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सांस्कृतिक धरोहर कुमाऊनी रामलीला

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में की थी। परंतु उसके लगभग दो सौ साल बाद कुमाऊं में अल्मोड़ा के पंडित देवीदत्त जोशी ने ब्रजभाषा में श्री रामलीला नाटक लिख कर एक अनूठा प्रयोग किया। पूरी तरह गेयशैली में लिखे गए इस नाटक में उन्होंने अनेक स्वरचित गीत डाले।
सांस्कृतिक धरोहर कुमाऊनी रामलीला

देवीदत्त जोशी की रामलीला रामचरितमानस पर ही आधारित है। आधुनिक मंचीय रामलीला में भी कहीं-कहीं चौपाई-दोहों-सोरठों इत्यादि का गायन होता है, परंतु इस रामलीला में सभी संवाद गाकर ही प्रस्तुत किए जाते हैं।

इस रामलीला में संस्कृत रंगमंच और पारसी नाटक के साथ-साथ नौटंकी, नाच, जात्रा, रासलीला इत्यादि लोक-शैलियों के भी तत्व सम्मिलित हैं। दुनिया के इस सबसे लंबे ऑपेरा (नृत्य-नाटिका) ने यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक संपदा सूची में अपना स्थान बना लिया है।

विभिन्न अनुमानों के अनुसार यह रामलीला सन 1830 से 1860 के बीच किसी समय लिखी गई, जिसके पहले मंचन की तिथि के विषय में भी एक मत नहीं है। संभवत: सन 1860 में अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मंदिर में बद्रीदत्त जोशी ने इसका पहला आयोजन किया था।

श्रीरामलीला नाटक के लेखक देवीदत्त जोशी के बारे में कहा जाता है कि वह अंग्रेजी शासन में डिप्टी कलेक्टर के पद पर थे। अपनी सरकारी सेवा के दौरान विभिन्न स्थानों पर उनकी नियुक्तियां हुईं। इसी दौरान उन्हें उत्तरी भारत की विभिन्न नाट्य-शैलियों के बारे में जानने का अवसर मिला होगा। भारतीय शास्त्रीय संगीत का भी उन्हें अच्छा ज्ञान रहा होगा तभी उनकी रामलीला में इन शैलियों और परंपराओं के विभिन्न तत्वों की झलक दिखाई पड़ती है।

उनका यह नाटक शीघ्र ही पूरे कुमाऊं तथा गढ़वाल क्षेत्र में फैल गया। उत्तराखंड के बाहर भी जहां-जहां इस क्षेत्र के लोग गए,  वह इस गेय रामलीला को अपने साथ वहां ले गए। दिल्ली,  लखनऊ, ‌ झांसी इत्यादि अनेक स्थानों पर यह रामलीला होती रही है और आज भी हो रही है। रामचरितमानस का छंदबद्ध वाचन तो उत्तर भारत में तुलसीदास जी के समय से ही हो रहा है। परंतु कुमाऊनी रामलीला की गायन और अभिनय के साथ प्रस्तुति ही इस रामलीला के आयोजन को एक भव्यता और आकर्षण प्रदान करती है।

शास्त्रीय राग-रागिनियों तथा विभिन्न लोकधुनों में निबद्ध यह रामलीला भारतवर्ष की गेय रामलीलाओं में से एक है - राजस्थान में कोटा के निकट पाटुंदा, हरियाणा में रोहतक में गायन-परंपरा की रामलीलाएं होती रही हैं,  जिनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। 

भीमताली तर्ज पर आधारित कुमाऊनी रामलीला का एक विशेष ध्यान देने योग्य पक्ष है गायन की तर्ज का लीला के पात्रों के अनुसार विभाजन। चौपाईयों-दोहों इत्यादि की अपनी विशिष्ट गायन-पद्धति होते हुए भी इस रामलीला में राम और रावण स्वयं तथा उनके पक्षों के बाकी सभी पात्र भी अपने-अपने संवाद गैर राक्षसी तथा राक्षसी तर्जों में गाते हैं। संगीत का यह विभाजन पूर्णतया स्थानीय है।

इस रामलीला के संगीत विद्वान स्वर्गीय मोहन उप्रेती के अनुसार,  राक्षसी तर्जों का आधार राग कल्याणी होता है,  जिन्हें लय में गाया जाता है और जो संगीत में आक्रमकता पैदा करता है। इसके विपरीत,  गैर-राक्षसी तर्ज का गायन राग खमाच के आधार पर विलबिंत या धीमी लय में होता है,  जिससे शांति,  करूणा इत्यादि भावों की उत्पत्ति होती है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के माध्यम से संगीतज्ञ हिमांशु जोशी ने कुमाऊं क्षेत्र की विभिन्न राम लीलाओं के लगभग चार सौ गीतों का संकलन कर इस सांस्कृतिक विरासत का एक वृहद अभिलेख तैयार किया है।

कुमाऊनी रामलीला पर एक अन्य विद्वान गीत नाट्य प्रभाग के भूतपूर्व निदेशक प्रेम मटियानी के अनुसार कुमाऊनी रामलीला के संगीत की पूरी पद्धति राजस्थानी है,  जिसमें दोहा,  चौपाई,  सोरठा और लावणी के अतिरिक्त राजस्थान की मांड इत्यादि लोक-शैलियों का भी स्पष्ट प्रभाव नजर आता है।

सोलहवीं से अठाहरवीं शताब्दी के दौरान राजस्थान से कुमाऊं बड़ी संख्या में विस्थापित होने वाले लोग इस रामलीला को वहां से अपने साथ लाए होंगे। (बृजक्षेत्र का भरतपुर और उसके आसपास का बड़ा भूभाग राजस्थान में आता है। यह क्षेत्र रासलीला और नौटंकी का भी अच्छा-खासा गढ़ रहा है।)

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में सरकारी सेवाओं की तलाश में जब कुमाऊं के लोगों ने दिल्ली, लखनऊ इत्यादि शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन किया,  तब ये लोग इस रामलीला को भी अपने साथ उन-उन स्थानों पर लेकर गए। अनेक लोग इस विद्या में निरंतर नए प्रयोग भी कर रहे हैं। कुमाऊं क्षेत्र में कलाकार पूरे शरीर पर शनील का चोगा या कोटनुमा परिधान पहनते थे,  जो उस क्षेत्र की शीतल रातों में आवश्यक रहे होंगे। परंतु शिवदत्त पंत ने दिल्ली के गर्म वातावरण को ध्यान में रखते हुए अपनी रामलीला में पुरुष पात्रों को केवल धोती और दुपट्टे के परिधान में रखा है। आधुनिक अभिरूचियों के अनुरूप उन्होंने कहीं-कहीं मृदंग की तेज ताल पर कहरवा पर नृत्य डालकर एक नया प्रयोग किया है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर मनोज पंत ने इसे एक समसामयिक रंग देने के लिए पश्चिमी संगीत की जैज,  साल्सा,  लातीनों और रॉक ऑपेरा शैली में प्रस्तुत किया है। फ्यूजन शैली की इस रामलीला को वह दो घंटों में प्रस्तुत करते हैं। विख्यात नृत्य-सम्राट उदयशंकर ने इस रामलीला की छाया-पुतुल प्रस्तुति देकर तथा इसे नृत्य-नाटिका (बैले) बनाकर भी इसमें नए प्रयोग किए थे। उनके इन प्रयोगों ने अनेक स्थानों पर इस रामलीला को प्रभावित किया है।

इस प्रकार तुलसीदास जी ने अवधी-भाषी रामचरितमानस के अखंड पाठ का वाचन, पं. देवीदत्त जोशी की ब्रजभाषी कुमाऊनी रामलीला  तथा उत्तरी  भारत के नगरों में बड़े पैमाने पर खेली जाने वाली पारसी शैली की खड़ी बोली में रामलीला (जिसमें राधेश्याम कथावाचक की रामलीला भी शामिल है) दिल्ली में ऐसी कितनी ही कुमाऊनी रामलीलाएं पिछली शताब्दी के पचास के दशक से ही चलती रही हैं जिनमें दरियागंज (बाद में कोटला फिरोजशाह मैदान),  राऊज एवेन्यू (मिंटो रोड),  आनंद पर्वत, पचकुइयां रोड,  किदवई नगर इत्यादि अनेक स्थानों पर दर्जनों रामलीलाएं होती रहीं हैं। कुछ लोगों के अनुसार,  इनमें से कुछ रामलीलाएं आजादी के पहले पेशावर,  कराची में होती रहीं,  जो विभाजन के बाद दिल्ली आईं।

शुरू में इन रामलीलाओं में स्त्री पात्र भी पुरुष ही निभाते थे। सभी कलाकार बारह-तेरह वर्ष की आयु के ही होते थे,  जो परंपरा कुमाऊं में अनेक स्थानों पर अभी भी विद्यमान है। दिल्ली आदि में अब वयस्क लोग यह रामलीला कर रहे हैं और महिलाएं भी इसमें बढ़-चढक़र हिस्सा ले रही हैं। इनमें से अधिकतर कुमाऊनी (गढ़वाली भी) रामलीलाएं शहर के विकास का शिकार होकर बंद हो चुकी हैं।

यूनेस्को से मान्यता प्राप्त इस सांस्कृतिक धरोहर के दिल्ली में हुए विनाश से विकास बनाम विनाश का प्रश्न एक बार फिर सामने आ खड़ा हुआ है। हालांकि, हर्ष का विषय है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र एवं दिल्ली के बाहरी इलाकों ब्रजविहार,  इंदिरापुरम,  प्रताप विहार,  बुराड़ी,  किराड़ी इत्यादि क्षेत्रों में नई कुमाऊनी रामलीलाएं शुरू हो रही हैं जो इस विरासत के आगे गतिमान होने के प्रति आश्वस्त करती हैं।

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