‘अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी का नाम, खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में स्थापित करने वाले प्रमुख कवियों में सर्वोपरि है। हिंदी साहित्य में खड़ी बोली के काव्य को प्रतिष्ठा दिलाने वाले अग्रगण्य कवियों में उनका स्मरण अत्यंत आदर और सम्मान सहित किया जाता है। हिंदी साहित्य के तीन युग - भारतेंदु युग, द्विवेदी युग और छायावादी युग में पदार्पण करके ‘हरिऔध’ जी ने अद्भुत रचनात्मक योगदान देकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। उनका स्थान हिंदी कविता के आधार-स्तंभों में एक आधार-स्तंभ के रूप में सुनिश्चित हुआ। उन्होंने खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्य निर्माता के रूप में, हिंदी काव्य के विकास में ‘नींव का पत्थर’ रखकर महत्वपूर्ण योगदान दिया।
‘हरिऔध’ जी का जन्म १५ अप्रैल, १८६५ को आजमगढ़ जिले के निजामाबाद में हुआ था। इनके पिता भोलासिंह और माता रुक्मणि देवी थे। बचपन में उन्होंने विद्यालय की बजाए घर पर ही उर्दू, संस्कृत, फारसी, बांग्ला एवं अंग्रेज़ी भाषाओं का अध्ययन किया। उनकी नियुक्ति १८८३ में प्रधानाध्यापक के रूप में निज़ामाबाद के मिडिल स्कूल में हुई। वे १८९० में कानून की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर कानूनगो बने। १९२३ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने उनकी साहित्य सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए उन्हें हिंदी के अवैतनिक प्राध्यापक का पद प्रदान किया।
‘हरिऔध’ जी द्वारा १९१४ में रचित ‘प्रिय प्रवास’, संस्कृत गर्भित, कोमलकांत-पदावली से अलंकृत, आभिजात्य तत्सम शब्दों की बहुलता युक्त, खड़ी बोली का प्रथम प्रबंध महाकाव्य है। यद्यपि ‘प्रिय प्रवास’ के नायक श्रीकृष्ण का चरित्र श्रीमद्भागवत पुराण पर आधारित है परंतु श्रीकृष्ण को अवतारी ईश्वर बताने की अपेक्षा, ‘हरिऔध’ जी ने उनका वर्णन और प्रतिष्ठा लोकरक्षक तथा विश्वकल्याण की भावना से परिपूर्ण शुद्ध मानवीय स्वरूप में की। यही मानववादी, आधुनिक दृष्टिकोण उस सर्वाधिक प्रसिद्ध महाकाव्य की प्रमुख विशेषता है। ‘हरिऔध’ जी ने प्रवास प्रसंग तक सीमित उसके कथानक में विलक्षण कल्पनाशक्ति द्वारा, श्रीकृष्ण के लीलामय जीवन की व्यापक झांकियां प्रस्तुत की हैं। ये महाकाव्य श्रीकृष्ण कथा के मार्मिक पक्ष का सर्वथा मौलिक, नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वाला, विप्रलंभ काव्य का सशक्त उदाहरण है। उसमें ‘हरिऔध’ जी ने श्रीकृष्ण के मथुरा-गमन के पश्चात प्रेयसी राधा और ब्रजवासियों द्वारा विरहसंतप्त जीवन के मनोभावों का हृदयस्पर्शी वृतांत, सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है। उन्होंने महाकाव्य की नायिका ‘राधा’ को विरह व्यथित प्रेयसी के अलावा, आदर्श नारी सुलभ गुणों से संपन्न, मर्यादा पालन करने वाली कर्तव्यनिष्ठ समाज सेविका रुपी चारित्रिक विशेषताओं युक्त, भारतीय संस्कृति की प्रतिनिधि नारी के रूप में व्याख्यायित किया है। उद्भट विद्वानों ने ‘प्रिय प्रवास’ की काव्यगत विशेषताओं के कारण उसे हिंदी के महाकाव्यों में मील का पत्थर माना है और ‘हरिऔध’ जी खड़ी बोली के प्रथम महाकवि माने गए हैं। उन्हें ‘प्रिय प्रवास’ के लिए मंगला प्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया गया था। उनका वृहदाकार ग्रंथ ‘वैदेही बनवास’, प्रबंध सृष्टि की एक और उल्लेखनीय कृति है पर उसमें ‘प्रियप्रवास’ जैसी काव्यात्मकता और नयेपन का अभाव है।
‘हरिऔध’ जी का ब्रजभाषा पर यथेष्ट अधिकार था अतः उन्होंने काव्य साधना का शुभारंभ ब्रजभाषा में किया। उन्होंने ब्रजभाषा में रचित काव्य संग्रह ‘रसकलश’ में श्रृंगारिक और काव्य-सिद्धांत निरूपण की दृष्टि से लिखी गई आरंभिक स्फुट कविताएं संकलित की थीं। उन्होंने मुक्तक काव्य ‘चोखे चौपदे’, तथा ‘चुभते चौपदे’ में आम हिंदुस्तानी लोकभाषा में प्रचलित खड़ी बोली के सौंदर्य बहुल मुहावरों के लौकिक स्वरूप की झांकी प्रस्तुत की। महत्वपूर्ण कृति ‘चोखे चौपदे’ रचकर सिद्ध किया कि उन्होंने अपनी सीधी-सादी ज़बान को विस्मृत नहीं किया है। इनके अन्य मुक्तक काव्य ‘कल्पलता’, ‘बोलचाल’, ‘पारिजात’ और ‘हरिऔध सतसई’ हैं।
द्विवेदी युग में विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक कारणों से संपूर्ण राष्ट्र में उथल-पुथल की स्थिति थी। साहित्य के क्षेत्र में भी पुरानी परंपराएं त्यागकर, परिवर्तन स्वरुप, नई विचारधाराओं का समावेश हो रहा था। अंग्रेजी शिक्षा के प्रति मोहाविष्ट, परिवर्तन के दौर से गुजरते भारतीय समाज में विभिन्न सामाजिक संगठनों के माध्यम से सामाजिक समस्याओं पर कुठाराघात हो रहा था। साहित्य के क्षेत्र में आए क्रांतिकारी परिवर्तन के कारण, थोथी कल्पनाओं की उड़ान-डकान की जगह, सामाजिक समस्याओं का सच्चा चित्रण करने वाला साहित्य लोकप्रिय हो रहा था। उस समय के साहित्यकारों ने चिंतन किया कि जिस साहित्य में सच्चाई प्रकट ना हो और जिससे समाज लाभान्वित ना हो, ऐसे साहित्य का कोई मूल्य नहीं। लुभावने शब्दों के मायाजाल में कल्पना लोक की बातों को प्रस्तुत करने की बजाए जीवन की वास्तविकता दर्शाता साहित्य ही सच्चा है।
‘हरिऔध’ जी, द्विवेदी युग के प्रतिभासंपन्न, प्रमुख प्रतिनिधि कवि थे जिनमें श्रेष्ठ कवि के समस्त गुण विद्यमान थे। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक स्थितियों को ध्यान में रखकर काव्य रचना आरंभ की। धर्म और संस्कृति में आस्था, राष्ट्र प्रेम और लोककल्याण की भावना उनकी कविताओं की मुख्य विशेषताएं थीं। उन्होंने हिंदी साहित्य के गद्य और पद्य में समान रूप से सृजन किया। खड़ी बोली में सर्वप्रथम काव्य-रचना करके उन्होंने सिद्ध किया कि ब्रजभाषा के समान, खड़ी बोली की कविताएं भी सरस और मधुर हो सकती हैं। उनके द्वारा संपादित ‘कबीर वचनावली’ की भूमिका में कबीर पर लिखे लेख उनकी आलोचनात्मक दृष्टि के परिचायक हैं। ‘विभूतिमती ब्रजभाषा’ और ‘साहित्य संदर्भ’ उनकी अन्य आलोचनात्मक रचनाएं हैं। ‘हिंदी भाषा और साहित्य का विकास’ नामक उनका इतिहास ग्रंथ अत्यंत लोकप्रिय हुआ। ‘इतिवृत्त’ उनकी आत्मकथात्मक रचना है और ‘संदर्भ सर्वस्व’ ललित निबंध है।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के विचार ‘हरिऔध’ जी के महत्व को बखूबी रेखांकित करते हैं - ‘‘हरिऔध’ जी की सबसे बड़ी विशेषता है कि ये हिंदी के सार्वभौम कवि हैं जो खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल, सब प्रकार की कविता की रचना कर सकते हैं। खड़ी बोली के कवियों में ‘पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की काव्य साधना विशेष महत्व की ठहरती है। सहृदयता और कवित्व के विचार से भी ये अग्रगण्य हैं। इनके समस्त पद औरों की तुलना में अधिक मधुर हैं जो इनकी कवित्त शक्ति के परिचायक हैं।’’ त्रिलोचन पांडेय ने भी ‘प्रिय प्रवास’ के बारे में लिखा है - ‘‘ये महाकाव्य अनेक रसों का आवास, विश्व-प्रेम, शिक्षा का विकास, ज्ञान-वैराग्य, भक्ति और प्रेम का प्रकाश एवं भारतीय वीरता, गंभीरता परित स्वधर्मोद्धारक का पथ-प्रदर्शक काव्यामृतोच्छ्वास है।’’ पर आलोचक रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हरिऔध’ जी के महाकाव्य ‘प्रियप्रवास’ में समुचित कथानक का अभाव पाया इसीलिए उन्होंने इसके प्रबंधत्व एवं महाकाव्यत्व को अस्वीकार किया था। परन्तु प्रबंध काव्य संबंधी रूढ़ियों को दरकिनार करने पर, काव्य में प्रबंध का आसानी से दर्शन होने के कारण शुक्ल जी से सहमत नहीं हुआ जा सकता।
‘हरिऔध’ जी आरंभ में नाटक और उपन्यास लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। १८९३ तथा १८९४ में उनकी ‘रुक्मणी परिणय’ तथा ‘प्रद्युम्न विजय व्यायोग’ नामक नाट्य कृतियां प्रकाशित हुईं। १८९४ में प्रथम उपन्यास ‘प्रेमकांता’ प्रकाशित हुआ। १८९९ में ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ और १९०७ में ‘अधखिला फूल’ नामक औपन्यासिक कृतियां प्रकाशित हुईं। उनके प्रारंभिक प्रयास के रूप में उल्लेखनीय इन कृतियों में नाट्यकला अथवा उपन्यासकला की विशेषताएं ढूंढ़ना कतई तर्कसंगत नहीं है। फिर उन्होंने मूलतः कवि रूप में अपनी प्रतिभा विकसित की और आरंभिक काव्य कृतियों में विभिन्न प्रयोगों द्वारा प्रेम और श्रृंगार के पक्ष दर्शाए। उनके रचे गए काव्यों में प्रमुख हैं - ‘प्रिय प्रवास’, ‘वैदेही वनवास’, ‘काव्योपवन’, ‘रसकलश’, ‘बोलचाल’, ‘चोखे चौपदे’, ‘चुभते चौपदे’, ‘पारिजात’, ‘कल्पलता’, ‘मर्मस्पर्श’, ‘पवित्र पर्व’, ‘दिव्य दोहावली’, ‘हरिऔध सतसई’, ‘रसिक रहस्य’, ‘प्रेमाम्बुवारिधि’, ‘प्रेम प्रपंच’, ‘प्रेमाम्बु प्रश्रवण’, ‘प्रेमाम्बु प्रवाह’, ‘प्रेम पुष्पहार’, ‘उदबोधन’, ‘कर्मवीर’, ‘ऋतु मुकुर’, ‘पद्मप्रसून’ और ‘पद्मप्रमोद’ आदि।
‘हरिऔध’ जी को हिंदी में संस्कृत छंदों का सफल प्रयोग करने का श्रेय जाता है। उस दौर में विद्वानों द्वारा लिखी जा रही रचनाओं से प्रेरित होकर उन्होंने खड़ी बोली को काव्य की भाषा के रूप में परिमार्जित और संस्कारित किया। तत्पश्चात भाषा में समयानुरूप परिवर्तन करके खड़ी बोली में काव्य सृजन किया। उनकी विलक्षण, अपार प्रतिभा ने उन्हें यथोचित सम्मान दिलाया। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें ‘विद्यावाचस्पति’ की उपाधि से सम्मानित किया और उन्होंने उसके सभापति पद को सुशोभित किया। उनका परिचय प्रकाशित करते हुए, अमेरिकन ‘एनसाइक्लोपीडिया’ ने उन्हें विश्व के साहित्य पुरोधाओं में अग्रणी पंक्ति प्रदान की थी। हिंदी साहित्य जगत के मूर्धन्य महाकाव्यकार सितारे, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी ने १६ मार्च, १९४७ को इस नश्वर संसार से महाप्रयाण किया।