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जयंती विशेष : संन्यास से साम्यवाद तक की यात्रा वाले अद्भुत, अनोखे, निराले यायावर महापंडित राहुल सांकृत्यायन

महापंडित राहुल सांकृत्यायन हिंदी यात्रा साहित्य के जनक के पद पर प्रतिष्ठित हैं। विश्व-दर्शन के...
जयंती विशेष :  संन्यास से साम्यवाद तक की यात्रा वाले अद्भुत, अनोखे, निराले यायावर महापंडित राहुल सांकृत्यायन

महापंडित राहुल सांकृत्यायन हिंदी यात्रा साहित्य के जनक के पद पर प्रतिष्ठित हैं। विश्व-दर्शन के यात्रा वृतांतों में उनका अभूतपूर्व, अतुलनीय योगदान है। तिब्बत से श्रीलंका तक भ्रमण के उपरांत उनका बौद्ध धर्म पर शोध हिंदी साहित्य में युगांतकारी माना जाता है। राहुल जी का जन्म 9 अप्रैल, 1893 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पन्दहा ग्राम में हुआ था। पिता का नाम गोवर्धन पांडे और माता का नाम कुलवंती था। वे एक बहन और चार भाईयों में ज्येष्ठ पुत्र थे पर उनकी बहन का बाल्यावस्था में देहांत हो गया था। पिता ने ‘केदारनाथ पांडे’ नाम रखा और सांकृत्य गोत्रीय पितृकुल होने से नाम में ‘सांकृत्यायन’ जुड़ा। १९३० में लंका में बौद्ध होने पर उनका नाम ‘राहुल’ हुआ। बौद्ध होने के पूर्व वे ‘दामोदर स्वामी’ नाम से पुकारे जाते थे। 

 

 

राहुल जी का बाल्यकाल नाना पंडित रामशरण पाठक के सान्निध्य में व्यतीत हुआ। फौज में नौकर रहे नाना से सुनी वीरों की कहानियां, आखेट के अद्भुत वृतांत, भारत के प्रदेशों की रोचक गाथाएं, अजंता-एलोरा की किंवदंतियों तथा नदियों-झरनों के वर्णन ने आगामी यायावर जीवन हेतु भूमिका तैयार की। नाना के घर एक दिन उनसे घी भरी मटकी नहीं संभल सकी अतएव दो सेर घी धरती पर बह गया। नाना की डांट-डपट का भय, घर छोड़कर भ्रमण की राह अपनाने का संयोग बन गया। माना जाता है कि उनके द्वारा तीसरी कक्षा की उर्दू पुस्तक में ‘नवाज़िंदा-बाज़िंदा’ के निम्नलिखित शेर ने जीवन का मार्ग प्रशस्त करके उन्हें विभिन्न देशों की यात्राओं के लिए प्रेरित किया....

 

‘सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िंदगानी फिर कहां,

 

ज़िंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां’

 

 

 

राहुल जी की यात्राओं में पहली उड़ान वाराणसी, दूसरी और तीसरी उड़ान कलकत्ता की थी। उन्होंने १९०९ से १९१४ तक वैराग्य से प्रभावित होकर हिमालय पर जीवन बिताया। वाराणसी में संस्कृत के अध्ययन के दौरान परसा महंत का साहचर्य मिला। उन्होंने आगरा में पढ़ाई की, लाहौर में मिशनरी कार्य किया, इसके बाद पुन: घुमक्कड़ी हेतु कुर्ग में चार माह तक रहे। उन्होंने १९२१ से १९२७ तक राजनीति में सक्रिय रहकर स्वतंत्रता आंदोलन के सत्याग्रह में भाग लिया, छपरा जाकर बाढ़ पीड़ितों की सेवा की और बक्सर जेल में छ: माह तक रहे। वे कौंसिल का चुनाव लड़कर जिला कांग्रेस के मंत्री बने। फिर नेपाल में डेढ़ माह रहकर, हजारी बाग जेल में रहे। राजनीतिक शिथिलता होने पर पुन: हिमालय चले गए। उन्होंने १९२७ में लंका में उन्नीस माह बिताए। नेपाल में अज्ञातवास में रहे, सवा बरस तिब्बत में रहे, दोबारा लंका गए, फिर सत्याग्रह के लिए भारत लौटे, तत्पश्चात तीसरी बार लंका के लिए प्रस्थान किया। राहुल जी ने १९३५ में दो बार, १९३६ में तीसरी और १९३८ में चौथी बार तिब्बत यात्रा की। वे १९३५ में दो बार लद्दाख, जापान, कोरिया, मंचूरिया गए और १९३६ में पहली बार ईरान गए। उन्होंने इंग्लैंड और यूरोप की यात्रा की। १९३५ और १९३७ में दो बार सोवियत भूमि की यात्रा की। उनकी प्रारंभिक यात्राओं ने उनके चिंतन को दिशा दी। उन्होंने प्राचीन एवं अर्वाचीन विषयों का अध्ययन करके देश-देशांतरों की अधिकाधिक जानकारी प्राप्त की। उनको इन्हीं प्रवृत्तियों ने महान पर्यटक और महान अध्येता बनाया।

 

 

 

राहुल जी ने १९३८ से १९४४ तक किसान संघर्ष और किसान-श्रमिकों के आंदोलन में भाग लेकर सत्याग्रह में भूख हड़ताल की। कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होने के परिणामस्वरूप १९४० से १९४२ के दौरान २९ माह कारावास में रहे। फिर उन्होंने सोवियत रूस के लिए पुन: प्रस्थान किया और वहां से लौटकर भारत आए। तदुपरांत चीन, फिर लंका चले गए। राहुल जी का मानना था कि यायावरी, मानव-मन की मुक्ति का साधन और अपने क्षितिज का विस्तार है। ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ उनके समस्त यात्रा अनुभवों को आत्मसात करके रचा गया। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है कि, ‘कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेक़रार है।’ वे सच्चे ज्ञान के खोजी थे अतः सत्य को दबाने पर बागी होने के कारण उनका जीवन अंतर्विरोधों से भरा रहा।

 

 

 

कट्टर सनातनी ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी उन्हें सनातनी रूढ़िवाद रास नहीं आया। वे हर धर्म को तर्क की कसौटी पर कसकर उसे ग्रहण करते थे। विभिन्न धर्मों एवं शास्त्रों के मूल तत्व अपनाकर उनके बाह्य ढांचे छोड़ देते थे। वे किसी धर्म या विचारधारा के दायरे में नहीं बंधे। उनके चिंतन का क्रम सनातन धर्म, आर्य समाज और बौद्ध धर्म से साम्यवाद रहा। उन्होंने ‘मंझिम निकाय’ के सूत्र का हवाला देकर अपनी ‘जीवन यात्रा’ में इस तथ्य का स्पष्टीकरण ऐसे किया है - ‘बड़े की भांति मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोए-ढोए फिरने के लिए नहीं। तो मालूम हुआ कि जिस चीज को मैं इतने दिनों से ढूंढता रहा हूँ, वह मिल गयी।’

 

 

 

बाल्यकाल से मेधावी राहुल जी विद्यालय की प्रत्येक कक्षा में अव्वल आते थे। उनके पर्यटक वृत्ति प्रधान जीवन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति सर्वोपरि थी। धार्मिक और राजनैतिक परिदृश्य में रहकर भी उनका अध्ययन-चिंतन अप्रभावित रहा। वे परिस्थिति अनुसार स्वयं को ढालकर किसी भी विषय की संपूर्ण जानकारी प्राप्त करना धर्म मानते थे। वाराणसी प्रवास में संस्कृत से अनुराग होने पर उन्होंने संपूर्ण संस्कृत साहित्य एवं दर्शन का सांगोपांग अध्ययन किया। कलकत्ता में अंग्रेज़ी का ज्ञान अर्जित किया। आर्य समाज से प्रभावित हुए तो वेदों का आद्योपांत अध्ययन किया। बौद्ध धर्म की ओर ध्यान आकृष्ट हुआ तो पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, तिब्बती, चीनी, जापानी एवं सिंहली भाषाओं की जानकारी ली, समस्त बौद्ध ग्रंथों का पठन-मनन किया तथा सर्वश्रेष्ठ उपाधि ‘त्रिपिटिकाचार्य’ की पदवी पाई। साम्यवाद में झुकाव ने कार्ल मार्क्स, लेनिन तथा स्तालिन के दर्शन से परिचय कराया। राहुल जी ने अपनी ‘जीवन यात्रा’ में १९२७ से साहित्यिक जीवन का प्रारंभ स्वीकार किया है पर उन्होंने किशोरावस्था से लिखना प्रारंभ कर दिया था। उनकी लेखनी और उनके पाँवों ने कभी विराम नहीं लिया। उन्होंने विभिन्न विषयों पर अनुमानतः १५० से अधिक ग्रंथ प्रणीत किए और प्रकाशित ग्रंथों की संख्या संभवत: १२९ है। लेखों, निबंधों एवं वक्तृताओं की संख्या हज़ारों में हैं। इसीलिए वे इतिहास, पुरातत्व, स्थापत्य, भाषा एवं राजनीति शास्त्र के अप्रतिम विद्वान माने गए।

 

 

 

वेदांत के अध्ययन के पश्चात, मंदिरों में बलि चढ़ाने की परंपरा के विरुद्ध व्याख्यान देने पर अयोध्या के पुरोहितों ने उनपर लाठियां बरसाईं। उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकारने के बावजूद उसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकारा। मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने सोवियत संघ की तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आंदोलन नष्ट होने का कारण बताया। १९४७ में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन में बतौर अध्यक्ष, उन्होंने छपा हुआ भाषण नहीं बोला। उन्होंने अपने भाषण में अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत विचार बोले। फलस्वरूप पार्टी की सदस्यता से वंचित हुए पर उनके तेवर नहीं बदले। इस कालावधि में, बंदिशों से परे वे तत्कालीन सरोकारों के प्रगतिशील लेखन से जुड़े रहे। उन्होंने भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों का आकलन करके मार्क्सवादी विचारधारा लागू करने पर बल दिया। उन्होंने ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ एवं ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ नामक पुस्तक में इस पर सम्यक प्रकाश डाला। वे १९५३-५४ के दौरान पुन: कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य मनोनीत हुए ।

 

 

 

१९४० में कर्मयोगी योद्धा राहुल जी को बिहार के किसान-आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने पर एक वर्षीय कारावास हुआ जहां उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ग्रंथ की रचना की। रिहा होने पर उन्हें किसान आंदोलन के शीर्ष नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने अपने साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का संपादक बनाया। फूट डालो-राज करो की नीति वाली ब्रिटिश सरकार ने गैर कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाओं के चार अंकों में ‘गुंडों से लड़िए’ शीर्षक के साथ विज्ञापन प्रकाशित किया। इसमें एक व्यक्ति गांधी टोपी व जवाहर बंडी पहने आग लगाते दिखाया गया था। राहुल जी ये विज्ञापन छापने को तैयार नहीं थे पर मोटी धनराशि देखकर स्वामी सहजानन्द ने उन्हें विज्ञापन छापने पर विवश किया। राहुल जी ने स्वयं को पत्रिका के संपादन से अलग कर लिया। राहुल जी १९४० में ‘बिहार प्रांतीय किसान सभा’ के अध्यक्ष थे। ज़मींदार के आतंक से नितांत निर्भय, वे सत्याग्रही किसानों के साथ हाथों में हंसिया लिए, खेतों में जाकर गन्ना काटने लगे। ज़मींदार के आदेश पर उसके लठैतों ने सिर पर वार करके उन्हें लहुलुहान कर दिया पर वे हिम्मत नहीं हारे। उन्होंने कई बार मुखर अभिव्यक्ति के साथ जनसंघर्ष का सक्रिय नेतृत्व किया।

 

 

 

बहुभाषाविद राहुल जी ने हिंदी साहित्य के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, लोक-साहित्य, यात्रा-साहित्य, जीवनी, राजनीति, इतिहास, संस्कृत ग्रंथों की टीका और अनुवाद, तिब्बती भाषा एवं बालपोथी संपादन आदि पर साधिकार लिखा। राहुल जी ने हिंदी भाषा साहित्य में ‘अपभ्रंश काव्य साहित्य’, ‘दक्खिनी हिंदी साहित्य’ और ‘आदि हिंदी की कहानियां’ प्रस्तुत करके लुप्तप्राय निधि का उद्धार किया। सर्वथा नया दृष्टिकोण उनकी मौलिक कहानियों और उपन्यासों की विशेषता था। उनकी रचनाओं का विशिष्ट पक्ष था, अन्य किसी के ध्यान में नहीं आने वाले प्राचीन इतिहास या वर्तमान के अछूते भागों का अन्वेषण करना। ‘सतमी के बच्चे’ और ‘कनैला की कथा’, मोहक चित्रों से भरी वो रचनाएं हैं जो प्राचीनता के प्रति उनके मोह और इतिहास के प्रति गौरवांवित होने के उदाहरण हैं। वे प्राचीन खंडहरों से गणतंत्रीय प्रणाली खोज निकालने और धार्मिक आंदोलनों के मूल में जाकर सर्वहारा का धर्म पकड़ने में सिद्धहस्त थे। उन्होंने अत्यंत साधारण परिश्रमी श्रमिकों द्वारा जनता के राज्य की परिकल्पना को असाधारण लोगों पर वरीयता देकर, ऐतिहासिक पृष्ठों वाली रचनाओं का मूल आधार बनाया। राहुल जी द्वारा क्लिष्ट साहित्यिक भाषा, अति काव्यात्मकता अथवा व्यंजनाओं की जगह सीधी, सहज-सरल शैली का प्रयोग उनकी रचनाओं को पाठकों के लिए मनोरंजक, बोधगम्य एवं पठनीय बनाता था।

 

राहुल सांकृत्यायन को १९५८ में ‘साहित्य अकादमी’ और १९६३ में भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। १९६३ में ‘स्मृति लोप’ की अवस्था के कारण वे इलाज हेतु मास्को ले जाए गए जहां से मार्च में वापस दिल्ली लौटे। १४ अप्रैल, १९६३ को सत्तर वर्षीय, संन्यास से साम्यवाद तक की यात्रा वाले अद्भुत, अनोखे, निराले यायावर महापंडित ब्रह्मलीन होकर अनंत यात्रा पर निकल गए।

 

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