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क्‍यों कुलपति बनने के काबिल नहीं हैं सुब्रह़मण्यम स्वामी?

सुब्रह़मण्यम स्वामी को जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद़यालय का कुलपति बनाने की चर्चा इतनी तेजी से शुरू हुई कि प्रायः हर किसी ने इसे सच मान लिया। अकादमिक दुनिया कान लगाकर आहट सुनने लगी। इस पर मीडिया माध्यमों से लेकर बौद्ध‍िक तबके में विमर्श का दौर शुरू हो गया और सुब्रह़मण्यम स्वामी की टिप्पणियां भी सामने आ गई। उन्होंने अपनी योजनाएं भी बता दीं कि वे जेएनयू में किस प्रकार नक्सलियों और ड्रग्स के शिकार लोगों को काबू में करेंगे। यह अपेक्षा भी जता दी कि सरकार उन्हें खुली छूट दे तो वे काम करने को तैयार हैं।
क्‍यों कुलपति बनने के काबिल नहीं हैं सुब्रह़मण्यम स्वामी?

लेकिन इस पूरे मामले में ज्यादातर लोगों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि सुब्रह़मण्यम स्वामी कुलपति बनने की पात्रता रखते भी हैं या नहीं। शैक्षिक योग्यता की दृष्टि से वह कुलपति बनाए जा सकते हैं, लेकिन उनके मामले में एक ऐसा तकनीकी पेच मौजूद है कि सरकार चाहे तो भी उन्हें आसानी से कुलपति नहीं बनाया जा सकता। देश में सभी तरह के विश्वविद्यालयों, चाहे वे केंद्रीय हों या राज्य स्तरीय, सरकारी हों या निजी, में कुलपति के लिए एक उम्र सीमा तय है। राज्य विश्वविद्यालयों में यह सीमा कहीं 65 तो कहीं 68 साल है और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 70 साल है। सुब्रह़मण्यम स्वामी की उम्र इस वक्त 76 साल है। ऐसे में उन्हें विशेष छूट देकर ही कुलपति की कुर्सी पर बैठाया जा सकता है। यह बात भी ध्यान में रखने वाली है कि मोदी सरकार यह छूट देने के लिए अधिकृत नहीं है, क्योंकि कुलपतियों के चयन के मामले में सरकार की कोई सीधी भूमिका नहीं होती। यह बात अलग है कि सरकारें ढके-छिपे तौर पर अपनी पसंद के लोगों को कुलपति की कुर्सी तक लाती रही हैं। मौजूदा नियमों-प्रावधानों को देखें तो जेएनयू के कुलपति के मामले में न स्मृति ईरानी कुछ कर सकती हैं और न ही मोदी।

अलबत्ता, इस मामले में राष्ट्रपति के पास अधिकार हैं। राष्ट्रपति केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति/विजिटर की हैसियत से कुलपति पद के लिए नाम प्रस्तावित कर सकते हैं और संबंधित नाम के बारे में विशेषज्ञ कमेटी की टिप्पणी मांग सकते हैं। हालांकि, स्थापित परंपरा यही है कि किसी भी विश्वविद्यालय के लिए कुलपति पद का विज्ञापन होने के बाद राष्ट्रपति के स्तर से एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया जाता है, यह कमेटी न्यूनतम तीन नामों का पैनल बनाकर राष्ट्रपति को सौंपती है और फिर वहां से अंतिम चयन होता है। राज्यों में यह जिम्मेदारी राज्यपाल के पास होती है। इस पूरी प्रक्रिया को सामने रखकर देखने से साफ है कि सुब्रह़मण्यम स्वामी के कुलपति बनने की बात केवल हवा में है। यह जरूर है कि सरकार चाहे तो यूजीसी पर दबाव बना सकती है कि वह कुलपति-चयन के मानकों में तत्काल बदलाव करे और उम्र का बंधन खत्म करके मानव संसाधन विकास मंत्री को प्रस्ताव भेजे। एमएचआरडी से स्वीकृति के बाद विश्‍वविद़यालय अनुदान आयोग उम्र के बंधन को खत्म करने की अधिसूचना जारी कर सकती है। इसके बाद सरकार राष्ट्रपति पर दबाव बनाए कि वह सुब्रह़मण्यम स्वामी को कुलपति नियुक्त करें। क्या राष्ट्रपति प्रबण मुखर्जी इतनी आसानी से इस बात को स्वीकार कर लेंगे ? यकीनन, इसमें संदेह है।

 

वजह साफ है, प्रणब मुखर्जी कुलपति चयन के मामलों में सरकार की राय मानने के लिए संवैधानिक तौर पर बाध्य नहीं हैं। हाल ही में, मौलाना आजाद नेशनल यूनिवर्सिटी के चांसलर पद पर मोदी के निकट रहे गुजराती उद्यमी जफर सरेशवाला को बैठाया गया है। ऐसे और भी नामों को बड़ी और नामी यूनिवर्सिटीज में एडजस्ट करने की तैयारी दिख रही है। जिस स्तर से सुब्रमण्यम स्वामी के बारे में सूचनाएं फैलीं, उसके पीछे एक दूसरी मंशा भी दिखाई देती है। संभवतः मोदी के रणनीतिकार अकादमिक दुनिया की प्रतिक्रिया का अनुमान लगाना चाहते हैं। इसके लिए सुब्रह़मण्यम स्वामी और जेएनयू से बेहतर कोई पैमाना और मिलना मुश्किल था। चूंकि, आगामी दो सालों में 20 से ज्यादा केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्तियां की जाने हैं इसलिए सरकार कई स्तरों पर तैयारी कर रही है। यदि इस काम के लिए सुब्रह़मण्यम स्वामी जैसे और नाम मिल जाएं तो भाजपा के लिए अकादमिक-बौद्धिक संस्थानों पर नियंत्रण करना आसान हो जाएगा।

 

आम धारणा यही है कि संघ और भाजपा के पास बौद्धिक चेहरों की कमी है। इसी के चलते विश्वविद्यालयों और दूसरी अकादमिक संस्थाओं में अब भी पुराने वामपंथी या कांग्रेसी जमे हुए हैं। मोदी सरकार इन्हें चलता करना चाहती है, लेकिन इन्हें चलता करने से पहले अकादमिक दुनिया का मूड भी भांपना चाहती है क्योंकि पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में गजेेंद्र चैहान की नियुक्ति के मामले में सरकार के हाथ जल चुके हैं। इसलिए अब चर्चित नामों की चुरकी छोड़कर अनुमान लगाया जा रहा है। जेएनयू के लिए सुब्रह़मण्यम स्वामी का नाम भी ऐसी ही चुरकी है। वैसे, सरकार चाहे तो उन्हें किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय का चासंलर यानि कुलाधिपति जरूर बना सकती है, क्योंकि कुछ विश्वविद्यालयों के एक्ट में चांसलर का पद भी रखा गया है। नोबेल विजेता अमृत्य सेन के इस्तीफे के बाद नालंदा विश्वविद्यालय में चांसलर का पद खाली है, लेकिन चांसलर की हैसियत सजावटी ही होती है, वास्तविक अधिकार वाइस-चांसलर यानि कुलपति के पास ही होते हैं।

 

 

 

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