लड़ाई छठे दिन ज्यादा डरावनी हो गई। अंतरराष्ट्रीय दबाव भी बढ़ा। कनाडा में जी-7 देशों की बैठक भी इस कदर प्रभावित हुई कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को दो दिनों की बैठक के पहले दिन के बाद वॉशिंगटन लौटना पड़ा। वॉशिंगटन में अमेरिकी सिक्योरिटी काउंसिल और विदेश मंत्री मार्को रूबियो के नेतृत्व में बैठकों में ट्रम्प का रहना जरूरी हो गया था। वहां ट्रम्प ने कहा कि वे संघर्ष विराम नहीं, फाइनल डील करने जा रहे हैं। तो, क्या ईरान के साथ कोई समझौते की भूमि तैयार हो गई है? या फाइनल डील का मतलब तेहरान पर अमेरिकी हमले या वहां तख्तापलट से है? सीधे अमेरिकी हमले के संकेत इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नहीं हैं। यूरोपीय देशों के भी मिलेजुले संकेत हैं। दरअसल फ्रांस के राष्ट्रपति मैनुअल मैक्रां और उस पर ट्रम्प की टिप्पणी इस मामले में गौरतलब है। मैक्रां ने जी-7 बैठक के दौरान कह दिया कि ट्रम्प संघर्ष विराम की शर्तें तय करने के लिए बैठक छोड़कर जा रहे हैं। इस पर वहां से निकलते हुए ट्रम्प ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया कि मैक्रां कुछ भी बोलते हैं, मैं एंड डील के लिए जा रहा हूं। इससे और कुछ नहीं तो इतना तो स्पष्ट होता ही है कि हालात इतने बुरे होते जा रहे हैं कि इजरायल के पक्ष में खड़े पश्चिम के देश भी दुविधा में हैं। सभी इस लड़ाई के लंबा खिंचने के डरावने नतीजों से आशंकित हैं। उधर, ईरान और इजरायल से भी मिश्रित संकेत मिलने लगे हैं। ईरान के सर्वोच्च मजहबी नेता खामनेई कुछ शर्तों पर समझौते की बातचीत का संकेत दे रहे हैं तो इजरायल के प्रधानमंत्री नेतान्याहू भी ऐसा ही कुछ अलग ढंग से कहते लग रहे हैं।
हालांकि सार्वजनिक तौर पर तो नेतन्याहू ईरानी लोगों से तेहरान खाली करने और मजहबी नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह करने की बातें कर रहे हैं। ट्रम्प ने तेहरान के लोगों से शहर खाली करने की राय दे डाली है। उधर, खामनेई भी तेलअवीव खाली करने की इजरायली लोगों को राय दे रहे हैं। हालांकि खबरें ये भी हैं कि नेतान्याहू ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को फोन किया। पुतिन और ट्रम्प के बीच भी बात होने की खबरें हैं। यह ट्रम्प के उस बयान से भी जाहिर होता है कि जी-8 ही होता तो बेहतर था, रूस को निकालकर ओबामा ने बड़ी गलती कर दी थी। बाद में एक पत्रकार के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि इसमें चीन को भी होना चाहिए। इसका मतलब जो भी हो, मगर चीन और रूस के ईरान को सीधे मदद करने की खबरें नहीं हैं। यह जरूर है कि चीन का कोई विमान ईरान में मिसाइल और अन्य सैन्य सामग्री लेकर 17 जून को आया था। लेकिन सबसे ज्यादा चिंतित खाड़ी के देश हैं। खबरें ये हैं कि सऊदी अरब, कतर, यूएई की लगातार बातचीत दोनों तरफ हो रही है। इन देशों के लिए वहां लोगों के दबाव के कारण चाहकर भी ईरान के खिलाफ खड़ा होना मुश्किल होता है। इसलिए वे नहीं चाहते कि अमेरिका सीधे इसमें उतरे।
यह तो साफ हो गया है कि ईरान के पास लड़ाकू विमानों का बेड़ा नहीं है। शायद इसीलिए इजरायल और अमेरिका को भी इंतजार है कि ईरान का मिसाइल जखीरा खत्म हो जाएगा तो वहां तख्तापलट भी आसान हो जाएगा। उस खेमे में चिंताएं शायद इसीलिए भी बढ़ रही हैं कि ईरान के दावे के मुताबिक उसकी मिसाइलों ने एफ-35 विमान गिरा दिए हैं, लेकिन ये अभी दावे ही हैं। जो भी हालात और तबाही दोनों तरफ बढ़ती जा रही है और लोगों के तेहरान और तेलअवीव दोनों शहरों से पलायन की खबरें आ रही हैं। इजरायल ने अपने हवाई यातायात को रोक दिया है।
सुरक्षा कवचः इजरायल के आयरन डोम में ईरानी मिसाइलों का खात्मा
ईरान में इजरायल के अचानक 13 जून को हमले में तेहरान, नतांज सहित पांच-छह शहरों में जोरदार हमले के दो दिन बाद से ज्यादातर तबाही का मंजर राजधानी ही बनी हुई है। उधर, इजरायल में ईरान के जवाबी हमले का केंद्र ज्यादातर हाइफा बंदरगाह और राजधानी तेलअवीव बनी हुई है। अब तक ईरान में 585 से ज्यादा लोगों के मारे जाने और 1,326 से अधिक के गंभीर रूप से घायल होने की खबर पुष्ट हो पाई है, जिनमें उसके चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और उच्च एटमी वैज्ञानिकों की मौत भी शामिल है। उधर, इजरायल में 24-25 लोगों के मरने और करीब 400 लोगों के जख्मी होने की खबरें हैं। लेकिन इन मौतों से तबाही का मंजर काफी बड़ा है और बढ़ता ही जा रहा है।
तेलअवीव छोड़ते लोग
फिर तो दोनों तरफ से हमले शुरू हो गए। इजरायल के प्रधानमंत्री ने दावा किया कि उसके हमलों से ईरान का एटमी कार्यक्रम साल भर पीछे चला गया है। अगर यह फैलता है और पूरे पश्चिम एशिया को अपनी गिरफ्त में लेता है, तो दुनिया भर में हालात बहुत बुरे हो जाएंगे। अमेरिका और यूरोपीय देश इजरायल के साथ खड़े हैं। राष्ट्रपति ट्रम्प ईरान को चेतावनी दे रहे हैं। उधर, चीन और रूस वगैरह ने ईरान पर इजरायली हमले की निंदा की है। शंघाई कोऑपरेशन संगठन ने इजरायल की निंदा में बयान जारी किया। लेकिन भारत उससे अलग रहा। खाड़ी के देशों ने भी इजरायल की निंदा की है। अगर यह लड़ाई खाड़ी देशों में अमेरिकी अड्डों को निशाना बनाने की ओर बढ़ गई तो मंजर कुछ और ही हो सकता है, क्योंकि ईरान का आरोप है कि इजरायल को वहां से मदद मिल रही है। ट्रम्प ने भी कहा है कि इजरायल अमेरिकी हथियारों से ही लड़ रहा है।
दरअसल दुनिया का सबसे खौफनाक रहस्य यह है कि इजरायल के पास एटम बम है, अघोषित, अनपरखा और अछूता। उधर, ईरान की एटमी महत्वाकांक्षा दशकों से अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का सरोकार बनी हुई है।
तेहरान से बाहर निकलने के लिए वाहनों की लंबी कतारें
हालांकि, नेतन्याहू के आलोचकों को उनके इरादों पर संदेह है। उनका मानना है कि ईरान और ट्रम्प प्रशासन के बीच वार्ता के आगे बढ़ने से नेतान्याहू परेशान थे, इसलिए वार्ता किसी समझौते पर पहुंचे, उससे पहले हमला कर दिया। नेतन्याहू पिछले दो दशकों से कह रहे हैं कि ईरान एटमी हथियार बनाने की कगार पर है।
ट्रम्प के मुख्य वार्ताकार स्टीव विटकॉफ उच्चस्तरीय ईरानी प्रतिनिधिमंडल के साथ कम से कम तीन दौर की वार्ता कर चुके थे। अगला दौर रविवार यानी 15 जून को तय था। लेकिन अब ईरान ने आगे वार्ता को बेमानी बता दिया। अब विटकॉफ फिर वार्ता की तैयारी कर रहे हैं। असल में ट्रम्प ने इससे पहले 2018 में ईरान के साथ ओबामा सरकार के एटमी समझौते से यह कहकर किनारा कर लिया था कि वे हमेशा उसके खिलाफ थे। लेकिन ट्रम्प अब ईरान के साथ नया एटमी समझौता करने की जल्देबाजी में दिखाई दे रहे थे। और यही वह मामला है जिससे नेतान्याहू डर रहे थे। नेतान्याहू घरेलू मोर्चे पर भी बुरी तरह फंसे हुए हैं। उनकी अल्पमत सरकार डगमग है। उनके अति दक्षिणपंथी सहयोगी भी उनसे नाराज हैं। सो, ईरान पर हमला करके उन्होंने यह कोशिश की कि अमेरिका और ईरान के बीच एटमी समझौता न हो और शायद घरेलू विरोध की फिजा टाली जा सके। इसमें नेतन्याहू को निगरानी संस्था अंतरराष्ट्रीय एटमी ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) के बोर्ड की रिपोर्ट से भी मदद मिली है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ईरान ने अपने वादे का पालन नहीं किया है और आइएईए की टीमों को अपने सभी ठिकानों तक बेरोकटोक पहुंच की इजाजत देने में साफगोई नहीं बरती।
एटमी खतरा
अभी तक दुनिया में नौ देशों के पास एटमी हथियार हैं। उनमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी पांच सदस्य अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन हैं। उनके अलावा भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और इजरायल हैं। लेकिन इजरायल इसे स्वीकार नहीं करता। एटमी हथियार प्रतिरोधक की तरह हैं, जैसा कि शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के बीच था। दोनों के बीच सिर्फ एक बार जरूर एटमी हथियारों के इस्तेमाल का डर राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी के कार्यकाल में क्यूबा मिसाइल संकट के दौरान पैदा हुआ था। तब ऐसा लगा था कि अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ दोनों ही तैयारी में हैं, लेकिन दोनों आखिर पीछे हट गए।
दुनिया 1945 में एटम बम का भारी विध्वंस और विनाश देख चुकी है। तब अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर उसे फेंका था। उस विनाश और वर्षों तक उसके असर को देखकर कोई भी जिम्मेदार सरकार ऐसा करने की जुर्रत नहीं करेगी। भले कुछ हलकों में यह चिंता है कि एटमी हथियार संपन्न भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे के खिलाफ ऐसी हरकत कर सकते हैं, लेकिन दोनों ही देश ऐसा कतई नहीं करेंगे क्योंकि सीमा के दोनों तरफ के लोग उससे प्रभावित होंगे। इसीलिए, अतिरंजित धमकियों और दावों के बावजूद रूस के व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन के खिलाफ एटमी हथियार का इस्तेमाल करेंगे, ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती है।
बेशक, यह डर जरूर है कि किसी एटमी संयंत्र के पास गलती से मिसाइल या ड्रोन हमले हो सकते हैं और भीषण तबाही हो सकती है। उत्तर कोरिया के किम जोंग अमूमन उन दुश्मनों को एटमी हमले की बात करके धमकाते हैं, लेकिन अब तक उन्होंने जिम्मेदार रवैया ही दिखाया है।
ईरान-अमेरिका
विडंबना यह है कि तेहरान का एटमी सफर अमेरिकी मदद से ही शुरू हुआ, जब अमेरिका के भरोसेमंद दोस्त ईरान के शाह सत्ता में थे। शाह मोहम्मद रजा पहलवी ने 1953 में तख्तापलट करके प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग की निर्वाचित सरकार को हटा दिया और सरकार का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। अमेरिका और ब्रिटेन ने उस तख्तापलट का समर्थन किया था।
वहां एटमी कार्यक्रम 1950 के दशक में शुरू हुआ। यह तब तक ठीक-ठाक था, जब तक ईरान और पश्चिमी दुनिया के बीच टकराव नहीं उभरे थे। लेकिन 1979 की इस्लामी क्रांति से हालात बदल गए, जब शाह को देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा। अयातुल्ला खुमैनी और क्रांति के झंडाबरदार शाह से नफरत करते थे। उन्हें शाह के साथ घनिष्ठ संबंधों के कारण अमेरिका और पश्चिमी दुनिया भी उतनी ही नापसंद थी।
ईरान में फंसे भारतीय छात्र
इसीलिए, आश्चर्य नहीं कि इस्लामी क्रांति के पैरोकारों ने अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर लिया और दर्जनों अमेरिकियों को बंधक बना लिया और उन्हें 14 महीने से अधिक समय तक बंधक बनाए रखा। वहां कूटनीतिक शिष्टाचार के बदले “अमेरिका मुर्दाबाद” के नारे ही गूंजते रहे। उसके बाद ऐसी दुश्मनी और संदेह पैदा हो गया, जो आज भी एटमी गतिरोध में दिखता है।
क्रांति के दौरान अराजकता के दौर में ईरान में एटमी कार्यक्रम रोक दिया गया था, लेकिन 1980 के ईरान-इराक युद्ध के दौरान गुप्त रूप से फिर से शुरू किया गया। इसी वजह से अमेरिका-ईरान संबंधों में दरार आज भी जारी है।
समझौते के तहत 13 वर्षों के लिए ईरान ने मध्यम-समृद्ध यूरेनियम के भंडार को खत्म करने, कम-समृद्ध यूरेनियम के भंडार को 98 प्रतिशत तक कम करने और गैस सेंट्रीफ्यूज की संख्या में लगभग दो-तिहाई की कमी करने पर रजामंदी जताई थी। 15 वर्षों के लिए ईरान ने केवल 3.67 प्रतिशत तक यूरेनियम को समृद्ध करने और हेवी वॉटर की सुविधाओं का निर्माण नहीं करने पर सहमति व्यक्त की। 10 वर्षों के लिए, यूरेनियम संवर्धन पहली पीढ़ी के सेंट्रीफ्यूज का उपयोग करके एक ही संयंत्र तक सीमित रहेगा। आइएईए सभी ईरानी एटमी ठिकानों की निगरानी करेगी। इन शर्तों के पालन के बदले ईरान को अमेरिका, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रतिबंधों से राहत मिलेगी।
जेसीपीओए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2231 का हिस्सा था। सुरक्षा परिषद ने 20 जुलाई 2015 को उस पर मुहर लगाई और 18 अक्टूबर को वह लागू हुआ। जेसीपीओए पर हस्ताक्षर किए गए थे, तो मुख्य विरोध इजरायल और खाड़ी देशों, खासकर यूएई और सऊदी अरब की ओर से आया था। दरअसल तीनों ने इस समझौते को नाकाम करने के लिए हाथ मिलाया था। ईरान इस क्षेत्र में एक बड़े शक्तिशाली देश के रूप में अपने प्रॉक्सी नेटवर्क के साथ छोटे सुन्नी देशों के साथ-साथ इजरायल के लिए भी एक बड़ा खतरा बन गया। उस समय शिया-सुन्नी टकराव अपने चरम पर था। अब यह कम हो गया है, लेकिन कई पश्चिमी विशेषज्ञों का दावा है कि इजरायल के हमलों की आलोचना के बावजूद, सऊदी अरब और यूएई दोनों ही ईरान के एटमी ठिकानों के नष्ट होने से भीतर ही भीतर खुश होंगे। लेकिन खाड़ी देशों में मस्जिदों और बाजारों में इजरायल के खिलाफ गुस्सा चरम पर है, इसलिए वहां के शासक लोगों के मूड के खिलाफ नहीं दिखना चाहते हैं।
एटमी अप्रसार संधि (एनपीटी)
भारत के विपरीत, ईरान ने एटमी अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करके गलती की, जो देशों को परमाणु हथियार कार्यक्रम को आगे बढ़ाने से रोकती है। इस संधि को वैश्विक एटमी प्रसार व्यवस्था की आधारशिला माना जाता है, हालांकि इसमें देशों को असैन्य एटमी ऊर्जा के इस्तेमाल की इजाजत है। 1968 में जब इस संधि पर हस्ताक्षर हो रहे थे, तो 168 देशों ने उस पर अपनी मुहर लगाई और वह 1970 में लागू हुई थी।
भारत ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था। उसकी दलील थी कि इसमें भेदभाव है क्योंकि यह दूसरों को एटमी इस्तेमाल से रोकती है, लेकिन जिनके पास परमाणु हथियार हैं उन्हें रखने की छूट देती है। अगर निरस्त्रीकरण लक्ष्य है, तो एटमी हथियार वाले देशों को अपने भंडार नष्ट करना होंगे। उससे पांच एटमी हथियार शक्तियों- अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस को अनुचित लाभ मिला क्योंकि उन सभी ने पहले ही परीक्षण कर लिया था और जो वे चाहते थे, वह बना लिया था।
बहरहाल, हालात बिगड़ते जा रहे हैं और दुनिया में युद्घ और एटमी खतरा बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे में अमेरिका की पहल बेहद जरूरी हो गई है। तमाम अशंकाओं के बाद 16 जून को अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता ने कहा कि राष्ट्रपति का जोर युद्घ पर नहीं, शांति पर है। इसलिए शायद अमेरिका सीधे युद्घ में न कूदे लेकिन ईरान और इजरायल को भी अपने इरादों में सुधार करना पड़े। शायद पश्चिमी एशिया में स्थितियां उस तरह न बदलें, जैसा नेतन्याहू और अमेरिकी प्रशासन का इरादा रहा है।