गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल बन चुके जश्न-ए-बहार मुशायरे में जब मुशायरे की सदारत कर रहे, वसीम बरेलवी साहब ने पढ़ा, ‘निगाहों के तकाजे चैन से मरने नहीं देते, यह मंजर ही ऐसा है कि दिन भरने नहीं देते। कलाम मैं तो उठा के जाने कब का रख चुका होता, मगर तुम हो के किस्सा मुख्तसर करने नहीं देत।’
दिल्ली में जश्ने-बहार न्यास के इस कार्यक्रम की सफलता ही यह है कि पूरे साल श्रोता इस कार्यक्रम का इंतजार करते हैं। देश-विदेश से आए उर्दू अदब शायर इस कार्यक्रम में चार चांद लगा देते हैं।
पाकिस्तान से आईं किश्वर नाहिद, अमजद इस्लाम अमजद, अमेरिका से आए डॉ. अब्दुला अब्दुला, कनाडा से आए अशफाक हुसैन जैदी, सऊदी अरब से आए उमर अल-अदिरूस और चीन से आए जेंग शी शुन ने श्रोताओं को पांच घंटे से भी ज्यादा समय बांधे रखा।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति लेफ्टिनेंट जनरल जमीरउद्दीन शाह मुख्य अतिथि थे। उन्होंने कहा, ‘उर्दू को मुल्क के साथ जोड़े, मजहब के साथ नहीं। उर्दू हिंदुस्तान में पैदै हुई थी और हिंदुस्तान की जबान है।’ इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार, कुलदीप नैयर भी उपस्थित थे। उर्दू को मजहबी जबान से निकाल कर प्यार की जबान बनाने के लिए कोशिश करने वाली और जश्न-ए-बहार न्यास की संस्थापक कामना प्रसाद ने कहा, ‘मुशायरा हर किस्म की तफरीक और तक्सीम की मुखालफत करता है। इसमें शरीक होने वालों का मजहब सिर्फ एक होता है और वह है मजहबे दिल।’
जश्न-ए-बहार का यह 17वां साल था। दिल्ली भर में पूरे साल इस कार्यक्रम का इंतजार किया जाता है।