और चाक-चौबंद होने की भी जरूरत है। वरना अराजकता का यह गुजराती व्याकरण हमारे लोकतंत्र और पूरी व्यवस्था को ही नेस्तनाबूद कर देगा। अंततः कहीं ऐसा ना हो कि हम वापस कबीलाई और सामंती अथवा फौजी शासनों की ठोकरों तले कराहने को मजबूर हो जाएं। इस दिशा में सबको सोचना होगा।
{लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता है}