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यूरोपीय विकास के बरक्स गांधी की परिकल्पना

संघर्ष सत्ता और सामाजिक व्यस्था में शिखर पर जगह बनाने को लेकर होता रहा है। लेकिन इसके उलट गांधी और मार्क्स दोनों निचले धरातल को ऊपर उठाकर पूरे समाज के उन्नयन की वकालत करते हैं।
यूरोपीय विकास के बरक्स गांधी की परिकल्पना

गांधी और मार्क्स दोनों के चिंता के केंद्र में समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोग हैं। लेकिन जहां मार्क्स सर्वहारा वर्ग संघर्ष और औद्योगिक इकाइयों कि दीवार लांघ नहीं पाए वहीं गांधी का अंतिम जन समाज के अंतिम तल्ले पर खड़े लोगों के अनुभवों को विविधता में समेटे हुए है। इसका कारण है कि मार्क्स की स्थापना पुस्तकालयों में किए शोध का नतीजा है तो गांधी का निष्कर्ष पूरी दुनिया में घूमकर अर्जित अनुभव और लंबे संघर्ष का परिणाम है। ये बातें सत्याग्रह शताब्दी वर्ष के अवसर पर समाजवादी चिंतक सचिदानंद सिन्हा ने "गांधी को कैसे समझे"  विषय सेमिनार को संबोधित करते हुए कही। व्याख्यान का आयोजन देशज संस्था के बैनर तले गांधी संग्रहालय, मोतिहारी में किया गया था।

एलएस कॉलेज के प्रोफेसर प्रमोद कुमार ने कहा कि गांधी की वैचारिक यात्रा या चिंता की शुरुआत समाज के अंतिम व्यक्ति से होती है। इसी अंतिम जन के लिए स्पेस तलाशने के संदर्भ में वह भारतीय परंपरा की पुनर्र्व्याख्या करते हैं और यहीं से पश्चिम के साथ वैचारिक टकराहट की शुरुआत होती है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए डॉ राजीव रंजन गिरि ने कहा कि गांधी को आज कुछ लोग भगवान तो कुछ लोग टोकन बनाने पर तुले हुए हैं। पर इससे इतर सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में गांधी के पुनर्पाठ की कोशिश की जा रही है। यह व्याख्यान भी इसी कवायद कि एक महत्वपूर्ण कड़ी है। कार्यक्रम की अध्यक्षता गांधी संग्रहालय के सचिव ब्रजकिशोर सिंह ने की। शिरकत करने वालों में प्रो.नसीम अहमद, राय सुंदरदेव शर्मा, विनय कुमार उपाध्याय, अमरेन्द्र सिंह, कुणाल प्रताप, बजरंगी ठाकुर, वेद प्रकाश आर्य, नवल किशोर प्रसाद, रंजित गिरि, गांधी भक्त तारकेश्वर, वसंत राय, नंदकिशोर साह, मुन्ना आर्य, भावेश असगर प्रमुख थे। 

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