अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसेन ओबामा की भारत यात्रा की तैयारी भारतीय मूल के लोग और प्रवासी भारतीय यानी भारतीय डायस्पोरा भी अलग ढंग से कर रहे हैं। अमेरिका, कनाडा, लंदन, आस्ट्रेलिया सहित कई देशों में इस समय हस्ताक्षर अभियान चल रहा है। दुनिया भर से जुटाए जाने वाले करीब 10 लाख हस्ताक्षर संयुक्त राष्ट्र से यह मांग करने जा रहे हैं कि दलितों का नरसंहार बंद करो। ये हस्ताक्षर राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को सौंपने की योजना बन रही है, ताकि जातिगत उत्पीडऩ और भेदभाव को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाया जा सके।
ये लोग भी भारतीय डायस्पोरा का ही हिस्सा हैं लेकिन यह दलित डायस्पोरा है। भारतीय डायस्पोरा यानी भारतीय मूल के लोग जो विदेशों में बस गए और वहीं के हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं के दौरान भारतीय डायस्पोरा की बहुत धूम रही लेकिन हम जिस डायस्पोरा की बात कर रहे हैं, वह उससे बिल्कुल अलग है। यह दलित अस्मिता की धुरी पर निर्मित डायस्पोरा है, जो तकरीबन उन तमाम देशों में छोटे-बड़े पैमाने पर मौजूद हैं, जहां दलित समुदाय गया है। दलित डायस्पोरा को देखना-परखना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जिस तेजी से सवर्ण हिंदू या दंबग जातियों के बाहुल्य वाले भारतीय डायस्पोरा में उग्र हिंदू संगठनों जैसे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, विश्व हिंदु परिषद आदि ने पैठ बनाई है, उस तेजी से वे दलित डायस्पोरा में घुसपैठ करने में उतनी सफलता नहीं हासिल कर पाए। नरेंद्र मोदी के पक्ष में दिखाई दे रही क्वलहरक्व को लेकर भी दोनों डायस्पोरा का नजरिया अलग-अलग है। अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में आंबेडकर विचारधारा के प्रचार-प्रसार में जुटे दिलीप महासके ने आउटलुक को बताया कि मोदी की लहर स्वागतयोग्य भी है और डराने वाली भी है। स्वागतयोग्य इस लिहाज से कही जा सकती है कि यह निवेश, विकास की बात करते हुए भारत को महाशक्ति बनाने का दावा है, वहीं डराने वाली है क्योंकि यह हिंदूत्ववादी विचारधारा का वर्चस्व स्थापित करने के लिए तमाम काम कर रही है। दलित, ईसाई, मुस्लिम इस हिंदुकरण से भयभीत है। हिंजुत्ववादी संगठनों के संकीर्णतावाद और पुरातनपंथी सोच से भारतीय दलित डायस्पोरा चिंतित है।
अमेरिका में पिछले 10 सालों में मानवाधिकारों पर काम कर रहीं विनया का कहना है कि दलित बड़ी तादाद में अमेरिका सहित दुनिया के तमाम हिस्सों में हैं और विनया एवं उनके सहयोगी जातिगत दंश के आमूल खात्मे के लिए संघर्षरत हैं।
तमाम तरह रे सवाल अमेरिका सहित दुनिया के तमाम देशों में दलित डायस्पोरा के साथ-साथ मानवाधिकार संगठनों-कार्यकर्ताओं को मथ रहे हैं। ब्रिटेन में, जहां दलितों की संख्या करीब 4 लाख है, दलित डायस्पोरा की उल्लेखनीय सक्रियता है। पूरे ब्रिटेन में दलित संगठन और उनके साथ-साथ मानवाधिकार संगठन दलितों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ बहुत मुखर हैं। लंदन स्थित इंटरनेशनल दलित सॉलेडैरिटी नेटवर्क की मीना वर्मा ने आउटलुक को बताया कि लंबे समय से ब्रिटेन में रह रहे चार लाख दलितों के साथ होने वाले जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए पिछले साल हम समानता कानून- लाने में तो सफल हुए लेकिन हिंदुत्ववादी संगठनों के दबाव में इसकी परामर्श अवधि छह महीने से बढ़ाकर दो साल कर दी गई है। इससे ब्रिटेन के दलित डायस्पोरा और मानविधकार हलकों में गहरा आक्रोश है। इसके खिलाफ लंदन में ब्रिटेन के जनप्रतिनिधियों को आवेदन दए जा रहे है, प्रदर्शन हो रहे हैं। मीना का कहना है कि तमाम हिंदुत्ववादी संगठन शुरू से जाति के सवाल को नकारना चाहते हैं, वे जातिगत भेदभाव के खिलाफ कभी नहीं बोलते और जो लोग बोलते हैं उन्हें शेष भारतीय अस्मिता के खिलाफ मानते हैं।--शायद यह दलित डायस्पोरा और भारतीय डायस्पोरा का मुख्य अंतरविरोध है। यह अंतरविरोध समय के साथ बढ़ता और तीखा होता दिख रहा है। इसकी ठोस वजह यह है कि भारतीय डायस्पोरा के एक बड़े हिस्से में हिंदुत्ववादी छवि का बोलबाला है, जो धर्म के गौरव के अलावा किसी भी तरह के अन्य मुद्दे पर बात करने के लिए तैयार नहीं है, जबकि दलित डायस्पोरा अपनी अलग पहचान और मुद्दों को लेकर बहुत सजग है।
अमेरिका के क्लीवलैंड में सक्रिय दीनबंधु ने बताया, क्वजहां भी भारतीय गए हैं, अपने साथ जाति जरूर ले गए हैं। इन सवालों पर हिंदुत्ववादी संगठन बात करने को तैयार नहीं है, वे सबको एक ही रंग में रंगना चाहते हैं, हम इसके लिए तैयार नहीं है। जब तक जाति है, दलित उत्पीडऩ है, तब तक इसके खिलाफ हमारी लड़ाई है। क्वअमेरिका में अटलांटा, न्यूजर्सी, न्यूयॉर्क और लॉस एंजलीस में, जहां बड़ी संख्या में भारतीय हैं, अलग-अलग समुदायों के मंदिर-गुरुद्वार बने हुए हैं। निश्चित तौर पर यहां जातिगत भेदभाव भारत के जैसा नहीं है, लेकिन अन्य तरह से जाति है। अंतरजातीय शादियां बहुत कम हैं-यानी अलग-अलग जाति आधारित खेमे बरकरार हैं। दरअसल, भारतीय अपने साथ जाति भी निर्यात करते हैं। इसे स्वीकारे बिना इसका खात्मा नहीं हो सकता।
दलित डायस्पोरा की बढ़ती दावेदारी निश्चित तौर पर हिंदुत्ववादी संगठनों के लिए परेशानी का सबब है। अमेरिका में बसे राजू लंबे समय से हिंदुत्ववादी विचारधारा के बरक्स अंाबेडकरवादी विचारधारा के इर्द-गिर्द दलित डायस्पोरा को संगठित कर रहे हैं। उनका संगठन डॉ. अंाबेडकर इंटरनेशनल मिशन दलित उत्पीडऩ के सवालों के साथ-साथ जाति के सवाल और आंबेडकर के रास्ते पर चर्चाएं आयोजित करता रहता है। राजू ने आउटलुक को बताया कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और बाकी हिंदुत्ववादी संगठन जाति को उत्पीडऩ का प्रतीक नहीं, संस्कृति का प्रतीक मानते हैं। ये लोग अमेरिका सहित तमाम देशों में बहुत रसूखवाली जगहों पर हैं और संसाधानों से संपन्न है। इनकी अमेरिका और ब्रिटेन के राजनीतिक हलको में पैठ है। भारत के पिछले लोकसभा चुनावों में भी इन्होंने बड़े पैमाने पर फंड जुटाया। उनके हितों की रक्षा नई सरकार को करनी होगी, इस बात को लेकर वे बहुत आश्वस्त भी है। -
एक दिलचस्प पहलू यह भी सामने आया कि भारतीय डायस्पोरा की भारतीय राजनीति में प्रभाव और पकड़ लगातार बढ़ रही है और इसे भी दलित डायस्पोरा बहुत गंभीरता से ले रहा है। खासतौर से धर्मांतरण के मुद्दे से दलित ईसाइयों, दलित बौद्धों और निश्चित तौर पर मुस्लिमों में बहुत खदबदाहट है। अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में टैक्सी यूनियन के अध्यक्ष बीजू मैथ्यू भारत में हो रही इन घटनाओं को नागरिक अधिकारों का हनन मानते हैं। उनका कहना है कि जिस तेजी ध्रुवीकरण हो रहा है, वह भारत की छवि को नष्ट कर रहा है। इसके खिलाफ धीरे-धीरे भारत के बाहर भी माहौल बनना चाहिए ऐसा बीजू का मानना है।
लंदन में कास्ट वॉच संस्था से जुड़े देवेंद्र लंबे समय से ब्रिटेन में दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उनका मानना है, क्वजिस तरह से समानता कानून 2010 लाने के लिए यहां दलितों और मानवाधिकार संगठनों ने संघर्ष किया, वह दिखाता है कि दलित डायस्पोरा में सक्रियता की बहुत जरूरत है। उस समय भी हमें सबसे ज्यादा मुश्किल हिंदूत्ववादी संगठनों के विरोध से पेश आई थी और आज भी इसे लागू करने में वे ही अड़चन पैदा कर रहे हैं। यह अंतरविरोध अभी और बढ़ेगा क्यंोकि दोनों पक्ष मजबूत हो रहे हैं।क्व
अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में रहने वाली नंदिता अवसरमल का कहना है, क्व अभी अमेरिका में दलितों की संख्या अधिक नहीं है इसलिए भारतीय डायस्पोरा में हिंदुत्ववादी विचारधारा का ही बोलबाला है। इस समाज पर अपनी परंपरा का झूठा गौरव इतना है कि सवर्ण भारतवंशी, भारत के बारे में कुछ भी बुरा नहीं सुनना चाहते हंै। वे जाति की हकीकत को नकारते हैं। ऐसे में दलित डायस्पोरा के लिए अपनी मजबूत पकड़ बनानी मुश्किल हो रही है लेकिन अंाबेडकर विचारधारा का प्रसार बहुत हो रहा है। क्वगौरतलब है कि अमेरिका सहित बाकी तमाम देशों में दलित डायस्पोरा द्वारा अंाबेडकर का जन्मदिवस, महानिर्वाण दिवस, धर्म चक्र परिवर्तन दिवस, बुद्ध जयंति आदि मना रहा है। इनके इर्द-गिर्द चेतना का विकास किया जा रहा है और लोगों को जोडऩे की कोशिश हो रही है। ऑस्ट्रेलिया में दलित मुद्दों पर सक्रिय एन.ए गायकवाड का मानना है कि आज के समय की जरूरत है कि दलित चेतना उग्र हिंदु राष्ट्रवाद के बरक्स खड़ी हो, क्योंकि तभी जाति के सवाल को सही ढंग से हल किया जा पाएगा।
शायद यही वजह है कि भारत में होने वाले दलित अत्याचार की गूंज दुनिया भर में छोटे-बड़े पैमाने पर दिखाई देने लगी है। न्यूयॉर्क में हुए प्रदर्शन (देखें बॉक्स) को इसी कड़ी में देखा जा सकता है। अमेरिका के ह्यूस्टन में डॉ. आंबेडकर एनआरआई एसोसिशन के सचिव आनंद कुमार ने बताया कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ सहित तमाम हिंदुत्ववादी संगठन सांस्कृतिक कार्यक्रमों और त्यौहारों के जरिये लोगों को जोड़ रहे हैं। लोगों को इसकी बहुत जरूरत महसूस होती है क्योंकि परदेस में अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपना खाने का अभाव होता है। यह एक अच्छा आधार मुहैया कराता है, इन संगठनों को अपना विस्तार करने के लिए। उनके अलावा कोई और संगठन इस कदर सक्रिय भी नहीं होता। उन्होंने इस खालीपन का लाभ हिंदुत्व विचारधारा के प्रसार में किया। अब दिक्कत यह है कि इसे ही भारतीय का पर्यायवाची बना दिया गया है। इसमें दलित अस्मिता की कोई जगह नहीं है। दलितों में ज्यादातर पंजाब से रविदासी, महाराष्ट्र से चमार, महार और दक्षिण भारत से दलित ईसाई आदि ही आए हैं। इसमें से जो श्रमिक स्तर के हैं, उनके मालिक भगवा राजनीति और उनके संगठनों में सक्रिय हंै। लिहाजा शुरू में इन दलितों के लिए अपनी आवाज बुलंद करना मुश्किल था, लेकिन अब स्थिति बदल रही है। वे मजबूत हो रहे हैं और यहीं वैचारिक टकराहट भी शुरू हो रही है।
भारतीय डायस्पोरा का यह दलित स्वर या दलित डायस्पोरा दुनिया के तमाम बड़े देशों में धीरे-धीरे मजबूत होता दिख रहा है। गैर दलित डायस्पोरा ने तो बड़ी तादाद में (सबने नहीं) अपनी राजनीति स्पष्ट कर दी है, अपना झुकाव स्पष्ट कर दिया है, दलित डायस्पोरा अभी उसके साथ खड़ा नहीं दिख रहा। भारत की नई सरकार से उसे भी अपेक्षाएं हैं। वह भी बेहतर सुविधाओं और व्यापार की संभावनाओं के प्रति आशावान है लेकिन जाति तथा जातिगत उत्पीडऩ के सवाल पर फिलहाल कोई समझौता करता नहीं दिखता। धीरे-धीरे यह अंतर बढऩे के ही संकेत हैं, चाहे वह अमेरिका, कनाडा या ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया हो।