शीत युद्ध के चरम पर, ठीक 50 साल पहले, बांग्लादेश ने 16 दिसंबर को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में स्वतंत्रता प्राप्त की और पाकिस्तान के 23 साल के शासन को समाप्त कर दिया। इस पूरे 23 साल को विरोध और प्रतिरोध के साथ-साथ उत्पीड़न और नरसंहार की हिंसक घटनाओं की एक श्रृंखला द्वारा चिह्नित किया गया था, जिसने वैश्विक ध्यान आकर्षित किया। पूर्व प्रधानमंत्री और बांग्लादेश के 'संस्थापक पिता' शेख मुजीबुर रहमान ने 1971 में, पाकिस्तान द्वारा की गई शासन को "निरंतर विलाप और बार-बार रक्तपात" का पर्याय बताया था। 16 दिसंबर को, बांग्लादेश की राष्ट्रवादी ताकतों ने नौ महीने के लंबे युद्ध को समाप्त करते हुए, ढाका को पाकिस्तानी सेना के हाथों से छीनने में कामयाब रही थी। आज ही के दिन पाकिस्तान ने बांग्लादेश और भारत के सामने समर्पण के लिए हस्ताक्षर किया था और इसी के साथ एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बांग्लादेश का उदय हुआ।
यह दिन केवल बांग्लादेश के लिए ही नहीं बल्कि भारत के लिए भी यादगार है। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, जिसे बांग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम के रूप में भी जाना जाता है, वो 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के 50 साल पूरे होने का भी प्रतीक है। 16-17 दिसंबर, 1971 को, 92,000 से अधिक पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों, नाविकों, वायुसैनिकों, अर्धसैनिक कर्मियों, पुलिसकर्मियों और नागरिकों ने युद्ध के 13 दिनों के बाद पूर्वी पाकिस्तान में भारत के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। हालांकि ये जीत भी एक कीमत पर आई थी। भारत के सशस्त्र बलों के कम से कम 12,189 कर्मी या तो मारे गए, या लापता हो गए या आजीवन भर के लिए विकलांग हो गए।
बंगाली राष्ट्रवाद
बांग्लादेश, (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) मुक्ति युद्ध और क्रांति को संदर्भित करता है। इस आंदोलन में पूर्वी पाकिस्तान की व्यापक आबादी शामिल थी। बांग्लादेशी नागरिक और कई मिलिशिया संगठन सड़कों पर उतरे और और उन सभी लोगों के खिलाफ हथियार उठाए जो सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से अलग पूर्वी पाकिस्तान पर पश्चिमी पाकिस्तान के शोषक और वर्चस्ववादी शासन के रूप में दावा करते थे।
1947 में विभाजन के बाद से, बांग्लादेश ने न केवल भौगोलिक रूप से बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी एक असंगति प्रस्तुत किया। पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले लगभग 75 मिलियन लोगों में बहुसंख्यक बंगाली मुसलमान शामिल थे, जिनमें हिंदू, ईसाई और बौद्ध बड़े अल्पसंख्यक थे। बंगाली मुसलमान अलग दिखते थे और उनका एक अलग राजनीतिक दृष्टिकोण था जो उदारवाद की ओर झुकता था। पश्चिमी पाकिस्तान से 1600 किमी की दूरी पर, बंगाली और पाकिस्तानी संस्कृति का एकीकरण और बंगाली मुसलमानों और पश्चिमी पाकिस्तान के पठानों के बीच नस्लीय तनाव नहीं था। लेकिन बंगाली भाषा को प्रशासनिक और शैक्षिक उपयोग से मिटाने के प्रयासों, बंगाली राष्ट्रवादी आवाजों की राजनीतिक नाकामी और बंगाली संस्कृति के समग्र दमन ने बांग्लादेश में गुस्से को और बढ़ा दिया, जिससे अलगाव की मांग तेज हुई।
विभाजन के बाद के वर्षों से लेकर बांग्लादेश युद्ध तक की कई घटनाओं को आंदोलन के अग्रदूत के रूप में देखा जा सकता है। सांस्कृतिक और राजनीतिक तनावों के साथ-साथ भौगोलिक रूप से अलग-अलग दो विंगों को नियंत्रित करने की प्रशासनिक चुनौतियों ने सत्ताधारी मुस्लिम लीग के विरोध में बांग्लादेश में अवामी लीग जैसे बंगाली राष्ट्रवादी दलों का उदय हुआ।
1951 के भाषाई आंदोलन के बाद पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राष्ट्रीय भाषा घोषित किया और बंगाली को दूसरी राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने से साफ इंकार कर दिया। इसने अवामी लीग को संगठित करने में मदद की और बंगाली राष्ट्रवादी आंदोलन को और बढ़ावा दिया।
1970 के चुनाव बांग्लादेश के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि उसने पाकिस्तान के गठन के बाद से देश में पहले लोकतांत्रिक चुनावों को चिह्नित किया था। शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग ने चुनावों में जबरदस्त जीत हासिल की थी, लेकिन उनकी पार्टी को सरकार बनाने की अनुमति नहीं दी गई और प्रधान मंत्री याह्या खान के तहत पश्चिम पाकिस्तान ने बांग्लादेश में मार्शल लॉ लगा दिया गया।
बंगाली मुस्लिमों के साथ हिटलर जैसा एक नरसंघार
मुक्ति युद्ध ने सीधे तौर पर बांग्लादेशी नरसंहार को और तीव्र करने में मदद किया था, जब मार्च 1971 में पश्चिमी पाकिस्तान (पाकिस्तान) सेना ने बांग्लादेश में बंगाली राष्ट्रवाद पर कार्रवाई करने का फैसला किया था। उसी दौरान पश्चिमी पाकिस्तान ने शेख मुजीबुर रहमान द्वारा जीते गए बांग्लादेश में 1970 के चुनावों के परिणामों को रद्द कर दिया और अगले वर्ष ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया।
बांग्लादेश मुक्ति युद्ध नौ महीने तक चला था। उस समय के दौरान बांग्लादेश में पाकिस्तान समर्थक इस्लामी समूहों जैसे जमात-ए-इस्लाम और मर्सेनरी सेनाओं के साथ मिलकर पश्चिम पाकिस्तान की सेना ने 2 से 3 मिलियन लोगों की हत्या और दो से चार लाख महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। जबकि, इतिहासकारों और शिक्षाविदों द्वारा इन संख्याओं का विरोध किया जाता है (पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर नागरिक हताहतों की संख्या केवल 26,000 बताई है)। हालांकि, नरसंहार के रूप में हत्याओं और बलात्कारों के बारे में लोगों के बीच व्यापक सहमति है।
हालाँकि, बांग्लादेशी राष्ट्रवादियों ने मुक्ति वाहिनी के नेतृत्व में अपनी छापामार सेना के साथ पाकिस्तानी और इस्लामी मिलिशिया से लड़ाई लड़ी। लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) सुब्रत साहा लिखते हैं, "नरसंहार से पाकिस्तान का उद्देश्य बंगालियों को भारत में शरण लेने के लिए मजबूर करना था ताकि एक जनसांख्यिकीय परिवर्तन को प्रभावित किया जा सके और उन्हें पश्चिमी पाकिस्तानियों के साथ बदल दिया जा सके।"
भारत की भागीदारी और भारत-पाकिस्तान युद्ध
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने बंगाली राष्ट्रवादियों को आर्थिक, सैन्य और साथ ही राजनयिक समर्थन दिया। उस समय लाखों बंगाली शरणार्थी भारत में आए और इससे भी अधिक आंतरिक रूप से विस्थापित हुए।
हालाँकि, भारत युद्ध में औपचारिक रूप से 3 दिसंबर के बाद ही शामिल हुआ था जब पाकिस्तानी वायु सेना ने ग्यारह भारतीय वायु सेना के ठिकानों पर पूर्वव्यापी हमले किए थे।
पाकिस्तानी हमले भारत और पाकिस्तान के बीच सशस्त्र शत्रुता की शुरुआत थी, जिसकी नतीजा 16 दिसंबर को ढाका (वर्तमान ढाका) के पतन और बांग्लादेश की मुक्ति के साथ हुई।
इससे पहले, 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध ने बांग्लादेश में भी शिकायतें पैदा की थीं क्योंकि पाकिस्तानी सरकार ने पूर्वी मोर्चों को कोई अतिरिक्त सैन्य सहायता नहीं दी थी। हालाँकि, बांग्लादेश युद्ध में भारत की भूमिका ने स्वतंत्र बांग्लादेश के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस वर्ष हम बांग्लादेश की मुक्ति और पाकिस्तान के खिलाफ भारत की शानदार जीत के लिए युद्ध की स्वर्ण जयंती मना रहे हैं। यह शेख मुजीबुर रहमान की जन्मशती भी है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने पाकिस्तान से नरसंहार के खिलाफ युद्ध लड़ा था।
ढाका विश्वविद्यालय में इंटरनेशनल रिलेशन के प्रोफेसर
लैलुफ़र यास्मीन के अनुसार, "बांग्लादेशी मुक्ति संग्राम के लिए भारत का समर्थन और भारत में आने वाले लाखों बांग्लादेशी शरणार्थियों के साथ उसका व्यवहार, गांधीवादी और नेहरूवादी दर्शन को दर्शाता है।"
भारत ने न केवल राजनयिक मोर्चे पर बल्कि सैन्य मोर्चे पर भी बांग्लादेश के लिए लड़ाई लड़ी। यास्मीन ने बताया कि बांग्लादेश के मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए ट्रैक 1 और ट्रैक 2 कूटनीति का भी इस्तेमाल किया गया और बांग्लादेश के कारण को प्रत्यक्ष समर्थन प्रदान किया गया।
आज बांग्लादेश मुक्ति संग्राम क्रांति और लोकतंत्र की जीत के साथ-साथ भारत और बांग्लादेश के बीच मित्रता और सौहार्द का प्रतीक बना हुआ है।