कार्यक्रम में कपिल कपूर ने कहा कि आधुनिक परिभाषाओं के कारण मतभेद पैदा हुए हैं, भाषा कभी एकता के लिए कोई खतरा नहीं रही। सांसद नरेंद्र जाधव ने कहा कि एकता हमारे वैविध्य का ही प्रतीक है। ‘आदर्श जीवनमूल्य एवं भारतीय साहित्य’ विषयक सत्र की अध्यक्षता कन्नड़ साहित्यकार एस.एल. भैरप्पा ने की। उन्होंने कहा कि भावात्मक एकता का स्वरूप राजनीतिक दलों द्वारा समुदायों को वोट बैंक के रूप में बांटने से विकृत हुआ है। ‘भारतीय साहित्य में भारतीयता’ सत्र के अध्यक्ष नरेंद्र कोहली ने कहा कि हमें राष्ट्रीय एकता या भारतीयता की खोज के लिए संत कवियों की भावात्मक एकता से जोड़ने वाली धार्मिक सीखों से जुड़ना होगा। बद्रीनारायण (हिंदी) ने समाजशास्त्रीय संदर्भों में भारतीयता की परिभाषा दी, कहा कि साहित्य की परंपरा भारत के एक भाव को प्रतिबिंबित करती है। सितांशु यशश्चंद्र (गुजराती) ने भी आलेख पढ़ा।
उद्घाटन वक्तव्य में ओड़िया कवि एवं अकादेमी के महत्तर सदस्य सीताकांत महापात्र ने कहा-रामायण और महाभारत से प्रेरित रहे साहित्य का मुख्य स्वर भावात्मक एकता का ही है। बीज वक्तव्य में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि हमारी एकता आलोचनात्मक भी होनी चाहिए। अकादेमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा, भारत का बहुलतावाद और वैविध्य परंपरा की एकता ही भावात्मक एकता की बुनियाद है। ‘भारतीय साहित्य की मूल भावना’ विषयक सत्र में भगवान सिंह ने भारत के प्राचीन इतिहास, संस्कृति, जीवन व्यवहार, वर्तमान साहित्य और चिंतन के परिवर्तनों पर बात की। लक्ष्मी नंदन बोरा ने कहा कि उत्तर पूर्व के जीवन में विभिन्न भाषाओं और बोलियों की विविधता के बावजूद सामंजस्य है। अध्यक्षीय वक्तव्य में भालचंद्र नेमाड़े ने साहित्य के लिए इतिहास और परंपरा की गहन जानकारी को जरूरी बताया। भारतीय सांस्कृतिक वैविध्य और एकत्व विषयक आलेख में बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि राष्ट्रीय भावात्मक एकता दलित समुदाय के सशक्तिकरण के बिना नहीं हो सकती। रोबेना राबिन्सन ने राज्यों और समुदायों का समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया। अध्यक्ष सूर्यप्रसाद दीक्षित ने भारतीय सांस्कृतिक वैविध्य और एकत्व के विंदुओं को समझाया। समापन वक्तव्य अकादेमी उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कंबार ने दिया। स्वागत व धन्यवाद ज्ञापन अकोदमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने किया।