शायद मुझमें भी कहीं न कहीं मंटोइत है,जो मुझे मंटो की ओर खींचती चली गई। कहानियां पढ़कर ऐसा लगा कि उनसे कोई न कोई नाता है। मंटो को जितना पढ़ा, समझा, तो लगा कि मंटो की जिंदगी में उतार-चढ़ाव से भरी थी। उनमें व्यवस्था और दिखावे के खिलाफ भारी गुस्सा था। वह ताउम्र किसी लेखक सभा के सदस्य नहीं बने, साहित्य की राजनीति और अड्डाबाजी से दूर रहे, उन्हें लेबल से चिढ़ थी, वह विद्रोही थे, बोलते थे, परिणाम की चिंता किए बिना गलत को उधेड़ने में कसर नहीं छोड़ते थे, मंटो की कहानियों के चरित्र मुझे अपने आसपास के चरित्र लगे। उनसे करीबी रिश्ता लगा। इन्हीं वजहों से मैंने मंटो पर फिल्म बनाने की सोची।
बहुत से लोगों ने मुझसे कहा कि आप मंटो पर ही फिल्म क्यों बना रही हैं, इस्मत चुगताई पर क्यों नहीं बना रहीं? मेरा मानना है कि सही है, इस्मत चुगताई पर भी फिल्म बननी चाहिए लेकिन मैं ही क्यों बनाऊं, कोई आदमी (पुरुष) बना ले। मैंने अपनी फिल्म में मंटो के जीवन, उनके जमाने के मुंबई, उनके जमाने के माहौल को पूरा उतारने की कोशिश की है। मंटो को मुंबई से खास लगाव था। वह कहते थे ‘मैं चलता-फिरता मुंबई हूं’। वह लाहौर जाकर भी मुंबई को नहीं भूले थे। अपनी कहानियों में मुंबई का जिक्र करते थे। मंटो को अपने ही कुछ खास दोस्तों से धोखा मिला। मजहब के नाम पर भी उन्हें अलग कर दिया गया। बहुत लोगों को उनके बारे में भ्रांतियां हैं कि वह महिलाओं की इज्जत नहीं करते थे। मंटो की कहानियां पढ़कर देखें, अरे मंटो ने तो समाज के उस वर्ग की औरत को भी इज्जत बख्शी है जिसे जमाना बुरी औरत कहता है। वह अपनी बेटियों से बहुत प्यार करते थे। अपनी पत्नी सोफिया को बहुत चाहते थे। वह घर के कामकाज में सोफिया की मदद करते,अचार डालते, पत्नी के बाल बनाते। यानी वह तो महिलाओं से घिरे हुए थे। मंटो वक्त से काफी आगे थे। मंटो जो चाहते थे वो उन्होंने लिखा। इन्ही सब पहलूओं को मैंने फिल्म में समेटा है।
(हाल ही में दिल्ली में आयोजित जश्न-ए-रेख्ता कार्यक्रम के दौरान उर्दू अफसानानिगार सआदत हसन मंटो पर अपनी फिल्म के बारे में फिल्म निदे्शक और अभिनेत्री नंदिता दास ने कुछ सवालों के जवाब में जैसा कि आउटलुक की विशेष संवाददाता मनीषा भल्ला को बताया )