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खांटी नेताओं के बजाय फ्रांस की जनता ने युवा मैक्रों पर क्यों किया भरोसा?

जब वैश्विक राजनीति में दक्षिणपंथी उभार का वक्त माना जा रहा हो ऐसे समय में फ्रांस के राष्ट्रपति के तौर पर इमैनुएल मैक्रों का चुना जाना लोगों को हतप्रभ कर रहा है। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात एक ‘नौसिखिया युवा’ होकर खांटी नेताओं को पटखनी देना है। वे 39 साल की उम्र में फ्रांस की मुख्यधारा की वामपंथी और दक्षिणपंथी पार्टियों को हराकर सबसे युवा राष्ट्रपति बने हैं।
खांटी नेताओं के बजाय फ्रांस की जनता ने युवा मैक्रों पर क्यों किया भरोसा?

जब फ्रांस सरकार में मंत्री रहे मैक्रों ने इस्तीफा देकर राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की घोषणा की तब उनका मजाक उड़ाया गया। यहां तक की उन्हें नौसिखिया भी कहा गया। लेकिन उनका अपनी प्रतिद्वंदी मरी ल पेन को वोटों के बड़े अंतराल से हराना कुछ और ही कहता है। जहां मरी ल पेन को 33.94 फ़ीसदी वोट मिले वहीं मैक्रों ने 66.06 फीसदी वोटों से बाजी मार ली।

आखिर क्या वजह रही कि फ्रांस की जनता ने मुख्य पार्टियों के बजाय नए नवेले इमैनुएल मैक्रों पर अपना विश्वास जताया-

एन मार्शे आंदोलन की स्थापना

मैक्रों के द्वारा फ्रांस्वा ओलांद की सरकार से इस्तीफा देना, अप्रैल 2016 में एन मार्शे आंदोलन की स्थापना करना उनके लिए संजीवनी साबित हुआ। वे सोशलिस्ट पार्टी से भी राष्ट्पति के लिए चुनाव लड़ सकत थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। माना जाता है कि मैक्रों ने मुख्यधारा की पार्टी के प्रति जनता की नाराजगी को भांप लिया था। और इस तरह उन्होंने सही वक्त पर अपने लिए मौका देख लिया।

नौसिखिए की रणनीति

इमैनुएल मैक्रों को एक नौसिखिए के तौर पर देखा जा रहा था। मैक्रों ने इसे ही अपनी ताकत बना ली। उन्होंने ज़मीनी स्तर पर काम करने के लिए एन मार्शे के नौसिखिए कार्यकर्ताओं को तीन लाख घरों तक भेजा। बीबीसी के मुताबिक इन कार्यकर्ताओं ने न सिर्फ़ घर घर जाकर पर्चे बांटे बल्कि देश भर में 25 हज़ार विस्तृत (करीब 15 मिनट के) इंटरव्यू इकट्ठा किए। कार्यकर्ता कैसे हर दरवाज़े तक जाएंगे, इसकी भी ट्रेनिंग दी गई। इसके आधार पर तैयार किए गए डेटा पर चुनाव प्रचार में मुद्दों और नीतियों की प्राथमिकताएं तय की गईं।

अमीरों का नहीं बल्कि बदलाव का नेता

मैक्रों की पहचान खुले तौर पर यूरोपीय यूनियन समर्थक और बदलाव की चाह रखने नेता के तौर पर बनी, जिसे लोगों ने पसंद किया। वहीं उनकी प्रतिद्वंदी मरी ल पेन उन्हें ‘समृद्धो का उम्मीदवार’ कहा करती थी जिसे मैक्रों ने कामयाब नहीं होने दिया।

दो छवियों की लड़ाई

मान जाता है कि मरी ल पेन यूरोपीय संघ और सिस्टम के खिलाफ थीं। वहीं मैक्रों पड़ोसियों से अच्छे संबंध और यूरोपीय संघ के समर्थन में थे। कुछ मीडिया का यह भी कहना है कि मरी ल पेन के कार्यक्रमों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो रहे थे, और गुस्से का वातावरण था। जबकि मैक्रों की चुनावी कार्यक्रमों में  रंग-बिरंगी रोशनी, पॉप संगीत था सकारात्मक संदेश दे रहा था। पेरिस आधारित टेरा नोवा संस्था के मार्क ओलिविएर पैडिस मीडिया से कहती हैं कि फ्रांस में इन दिनों बहुत निराशा का माहौल है और वो एक आशा और सकारात्मकता का संदेश लेकर आए हैं।

सीमा पार भी लोकप्रियता

चुनाव के दौरान मैक्रों ना सिर्फ फ्रांस में लोकप्रिय हो रहे थे बल्कि सीमा पार भी वे लोगों को अपना मुरीद बना रहे थे। जर्मन मीडिया की माने तो मैक्रों जर्मन राजनीतिक दलों की पहली पसंद बन गए थे। यहां तक कि वामपंथी डी लिंके पार्टी के प्रमुख बैर्न्ड रीसिंगर माक्रों को कामगारों के खिलाफ संघर्ष का आह्वान कहते हैं लेकिन फिर भी उन्होंने मैंक्रों को चुनने की अपील की है। एसपीडी के विदेश मंत्री जिगमार गाब्रिएल को तो वह इतना पसंद हैं कि पहले चरण के चुनाव से पहले ही उन्होंने सोशलिस्ट उम्मीदवार के बदले मैक्रों का समर्थन किया।

 

 

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