भूमंडलीकरण के इस दौर में ग्रामीण जीवन और परिवेश का धरातल काफी हद तक प्रभावित हुआ है और इसी बदलते दौर तथा हालातों को किस्सागोई तथा फैंटेसी के जरिये कथाकार हरि भटनागर ने बड़ी ही सहजता से अपने उपन्यास में दर्ज किया है। देशज ठाठ लिए उपन्यास ‘एक थी मैना एक था कुम्हार’ अपने समय का एक जरूरी विवरण प्रस्तुत करता है। इस आशय के विचार वनमाली सृजन पीठ द्वारा स्वराज संस्थान में आयोजित समीक्षा गोष्ठी में विभिन्न वक्ताओं ने व्यक्त किए। हिंदी के सुपरिचित कथाकार हरि भटनागर के हाल ही में प्रकाशित एवं चर्चित उपन्यास ‘एक थी मैना एक था कुम्हार’ को केंद्र में रखते हुए विख्यात कथाकार-नाटककार असगर वजाहत ने कहा कि यह उपन्यास समाज के वर्गीय सच को सामने लाता है और यथार्य तथा फैंटेसी के दो धरातलों पर चलता है।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए कथाकार आलोचक संतोष चौबे ने कहा कि पूरा उपन्यास अपनी रचना में पठनीय, सुंदर और असरदार बन पड़ा है। श्री चौबे ने भी फैंटेसी को टूल के रूप में रेखांकित करते हुए कहा कि इस दृष्टि में हरि अपने कथात्मक कौशल का बेहतर ताना-बाना बुनते नजर आते हैं।
युवा आलोचक आशीष त्रिपाठी ने हरि के उपन्यास को पारंपरिक किस्सागोई लोककथा और आख्यान का अद्भुत मेल बताया। इस अवसर पर मूर्धन्य व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने भटनागर के उपन्यास पर अपनी तर्क संगत टिप्पणी की। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ कथाकार मुकेश वर्मा ने किया। आभार प्रदर्शन वनमाली सृजनपीठ के संयोजक विनय उपाध्याय ने किया।