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मशहूर हिंदी साहित्यकार कृष्णा सोबती का 94 की उम्र में निधन

जिसे आज दुनिया बोल्ड कहती है, कृष्णा सोबती के लिए यह ‘बोल्डनेस’ बहुत आम थीं। दिलेर नायिकाओं की...
मशहूर हिंदी साहित्यकार कृष्णा सोबती का 94 की उम्र में निधन

जिसे आज दुनिया बोल्ड कहती है, कृष्णा सोबती के लिए यह ‘बोल्डनेस’ बहुत आम थीं। दिलेर नायिकाओं की चितेरी सोबती ने शुक्रवार को सुबह अंतिम सांस ली और दुनिया से विदा हो गईं। लेकिन विदा होने से पहले वह बता गईं कि स्त्री नायिकाएं भी ‘आजाद’ और ‘खुदमुख्तार’ हो सकती हैं।

94 साल की जवान लेखिका

हिंदी साहित्य में वह अकेली ऐसी लेखिका थीं जो अपनी नायिकाओं की तरह ही बिंदास थीं। वह किसी को भी फटकार सकती थीं और किसी भी बात पर अड़ सकती थीं। एक बार एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था, ‘जरूरी नहीं कि जो नहीं है वह सही नही है।’ उनका आशय इस बात से था कि दुनिया में जो नहीं हो रहा और कोई लेखक लिख दे तो इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि वह गलत ही है। उन्होंने कभी अपनी तबीयत या उम्र का रोना नहीं रोया और लगातार लिखती रहीं। हाल ही में उनकी पुस्तक गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान खूब चर्चित हुई थी।

पुरुषों के दौर में जमाया सिक्का

कृष्णा सोबती जब लिख रही थीं तब राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश की त्रयी के साथ-साथ भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा बहुत सक्रिय थे। इन लोगों की शोहरत भी चरम पर थी। लेकिन सोबती लगातार अपने लेखन से सिद्ध करती रहीं कि वह किसी से कम नहीं हैं। उन्होंने मित्रो मरजानी जैसा चरित्र गढ़ा जो परिवार को टक्कर देती है, अपनी मर्जी की मालकिन है और उसे पता है कि जिंदगी में उसे क्या चाहिए। यह उस दौर में क्रांति की तरह था कि कोई स्त्री पात्र यौनिकता पर खुल कर बहस कर सके। इससे पहले किसी महिला लेखिका ने अपनी नायिका को इतना आत्मविश्वासी नहीं दिखाया था।

अवॉर्ड नहीं लेखन

कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी सहित ढेरों पुरस्कार मिले थे। 18 फरवरी 1925 को वर्तमान पाकिस्तान में जन्मी सोबती अपनी बेबाक राजनीतिक राय के लिए भी जानी जाती हैं। 2015 में देश में असहिष्णुता के माहौल के खिलाफ उन्होंने अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटा दिया था।

रचनाएं जो छाप छोड़ गई

उनकी प्रमुख रचानाओं में मित्रो मरजानी, ऐ लड़की, दिलोदानिश, जिंदगीनामा, सूरजमुखी अंधेरे के और सरगम बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके लेखन की खास बात थी कि वह लड़कियों को अपनी रचनाओं में वैसी ही स्वतंत्रता देती थीं जैसी लड़कियों को वास्तव में मिलना चाहिए। वह इस बात की पक्षधर थीं कि अगर साहित्य समाज का आइना है तो इस आइने में सभी का अक्स समान रूप से दिखना चाहिए।

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