पिछले वर्ष सितंबर में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की यात्रा पर गए थे तब भारत और अमेरिका के बीच के संबंध कुछ हद तक ठंडे पड़े हुए थे। मोदी ने अपनी उस यात्रा का इस्तेमाल यह भांपने में किया कि अमेरिका भारत और खुद उनके बारे में क्या राय रखता है। उस यात्रा के समाप्त होने तक मोदी दोनों देशों के बीच के संबंध को अच्छी तरह भांप चुके थे और इसलिए जब उन्होंने बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस समारोह का न्योता भेजा तो उनके मन में कहीं कोई दुविधा नहीं थी। दूसरी ओर ओबामा और अमेरिकी प्रशासन जरूर थोड़ा चौंका मगर इस मौके को लपकने में उन्होंने भी कोई देर नहीं की। अब जबकि यह दौरा समाप्त हो चुका है तो मुझे यह कहने में कोई संशय नहीं है कि दोनों देशों के संबंधों में सकारात्मक बदलाव साफ दिख रहा है। यह दौरा कई मायनों में अतीत को पीछे छोड़ आगे की सुध लेने वाला साबित हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दोनों ही देश यह समझने लगे हैँ कि एशिया के क्षेत्रीय और वैश्विक मामलों में दोनों देशों के राष्ट्रीय हित एक समान और एक ही ओर झुके हुए हैं और भविष्य में यह और ज्यादा एक समान होंगे। इस दौरे से निश्चित रूप से आपसी भरोसा बहुत बढ़ा है और आगे भी दोनों देशों के बीच सहयोग और हिस्सेदारी बढ़ाने की आदत बनाने में आसानी होगी।
मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति ओबामा ने दोनों देशों के बीच बातचीत के तरीके में एक नई विधि जोड़ दी है जिसके कारण अब आपसी विवाद के विषयों पर बातचीत करने में भी कोई हिचक नहीं रही है। इसी का परिणाम था कि भारत आने के पूर्व विश्व व्यापार संगठन के सामने अमेरिका ने कृषि से संबंधित भारत की चिंताओं को मान लिया जबकि पहले वह इस मुद्दे पर भारत के रुख के विरोध में था। दूसरी ओर भारत ने भी परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अमेरिकी चिंताओं का ध्यान रखने की बात मान ली है। अमेरिकी निवेशकों की चिंता थी कि भारत के परमाणु उत्तरदायित्व कानून का क्रियान्वयन किस प्रकार कि परमाणु रिएक्टर संयंत्र की सीमित जवाबदेही न हो। भारत ने इसका समाधान किया है एक बीमा पूल बनाकर जो एक जोखिम स्थानांतरण मैकेनिज्म है। इसमें यह बात जोड़ने पर सहमति बनी है किसी भी परमाणु दुर्घटना की स्थिति में चार सरकारी बीमा कंपनियां पीड़ितों को 750 करोड़ रुपये तक मुआवजे का भुगतान करेंगी। इससे ज्यादा भुगतान की स्थिति आने पर सरकार 750 करोड़ रुपये देगी। अमेरिका की तरफ से मांग थी कि अमेरिकी परमाणु रिएक्टरों वाले संयंत्र में यदि किसी अन्य देश के कलपुर्जे या अन्य उपकरण इस्तेमाल किए जाते हैं तो उसे इसकी पूरी निगरानी का अधिकार मिलना चाहिए। इसे तकनीकी भाषा में ट्रैकिंग सेफगार्ड कहा जाता है। अब अमेरिका ने मान लिया है कि उपकरणों की निगरानी अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) से किए गए भारत के समझौते के अनुसार आगे बढ़ेंगे। इस समझौते से अमेरिका ही नहीं रूस, फ्रांस और भारत के परमाणु संयंत्र और कलपुर्जे बनाने वालों को प्रोत्साहन मिलेगा। हालांकि अभी इस समझौते की पूरी जानकारी सामने नहीं आई है मगर भारत के विदेश सचिव और अमेरिका के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार यदि यह कहते हैं कि इस कानून को लेकर सहमति बन गई है तो उनकी बात न मानने का कोई कारण नहीं है।
इस दौरे की एक अहम उपलब्धि है दोनों शीर्ष नेताओं द्वारा ‘स्ट्रैटजिक विजन ऑन इंडियन ओशेन एंड एशिया पेसिफिक’ दस्तावेज जारी करना। इस विजन में मुख्य रूप से जिन चार बातों पर खास जोर दिया गया है उनमें से तीन ने चीन को भड़का दिया है। एक विजन हिंद महासागर और एशिया प्रशांत क्षेत्र खासकर दक्षिण चीन सागर में मुक्त नौ परिवहन और उसे क्षेत्र में शांति बनाए रखने से संबंधित है। दरअसल खनिज और तेल-गैस बहुल इस समुद्र क्षेत्र में चीन का अपने़ पड़ोसी देशों से विवाद चल रहा है जबकि भारत और अमेरिका दोनों के वहां आर्थिक हित हैं। दूसरी बात जिसपर चीन खफा हुआ है वह अमेरिका-जापान और भारत के बीच त्रिस्तरीय बातचीत को विदेश मंत्री स्तर तक ले जाने और इन तीनों देशों के बीच आपसी संयुक्त परियोजनाएं शुरू करने से संबंधित है। तीसरी बात जिससे चीन भड़का है वह है भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी और अमेरिकी रिबैंलेंस टू एशिया’ का सामंजस्य। चीन के विदेश विभाग ने तो इसपर सधी प्रतिक्रिया दी है लेकिन वहां मीडिया इसपर आक्रामक है। उसे लगता है कि अमेरिका भारत को आर्थिक और तकनीकी मदद देकर चीन के खिलाफ खड़ा करना चाहता है। हालांकि चीन के नेतृत्व को समझना चाहिए कि वर्तमान विश्व व्यवस्था में अमेरिका और भारत दोनों ही चीन के साथ संबंध नहीं बिगाड़ सकते और न ही बिगाड़ना चाहते हैं। दोनों के लिए चीन का अपना महत्व है और इस महत्व को भारत समय-समय पर रेखांकित करता रहा है। चीन के खिलाफ बनने वाले किसी भी एलाएंस का भारत हिस्सा नहीं है और न ही उसका ऐसा कोई ध्येय है। लेकिन चीन को भी यह समझना चाहिए कि हम अपने राष्ट्रीय हित को बढ़ावा देने वाले कदम जरूर उठाएंगे। भारत और अमेरिका संबंधों का लक्ष्य आर्थिक विकास और रोजगार को बढ़ावा देना है। अमेरिका और भारत ने संयुक्त विजन दस्तावेज में यह भी रेखांकित किया है कि दो देशों के मसले भय अथवा बल प्रयोग के जरिये नहीं बल्कि शांतिपूर्ण तरीके से निपटाएं जाएं। यह बात भारत, चीन, पाकिस्तान सब पर लागू होती है।
इस दौरे की एक खास उपलब्धि रक्षा सहयोग के क्षेत्र में है। भारत और अमेरिका के बीच यूं तो 10 वर्ष पहले ही रक्षा फ्रेमवर्क समझौता हुआ था मगर हमने इस समझौते के तहत कभी अमेरिकी पक्ष को कसौटी पर कसा ही नहीं। दरअसल भारत को हमेशा यह चिंता रहती है किसी परियोजना में अमेरिका कब तकनीकी या अन्य जरूरी सहयोग करना बंद कर दे इसका पता नहीं चलता। इसलिए रक्षा परियोजनाओं में भारत ने अपेक्षाकृत भरोसेमंद रूस के साथ ज्यादा करीबी बढ़ाई। इस दौरे में रक्षा क्षेत्र में चार छोटी परियोजनाएं तत्काल शुरू करने का समझौता हुआ है। इन परियोजनाओं को भविष्य के लिए राह बनाने वाली परियोजनाएं कहा जा सकता है। अगर ये परियोजनाएं ठीक से पूर्ण हुईं तो आपसी भरोसा और बढ़ेगा। वैसे दो बड़ी परियोजनाओं पर भी बात हुई। अब तक भारत के पास जितने भी विमानवाहक पोत रहे हैं वो या तो ब्रिटेन या रूस से आयातित थे। अब भारत अपने देश में अमेरिका के तकनीकी सहयोग से विमानवाहक पोत और जेट विमान का इंजन बनाने वाला है। ये छोटी उपलब्धियां नहीं हैं। इसके अलावा एच1बी वीजा के मामले में भारतीयों की एक बड़ी समस्या का समाधान तलाशने का भरोसा भी दिया है। अभी जो भी भारतीय इस वीजा पर अमेरिका जाते हैं उनके वेतन का एक हिस्सा वहां पेंशन फंड में कट जाता है। अमेरिका के खजाने में सलाना करीब 3 अरब डॉलर भारतीयों के वेतन से जमा हो जाते हैं। वीजा अवधि समाप्त होने पर भी ये पैसा उन्हें वापस नहीं किया जाता। अब ओबामा ने इस मुद्दे को हल करने का भरोसा दिलाया है। मेक इन इंडिया अभियान को तेजी से आगे बढ़ाने में भी यह दौरा अहम साबित होगा। आधारभूत ढांचे के क्षेत्र में तो अमेरिकी कंपनियां शायद यहां न आएं मगर उच्च तकनीक, स्मार्ट सिटी, स्वच्छ और हरित उद्योगों आदि में उनका बड़ा योगदान निश्चित रूप से रहेगा।
अमेरिका की खासियत है विज्ञान, तकनीक और नई खोजों में उनकी बढ़त। इसे भारत के साथ साझा करने के लिए जिस तेजी से कदम उठाने की जरूरत है वैसा अभी तक नहीं हो पाया है। इसरो और नासा के बीच सहयोग की अपार संभावनाओं का दोहन सही तरीके से नहीं हो पाया है। भारत की शिक्षा व्यवस्था जो 1980 के दशक तक उन्नत थी अब पिछड़ गई है। अमेरिका इसे पटरी पर लाने में हमारी मदद कर सकता है। अभी हमारे देश से लाखों छात्र वहां पढ़ने जाते हैं जबकि वहां से यहां नहीं आते। आपसी सहयोग का पूरा फायदा तभी होगा जब सहयोग दो तरफा हो। इन कमियों के बावजूद इस दौरे की उपलब्धियों से हम निश्चित ही संतुष्ट हो सकते हैं।
(लेखक पूर्व राजदूत और दिल्ली पॉलिसी ग्रुप के सलाहकार हैं)
(सुमन कुमार से बातचीत पर आधारित)