संगीत सूर्य बैजू बावरा जैसे महान ध्रुपद कलाकार ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण साल चंदेरी में गुजारे और बसंत पंचमी के दिन अंतिम सांस भी इसी शहर में ली। शायद यही वजह है कि इस शहर की हवा में आज भी भारतीय शास्त्रीय संगीत के स्वर तैरते हैं, तो पक्षियों के कलरव में रागों की ध्वनियां निकलती सुनाई देती हैं। यहां स्थित बैजू की समाधि पर आने वाले हर शख्स को एक अनसुनी धुन सुनाई पड़ती है। इसी अनसुनी धुन को जीवंत करने के लिए 13 फरवरी, 2016 को बसंत पंचमी के दिन राजा-रानी महल में प्रथम बैजू बावरा ध्रुपद उत्सव का आयोजन किया गया। चंदेरी में बैजू बावरा ध्रुपद उत्सव इसकी एक कड़ी है।'
ध्रुपद उत्सव की शुरुआत ध्रुपद गायक पं. उमाकांत एवं रमाकांत गुंदेचा ने बैजू बावरा की रचना से की। बसंत पंचमी के दिन जन्में छायावाद के विद्रोही कवि पं. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की रचना के बाद गुंदेचा बंधुओं ने बुनकरों की नगरी चंदेरी में कबीर की रचना भी प्रस्तुत की। सांध्यकालीन संगीतमयी बेला से पूर्व 'विरासत का अर्थ' विषय पर संगोष्ठी हुई, जिसमें कवि एवं कलाविद अशोक वाजपेयी ने कहा कि परंपराएं, लोक संस्कृति की वाहक हैं। इन्हें धर्म और अंधविश्वास से जोड़कर इनका बहुत नुकसान किया गया।
संगीत समीक्षक मंजरी सिन्हा और पं. उमाकांत गुंदेचा ने भी संगीत और सांस्कृतिक विरासतों को सहेजने पर बल दिया। पं. रमाकांत गुंदेचा ने कहा कि संगीत में 'घरानों' का कोई मूल्य नहीं है। इनकी उत्पत्ति केवल खानदानों में संगीत परंपरा के विस्तार से होती गई। सुबह के सत्र में बच्चों एवं युवाओं को इस विधा के कलात्मक एवं व्यावहारिक पक्ष से जोड़ने के लिए कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसमें ध्रुपद गायक संजीव झा और चित्रकार मनीष पुष्कले का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
संचालन किरण तिवारी ने किया। गांवों, कस्बों और छोटे-छोटे शहरों में आयोजनों एवं कार्यशालाओं के माध्यम से आमजन तक इन कलाओं को पहुंचाने के प्रयास में जुटे संस्था के सचिव चंद्रप्रकाश तिवारी कहते हैं, 'इस वैदिक संगीत को अभिजात्य वर्ग से निकालकर आम लोगों तक पहुंचाना और लोगों को इससे परिचित कराना इस 'ध्रुपद यात्रा' का मकसद है।'