भूले-बिसरे क्रांतिकारियों के जीवन और क्रांतिकारी कृत्यों तथा उनके उपेक्षित परिजनों की खोज में करीब एक दशक से लगे, सांप्रदायिकता विरोधी संस्था ‘अवाम का सिनेमा’ के कर्ता-धर्ता शाह आलम ने आउटलुक को यह जानकारी दी। उन्होंने ‘चंबल स्टडी संर्किल’ का आयोजन संबधी पत्र साझा करते हुए बताया है कि 1857 में सामरिक और छापामार जंग की दृष्टि से अहम माने जाने वाले पचनदा पर 25 मई के दिन हजारों क्रांतिकारियों ने इकट्ठा होकर इसे क्रांति का बड़ा केंद्र बनाया। राष्ट्रीय नेतृत्व 1872 तक यहीं से लगातार अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ शंखनाद कर अंग्रेजों के नाक में दम करता रहा।
पत्र के मुताबिक चंबल को 'नर्सरी आफ सोल्जर्स' यानी सिपाहियों की नर्सरी कहा जाता है। 1857 के आजादी के पहले आंदोलन में जब पूरे देश में क्रांति के केंद्र ध्वस्त कर दिए गए, तो यही धरती महान स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों का ट्रेनिंग सेंटर बन पायी। जननायक गंगा सिंह, रूप सिंह सेंगर, निरंजन सिंह चौहान, जंगली-मंगली बाल्मीकि, पीतम सिंह, बंकट सिंह कुशवाह, चौधरी रामप्रसाद पाठक, गंधर्व सिंह, भैरवी, मुराद अली खां, काशीबाई, शेर अंदाज अली, चिमना जी, तेजाबाई, शेर अली नूरानी, चुन्नी लोधी, ताज खां, शिवप्रसाद, हर प्रसाद, मुक्खा, गेंदालाल दीक्षित, बागी सरदार लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी, राम प्रसाद बिस्मिल, भारतवीर मुकंदीलाल गुप्ता जैसे तमाम करिश्माई योद्धाओं के लिए शरणस्थली रही घाटी ने न केवल नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में सबसे ज्यादा सैनिक दिए बल्कि आज भी अपने नौनिहालों को देश रक्षा के लिए भेजती है।
आलम दस्तावेजों और बुजुर्गों की स्मृतियों के हवाले से बताते हैं कि 1857 के बाद भी चंबल से इंकलाब का बिगुल बजता रहा। 1916 में बने उत्तर भारत के गुप्त क्रांतिकारी दल ‘मातृवेदी’ की सेन्ट्रल कमेटी में 40 क्रांतिकारी सदस्यों में से 30 चंबल के ‘बागी’ ही शामिल थे। यहां के वीर रणबांकुरों ने चीनी मुक्ति संग्राम में भी अपनी आहुति दी।
आलम ने बताया कि 160 साल पहले हमारे लड़ाका पुरखों ने जो आवाज बुलंद की, उसकी याद में जगम्मनपुर, जालौन में 25 मई को पूर्वाह्न 11बजे शुरू हो रही इस ‘जनसंसद’ में घाटी क्षेत्र के जालौन, औरैया, इटावा, भिन्ड, मुरैना, धौलपुर के प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे।