दिल्ली में चल विश्व पुस्तक मेला अपने अंतिम चरण में है। दुनिया भर के प्रकाशक यहां पिछले 15 दिन से डेरा जमाए हुए हैं। ढेर सी किताबें लिए वे सुंदर ढंग से किताबें सजाए पाठकों (ग्राहक नहीं) का इंतजार कर रहे हैं। उनके स्टॉलों पर भीड़ तो दिखाई देती है, मगर यह मुरीदों की नहीं लेखकों की भीड़ है। वैसे तो पुस्तक मेले में लेखकों का जुटान कोई नई बात नहीं है। आखिर अपनी पुस्तकों को शेल्फ पर रखा देखना किस लेखक को नहीं भाएगा। पर यह पुस्तक मेला कई मायनों में याद रखा जाएगा। हॉल 12ए जहां हिंदी के सभी प्रतिष्ठित प्रकाशक विराजे हैं, पूरे पुस्तक मेले का सबसे बड़ा केंद्र है। देश-विदेश से लेखक प्रकाशकों के स्टॉल को धन्य कर रहे हैं।
तरह-तरह के कार्यक्रम हो रहे हैं और मोबाइल स्थायी रूप से ‘सेल्फी मोड’ पर ही रख दिए गए हैं। ‘आपने मेरी किताब ली?’ ‘मेरी किताब का लोकापर्ण इतनी बजे इतने नंबर स्टॉल पर है, जरूर आइए।’ ‘मेरी किताब का विमोचन बड़े दिग्गज कर रहे हैं’ ‘मैंने तो उनके साथ सेल्फी ले ली अब फेसबुक पर लगाने जा रही/रहा हूं’, ‘अरे आपने मेरी किताब नहीं खरीदी।’ हॉल नंब 12ए में ऐसे ही वाक्य तैर रहे हैं। लेखक, लेखक होने का असली धर्म निभा रहे हैं और अपने समकालीन या वरिष्ठ लेखकों की किताबें हें हें हें की ध्वनि के साथ खरीद रहे हैं।
फेसबुक के पेज मेले की फोटो के बोझ से कमनीय काया की तरह झुक गए हैं। हर आधे घंटे में कम से कम दो फोटो का लक्ष्य रखने वाले सुबह से ही चिंतित रहते हैं कि आज किस स्टॉल पर कौन सेलेब्रिटी आने वाली है। किस के साथ फोटो और किसकी किताब के साथ फोटो खिंचवानी है। कुछ ‘धैर्यवान’ हैं जो पूरे दिन का लेखा-जोखा ले कर शाम को एक साथ ही फेसबुक के अपने पेज को गुलजार कर देते हैं। समझदार लोग स्मार्ट फोन हाथ में लिए बस तैयार हैं, जैसे गेट, सेट, गो होगा वैसे ही वे लाइक का बटन खट्ट से दबा देंगे।
इस बार पुस्तक मेले में आने वाला हर व्यक्ति लेखक है। लगभग सभी की कोई न कोई पुस्तक प्रकाशित हो रही है। कविता-कहानी के दिन भले ही न लदे हों पर हां धर्म, अध्यात्म, रसोई, सकारात्मक विचार और जो भी विषय आप सोच सकें उस पर पुस्तकें आ रही हैं और विमोचन में तारीफ के पुल बंध रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार अनंत विजय ने तो अपनी फेसबुक वॉल पर लिख ही दिया, ‘इस पुस्तक मेले का नाम बदल कर विमोचन मेला कर देना चाहिए।’ वास्तव में यह पुस्तक मेला इस बार विमोचन मेले के रूप में ही याद किया जाएगा।
इस पुस्तक मेले में किसी की किताबों से मुलाकात हुई हो न हो, हर वर्ग, हर क्षेत्र के लेखकों से मुलाकात जरूर हो गई है। यह कोई बुरी बात नहीं है। इतने लेखकों से एक साथ मिलने का मौका मिलना वाकई दुर्लभ है। रोज-रोज मुलाकातें भी नहीं हो सकतीं। पर अच्छा हो साहित्य की दशा-दिशा पर इमानदार चिंतन हो, बात हो। केवल किताबों की संख्या से किसी लेखक को तौलने से अच्छा है उसकी सामग्री पर बात हो। तभी तो विश्व में हमारी पुस्तकों का डंका बजेगा।